#ज़िंदगी_के_झरोखे_से_1983_
#जब_नेपाल_गए_थे_हम —
१९८३ में मैं देवरिया गया था अपनी ससुराल । एक दिन दोपहर में अचानक दिमाग़ में आया की नेपाल जाया जाये , बस आपस में बात किया पहले हम दोनो ने फिर मंजुला जी के पिता जी से जो बहुत विद्वान थे , १९५० में ही अमरीका चले गए थे जब कोई सोचता भी नही था । जबकि आज़ादी की लड़ाई में गरम दल जो हथियार से आज़ादी में विश्वास करता था उसके साथ जुड़े थे और वो भी तब जबकि अच्छे घर में पैदा हुए थे और ख़ुद उस जमाने के कोर्ट इन्स्पेक्टर के पुत्र थे ।
पी एच डी करने के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की नौकरी में चले गए । सूडान जो सिर्फ़ जंगल था वहाँ जो भी कुछ विकास हुआ वो इन्होंने ही किया इसीलिए जब ये विदेश में रहने से ऊब गए और यू एन ओ की नौकरी छोड़ने का फ़ैसला किया तो सूडान के राजा ने उन्हें अपने नियम बदल कर अपने बाद का बड़ा पद देने का प्रस्ताव दिया था पर ये वापस चले आए ।
आए थे सूट पहन कर और भारत आकर मोटा खादी का कुर्ता पजामा पहन लिया और ख़ुद ट्रैक्टर चला कर खेती करने लगे थे जबकि भारत आने पर इनको कृषि विश्व विद्यालय का कुलपति पद और आइ सी ए आर में महत्वपूर्ण पद का प्रस्ताव मिला था । स्वायल कैमेस्ट्री के बड़े विद्वान थे ।
पर होता है की व्यक्ति लम्बा समय बड़ी और आधुनिक माहौल में रह कर ऊब जाता है तो शायद कुछ लोग यही करते है जिन्हें कि जिजीविषा न घेरे हो । ये भी उसी कुछ में थे । इनसे बात कर दुनिया का हर तरह का बहुत ज्ञान मिलता था ।
ख़ैर बात हुयी और मैंने अपनी मंशा बतायी तो इजाज़त मिल गयी बस इतना पूछ कर की कहा जाएँगे कुछ तय किया है और जवाब मिलने पर वो संतुष्ट हुए की कोई दिक्कत नही होगी ।
बस सामान अटैची में रखा और चल दिए गाँव से देवरिया बस स्टेशन के लिए और वहाँ से गोरखपुर और फिर गोरखपुर से नेपाल बॉर्डर दूसरी बस से पहुँचे ।
उतर कर पैदल बार्डर पार किया टहलते हुए और नेपाल में प्रवेश कर गए ।न कोई पासपोर्ट और न बीसा । न कोई पूछताछ । सामने बस खड़ी थी , अंधेरा हो रहा था । हम क़िस्मत के धनी थे की आख़िरी बस से पहले वहाँ पहुँच गए थे । उस समय भारत में कोका कोला बंद था तो नेपाल में घुसते ही पहले एक एक कोला और फ़ैंटा पिया और उसका स्वाद पुनः याद किया और टिकट लेकर बस में बैठ गए ।
शायद समय चुनने की गलती हो गयी थी वर्ना काठमांडू तक के रास्ते का अच्छा दृश्य देखने को मिला होता पर रात हो गयी थी इसलिए सफ़र केवल सफ़र ही बन कर रह गया ।
रास्ते में दो जगह बस रुकी छोटे छोटे सड़क किनारे के ढाबे जैसे पर । हम दोनो ने चाय जैसा कुछ पिया , नही शायद मैंने चाय पिया और मंजुला जी ने फिर फ़ैंटा , नेपाल में ढाबों पर शराब क्या स्कोच की बोतलें आप को रखी दिख जाएँगी , अब का पता नही तब तो थी ।और सुबह की सूरज की किरणो के साथ हम काठमांडू में थे ।
हमारे एक दोस्त थे जो आगरा मेडिकल कालेज में पढ़ रहे थे । उनके पिता काठमांडू के बड़े व्यापारी थे । काठमांडू में उस वक्त एक ही ५ स्टार होटेल था सोल्टी ओबराय और उसके एक गेट पर उनकी बड़ी सी कोठी थी । एक रिक्शा लिया और उसको बताया उनके बारे में और मुश्किल से अगले २० मिनट में हम शुक्ला जी के निवास पर थे । पहले से न कोई फ़ोन न कोई सूचना । पहुँच कर ही बताया कि हम आ गए और आगरा से आए है । स्वाभाविक तौर पर उन्होंने अपने बेटे का नाम लेकर पूछा कि उसके दोस्त है न । और पूरी आवभगत के साथ एक कमरा और फिर नाश्ता इत्यादि । थोड़ा आराम किया तब तक उन्होंने काठमांडू में उस वक्त के बी बी सी के रिपोर्टर को बुला दिया की ये आप लोगों को घुमाने में साथ देंगे ।
हम लोग उनके साथ घूमने निकल लिए । वो अपना कैमरा लेकर आए थे तो फ़ोटो की और गाइड की ज़िम्मेदारी उनकी थी ।
काठमांडू का काफ़ी कुछ घूम कर शाम कि वापस आए तो शुक्ला जी बोले की जितना काठमांडू घुमना ज़रूरी है उतना ही सोल्टी ओबराय में जाना भी , थोड़ा आराम कर लीजिए फिर चलते है ।
घर से निकले और शानदार होटेल में ।सच बात ये है की उससे पहले मैंने उतना शानदार होटेल देखा भी नही था । शुक्ला जी को तो सभी जानते थे । ये होटेल एशिया में क़ानूनी रूप से जूवा खिलाने वाला शायद उस वक्त एकमात्र होटेल था ।
वहाँ का सिस्टम ये था की पुरुष ही मुख्यतः जूवा खेलते थे जहाँ इच्छा अनुसार कुछ कोल्ड या हार्ड ड्रिंक मिलता रहता था कुछ सनैक्स के साथ और पास में ही लाउंज था जहाँ आराम से परिवार और पत्नी बच्चे बैठ कर खाने पीने के साथ पिक्चर देखते थे पूरी रात और चूँकि शुक्ला जी की पत्नी भी साथ थी तो जब दो महिलायें साथ हो तो चिंता क्या करना ।
मैंने ये तक किया की बस १०/ २० रुपया या ऐसा ही कुछ का जूवा मशीन वाला खेलूँगा अनुभव के लिए और ख़त्म होने पर उठ जाऊँगा ।
१ रुपए के सिक्के से जो वहाँ से मिला था खेलना शुरू किया और ६ तो डूब गए पर ७ वॉ कमाल कर गया जब खन खन खन बरसात ही हो हुई रुपयों की । सब समेटा और काउंटर से कैश करवाया और मंजुला जी को बताया तो बोली की आप ने तो कहा था की इतना हारना है ।जूए का पैसा घर ले जाएँगे क्या ? मैंने कहा कि सिर्फ़ बता रहा हूँ और अब जब तक ये खर्च नही होता खेल जारी रहेगा । फिर खाना वही खाकर दुबारा बैठ गया और रात १ बजे तक अपना बचा कर वहाँ का पूरा हार गया । घर बग़ल में , निकले और घर में ।
बनारस में एक कालेज है बसंत कृष्णमूर्ति जी द्वारा स्थापित गंगा किनारे बिलकुल प्राकृतिक माहौल में । मंजुला जी के पिता जी विदेश में रहे तो थोड़ा समय वहाँ रहने के बाद ये सब भाई बहन बसंत स्कूल और उसके हॉस्टल की शरण में आ गए थे । इन सभी भाई बहनो की खेल से लेकर नाटक तक कि प्रतिभा पर फिर किसी दिन लिखूँगा । बसंत स्कूल की एक विशेषता देखा मैंने की वहाँ के दो मिल जाए तो फिर आप केवल श्रोता रह जाएँगे और पूरी डायरी मेंनटेन मिलेगी और लगातार सम्पर्क भी की कौन कहा किस हाल में हैं ।
रात को सोते सोते मंजुला जी को याद आ गयी कोई सहेली की वो तो काठमांडू में ही है और कुछ पता भी । तो अगले दिन वो पता ढूँढने निकल गए हम दोनो और पत्रकार महोदय । सहेली मिल गयी तो क्या भरत मिलाप का दृश्य देखने लायक़ था । उन लोगों के मिल जाने के बाद हम लोगों को बाक़ी घुमाने की ज़िम्मेदारी उन लोगों ने ले लिया ।फिर काठमांडू और आसपास जो भी बचा था पशुपति नाथ मंदिर सहित वो हम चारो द्वारा देखा गया अब तो जगहों के नाम भी याद नही सिवाय मंदिर संसद और राजनिवास को छोड़ कर । टैक्सी में वहाँ होंडा और कोरोला गाड़ियाँ रोमांचित करती थी एक आम भारतीय को और किराया भी बहुत सस्ता । वापसी शुक्ला जी के घर ।
हम लोग तो काठमांडू को ही पूरा नेपाल समझ कर वही से लौटना चाहते थे पर शुक्ला जी ने कहा की पोखरा देखते हुये वही से निकल जाइएगा और फिर दुबारा आइए तो चीन सीमा के पहाड़ देखने लायक़ है और ट्रेकिंग करना चाहिए । जेब इतना ही इजाज़त दे रही थी तो आने और तब जाने का वादा कर दिया जो कभी पूरा नही कर पाये ,यहा तक की अपने बाबा जी को पशुपतिनाथ ले जाने का सोचा था पर वो पूरा करने का अवसर बाबा जी ने दिया ही नही और चले गए ।
पोखरा के लिए बस की टिकट शुक्ला जी ने बुक करवा दिया और अगले दिन नेपाल के दृश्य देखते हुये पोखरा के लिए निकल लिए । पोखरा में शुक्ला जी के दोस्त कलक्टर थे मिस्टर चौरसिया जो नेपाल सरकार के सचिव बन कर रिटायर हुए । शुक्ला जी ने उनको हमारा बस नम्बर और पहुँचने का क़रीब क़रीब समय बता दिया फ़ोन से । हमारी बस शाम को पहुँची तो कलक्टर साहब बड़ी सी विदेशी गाड़ी में इंतज़ार कर रहे थे । मुलाक़ात हुयी और फिर उनके शानदार निवास पर । हाँ कलक्टर साहब और उनकी पत्नी बिना ड्राइवर के ख़ुद गाड़ी चला कर आए थे । घर पहुँचे उन्होंने ड्रिंक पूछा और मना करने पर अपना एक ड्रिंक बना लिया और हम लोगों की कोफ़ी । फिर फ़्रेश होकर निकल लिए की रात में फ़िशटेल अगर चाँद की रोशनी ठीक हुआ तो बहुत अच्छी लगेगी जो मछली की पूछ के आकार की बर्फ़ से ढकी पहाड़ी है , पाताल गंगा जो पता नही ज़मीन में कितना नीचे है पर एक चौड़े छेद के पास पता नही कितना नीचे कल कल पानी की आवाज आती है । उसके बाद झील के बीच में रेस्टोरेंट जहाँ स्ट्रीमर या नाव से जाना होता है और चूँकि खाना घर पर बोल गये थे पूछ कर की नोन वेज है या नही और चिकेन तथा फ़िश दोनो बनाने का कह गए थे ख़ानसामे को इसलिए झील के रेस्तराँ में केवल आइसक्रीम खाकर वापस लौट आए । मज़ेदार बात ये है की शुक्ला जी ने अपना जो ड्रिंक शाम को बनाया था वो इतनी यात्रा के बाद भी उनके साथ वापस घर तक आया और डिनर के ख़ात्मे के साथ ही ख़त्म हुआ ।
पोखरा घूमने के बाद वापसी थी ।कलक्टर साहब ने अपने स्टाफ़ से बोल कर एक लक्ज़री बस में बिलकुल आगे ड्राइवर के बराबर वाली बायी तरफ़ की बिलकुल सामने के शीशे के पास की दोनो सीट बुक करवा दिया की उससे दृश्य अच्छा दिखेगा । बस ड्राइवर बिलकुल नौजवान था और बस बहुत तेज चला रहा था ।
एक जगह तीखा पहाड़ी मोड़ था और वहाँ सड़क पर गिट्टी फैली हुयी थी । ड्राइवर को पहले से उसका अंदाज़ा नही था और उसने अपने अतिआत्मविश्वास में उसी तेज़ी से बस मोड़ा ।
हम बिलकुल सामने थे बस थोड़ी फिसली और हमारा वाला हिस्सा और पहिया बिलकुल खायी के ऊपर था और लगा की बस खायी में गयी और आज ज़िंदगी का ये अंतिम दृश्य और अंतिम पल है । मौत सामने दिखी और हम दोनो ने सेकंड में ही एक दूसरे को देखा और कसकर एक दूसरे का हाथ पकड़ लिया । सब कुछ सेकंड में ही हो गया । साफ़ महसूस हुआ की ड्राइवर भी थोड़ा घबड़ाया था पर उसने बहुत तेज़ी से अपना स्टीयरिंग दाहिनी तरफ़ झटके से मोडा और फ़ीसली हुयी बस दाहिनी तरफ़ के पहियों के सहारे मूड कर उस मोड़ के बाद की दाहिनी सड़क पर पहुँच गयी पता नही कैसे और कैसी आवाजों के साथ और फिर उसने ब्रेक लगा कर गाड़ी थोड़ी चौड़ी जगह किनारे रोका । बस में इस बीच सिर्फ़ चीखे थी या फिर फिसलते टायर की आवाज और कुछ ब्रेक की आवाज़ । बस रुकी तो सबकी साँस में साँस आयी । ड्राइवर ने उतर कर बस और पहिए को देखा ,मुँह धोया , पानी पिया और फिर पूरा रास्ता आराम से पूरा किया । वापस आ गए बॉर्डर और गोरखपुर और फिर वापसी घर । पर बचपन के बाद शायद यह तीसरा मौक़ा था जब मौत के साक्षात दर्शन हुए थे ।
बाक़ी छूटा सब आत्मकथा में होगा पर इतना तो लिख देना चाहता हूँ की तब नेपाल में लगा ही नही था की कोई दूसरा देश है और आज के हालात ? इस पर अलग से ।
उसी समय की कुछ फ़ोटो मिल गयी फ़िलहाल जिसमे पहली फ़ोटो में हम दोनो कितनी चिंता में है , दरअसल जेब के हिसाब से हिसाब जोड़ रहे है कि क्या ले और ले भी या ना ले ।
बाक़ी तो बाद में ना ।
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