शनिवार, 31 दिसंबर 2022

जातिवाद की पीर जो गयी ही नहीं -- और अभिमन्यु उस दिन खूब सोया |

सोमवार, 26 दिसंबर 2022

तब भी चीन था पर तब की सरकार और अब की सरकार

दो प्रधानमंत्री,दो सरकार - एक ही मुद्दा और दो व्यवहार । कौन ईमानदार ? 
1962 - भारत सैकड़ों साल की ग़ुलामी से निकला था जिसमें आख़िरी ग़ुलामी आरएसएस के प्रिय अंग्रेजो कि थी जी देश को खोखला कर गए थे और देश में अपना कुछ नही बनता था । तब नेहरू जी के सामने चुनौती थी की फ़ौज और हथियार पर पैसा खर्च करे या देश की जानता की बुनियादी ज़रूरतों पर और उन्होंने जनता को चुना । 
पड़ोसियों से टकराव न हो इसलिए पंचशील का सिद्धांत दिया और पाडसियो से अपील किया की युद्ध के विनाश से बचा जाए और अपने अपने देश के विकास पर धन खर्च किया जाए ।
चीन हिंदी चीनी भाई भाई के नारे के साथ दगा दे गया और आक्रमण कर बैठा । हम तैयार नही थे पर लड़ें, बहादुरी से लड़े लेकिन नुक़सान उठा बैठे और उसी सड़कें में नेहरू जी दुनिया छोड़ गए ।
पर सिर ३ साल में भारत को मजबूत बना दिया और १९६५ में पाकिस्तान से तथा १९६७ में चीन से जीते । १९७१ में इतिहास और भूगोल दोनो बदल दिया और फिर दुनिया की ४ आर्थिक , सामरिक और आंतरिक्ष की शक्ति में शामिल हो गए कांग्रेसी सरकारो के ही कामो से । गोवा , अरुणाचल , सिक्किम साहित ना जाने कितने इलाक़े भारत का हिस्सा बना लिया । 

१९६२ की ही बात है अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार पर चीन के सवाल पर हमला किया और संसद में बहस की माँग किया । प्रधानमंत्री नेहरू जी ने तुरंत स्वीकार कर लिया । निर्दलीय सांसद लक्ष्मी मल सिंघवी से माँग किया की ये संवेदनशील मामला है इसलिए चर्चा को बंद कमरे की रखा जाए पर नेहरू जी ने मना कर दिया कि चर्चा खुली होनी चाहिए और देश की जनता को सच्चाई तथा अपनी कमजोरी मालूम होनी चाहिए । 
चर्चा हुयी और १६५ सांसदो ने विचार व्यक्त किया । कांग्रेस के कई सांसदो ने अपनी सरकार के ख़िलाफ़ बोला पर नेहरू जी किसी से ना नाराज़ हुए और ना किसी का टिकट ही काटा । 

२०२२ फिर उसी चीन का मामला । कुछ समय पहले लोकसभा में भाजपा के अरुणाचल प्रदेश के सांसद ने लोकसभा में बयान दिया था की आप यहाँ हिंदू मुस्लिम कर रहे है और उधर चीन अरुणाचल में १६ किलोमीटर अंदर घुस कर निर्माण कर रहा है ।
फिर गलवान घाटी सहित कई जगह चीन अंदर घुस गया ,हमारे सैनिक शहीद हुए , हमारी हजारो वर्ग मील ज़मीन पर चीन ने क़ब्ज़ा कर लिया पर प्रधानमंत्री मोदी जी ने संसद में बयान दिया की ना कोई आया और ना कोई घुसा , ना हमारी ज़मीन पर किसी का क़ब्ज़ा है । 
पर रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री चीन को पूर्व की स्थिति में जाने का लगातार बयान दे रहे है और उच्च सैन्य अधिकारी स्तर पर लगातार बातचीत हो रही है तो मोदी जी ने देश से असत्य क्या बोला । 
कई जगहों पर चीन के क़ब्ज़ा कर निर्माण की तस्वीरें सेटलाईट से लगातार प्राप्त हो रही है । अभी ९ दिसम्बर को चीन ने फिर अतिक्रमण किया । 
इस बार संसद में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस रोज़ दोनो सदनो में माँग करता रहा की देश को सच मालूम होना चाहिए तथा देश को विश्वास में लेकर एकजुट होकर इसका मुक़ाबला करना चाहिए ।
पर आर एसएस की सरकार एक बार भी चीन पर संसद में मुह खोलने को तैयार नही हुयी । 
उल्टे चर्चा से बचने के लिए संसद के सत्र को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया ।
अब देश ढूँढ रहा है वो लाल आँखे और मोदी जी के ना घुसा ना कोई आया के पीछे का रहस्य । 
देश को ही तय करना है प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री का अंतर , सरकार और सरकार का अंतर , सोच और सोच का अंतर , संकल्प और संकल्प का अंतर ।

#मैं_भी_सोचू_तू_भी_सोच

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2022

हर चुनाव संदेश देकर जाता है -

हर चुनाव संदेश देकर जाता है -

कल ही गुजरात और हिमालय के साथ विभिन्न प्रदेशो के चुनाव परिनाम आये और एक दिन पहले दिल्ली नगर निगम के परिनाम भी देश ने देखा । ये चुनाव राजनीतिक समीक्षको के लिये अध्ययन का विषय है तो दलो के लिये आत्मचिंतन का ।
गुजरात मे लगातार फिर भाजपा जीती है और पहले के रिकॉर्ड तोड कर जीती है पर उसके लिये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को दिल्ली छोडकर वही दिन रात एक करना पड़ा और किसी स्थानीय नेता की तरह रोज कई सभाए करनी पडी , अपने सम्मान का हवाला देना पड़ा ,लंबे लंबे रोड मार्च निकालने पड़े तो चुनाव के दिन को भी प्रचार के लिये उपयोग किया गया मीडिया के सहयोग से ।महाराष्ट्र की योजनाओ को गुजरात ले जाकर उसका फायदा उठाया गया तो विरोधी दल मतदान के दूसरे दिन 5 बजे के बाद 16 या 18 लाख अधिक मतदान होने से लेकर तरह तरह के आरोप भी लगा रहे है ।ई वी एम तो हर हारे हुये चुनाव का मुद्दा है ही ।जब भाजपा विपक्ष मे थी तब वो सवाल उठाती थी और उसके खिलाफ किताब तक लिख दी गयी थी तो अब अन्य दल उसपर शंका खडी करते है । फिर भी एक सच तो स्वीकार करना ही पडेगा कि मोदी जी और शाह साहब ने अपने प्रदेश की जीत और हार को खुद से जोड़कर खुद को दाव पर लगा दिया और किसी स्थानीय नेता की तरह दिन रात एंटी इनकम्बेंसी के खिलाफ एक कर दिया और उनकी मेहनत का परिनाम आया ।यद्द्पि दूसरा खेमा आप को मिले 13% वोट और वोवैसी की भूमिका को रेखान्कित करता है कि एक तरफ कांग्रेस और इनके वोट जोड़ दिया जाये तो दृश्य कुछ और होता और फिर बट्वारा नही होने पर कांग्रस बाजी पलट देती तथा जनता मे ये भाव जगता की कांग्रेस सरकार बनायेगी फ्लोटिंग वोट उधर जाता पर सच ये भी तो है की कांग्रेस आधे मन से लडती दिखी तथा मुख्य आकर्षण राहुल और प्रियंका ने दूरी बनाये रखा तो मे कांग्रेस अगंभीर दिखी । पर मीमांसा इस बात की भी करनी होगी की चाहे जो भी था लेकिन भाजपा की सिर्फ सीट नही बढी पर पहले से 4 % वोट भी बढा और इसका पूरा श्रेय मोदी जी की मेहनत और रणनीति को तो देना ही होगा क्योकी एक खबर ये भी छाई रही की आरएसएस ने इस चुनाव से दूरी बनाये रखा ।
हिमाचल का यूँ तो अमेरिका की तरह इतिहास रहा है सरकार बदलने का पर इस बार मोदी जी का ये नारा की बदलाव के भाव को अब बदले अगर केन्द्र का लाभ लेना हो, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा का वहा पूरे समय कैम्प करना और मंत्रियो के फौज के साथ आक्रमक अभियान चलाना इस प्रदेश के पहाड की सर्दी के भाजपा को गर्मी का एहसास करवा गया ।दूसरी तरफ कांग्रेस ने यहां प्रियंका गांधी को उतार दिया जिन्होने उत्तर प्रदेश के अनुभव से सबक लेकर यहाँ के लिये रणनीति बनाया और स्थानीय मुद्दो के साथ पेंशन को मुद्दा बना कर एक बड़े वर्ग को अपने साथ जोडा । उत्तर प्रदेश मे बुरी हार का सामना करने वाली प्रियंका ने यहा अपने कौशल से चुनावी मशीन बन गयी भाजपा के कल पुर्जे ढीले कर दिये और गुजरात की शर्मनाक हार का शिकार और दिल्ली मे भी पिछे खडी कांग्रेस को थोडी सांस लेने की जगह दे दिया ।
दिल्ली के म्युनिस्पल चुनाव सिर्फ इसलिये चर्चा मे रहते है कि वो देश की राजधानी मे है और वहा भाजपा काबिज थी । दिल्ली के परिनाम पर बड़ी बहस नही है क्योकी वो मुफ्त मे मिलने वाली चीजो का परिनाम है पर केजरीवाल की टोपी मे एक कलगी तो और लग ही गयी जहा गुजरात के मत प्रतिशत ने आप को राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता की तरफ पहुचा दिया ।
उत्तर के तीन उप चुनाव पर भी राजनीतिक दलो और समीक्षको की निगाह थी । मैनपुरी मे डिम्पल को उतार कर अखिलेश यादव ने कुछ सवाल खडे किये थे पर मुलायम सिंह यादव के निधन के तुरंत बाद होने वाला ये चुनाव शायद उन्हे आश्वस्त कर रहा था की मुलायम सिंह जी के प्रति लोगो का जुडाव और निधन के बाद की संवेदना काम आ जायेगी दूसरी तरफ इस चुनाव मे सबसे बड़ी कमजोरी शिवपाल सिंह यादव से दूरी थी जो उन्होने शिवपाल सिंह के घर जाकर पाट दिया और चुनाव जिताने की बड़ी जिम्मेदारी भी उन्ही के कन्धे पर डाल दिया । पिछ्ली आजमगढ़ और रामपुर न जाने की गलती को सुधार कर खुद पूरे प्रदेश की समाजवादी पार्टी के साथ मैनपुरी मे डेरा ही नही डाल दिया बल्कि गाँव गाँव और घर घर पहुचने तथा सभी जातियो को जोडने और हर सभा मे नेता जी कि याद दिला कर उनके प्रति जिले के जुडाव और सहानुभूति का भी भरपूर उपयोग किया ।शिवपाल सिंह यादव का साथ काम आया और अकेले उनके क्षेत्र से एक लाख से ज्यादा वोट की लीड मिली तथा मनोवैज्ञानिक वातावरण ऐसा बना कि मुख्यमंत्री योगी और उनकी पूरी फौज इस माहौल के आसपास भी नही पहुच पायी ।
दूसरी तरफ खतौली मे भाजपा का मजबूत मतदाता त्यागी समाज भाजपा के खिलाफ चला गया जिससे वहा भाजपा हार गयी ।जबकि रामपुर मे सत्ता और प्रशासन ने वही किया जो लोकसभा उप चुनाव मे किया था और जहा चुनाव आयोग अपील करता है कि वोट बढाये वही तंत्र ने दोनो बार 32/33 % तक ही वोट पडने दिया और हालत ये हो गयी कि वहा का मामला सर्वोच्च न्यायालय मे चला गया ।
लेकिन ऐसी स्थिति चाहे जो भी करे लोकतंत्र और संविधान पर कुठाराघात है और इसके बारे मे सभी दलो को मिल कर और संसद के द्वारा एक कानूनी बाध्यता वाली आचार संहिता तय करनी ही होगी अथवा सर्वोच्च न्यायालय तथा चुनाव आयोग को कड़ा निर्णय लेना होगा ।
जहा नवीन पटनायक ने उड़ीसा मे अपना कब्जा बरकार रखा वही गहलौत और भूपेश बघेल ने भी असर बनाये रखा पर बिहार मे भाजपा की जीत व्यापक गठबंधन के लिये सीख देकर गयी है कि जातिगत चीजो के प्रति अति आग्रह बुरा भी साबित हो सकता है ।
कुल मिलाकर ये चुनाव सभी दलो और नेताओ को अपने अपने सबक देकर गया है ।भाजपा को सबक है की राजनीतिक दल को दल ही रहने दे इन्सानो और कार्यकर्ताओ वाला दल जिसके पास दिल भी हो ,भावनाए भी और सरोकार भी वरना बहुत दिनो तक सिर्फ जुमलो , वादो और मीडिया की पीठ पर चढ़ कर नही दौड़ा जा सकता है तथा हर व्यक्ति का एक निश्चित समय होता है और फिर उसका आकर्षण क्षीण होने लगता है तथा अति व्यक्ति केन्द्रित संगठन अन्त मे खोखला हो जाता है और उनसे लोगो को सबक मिलता है कि भारत की राजनीति 365 दिन की राजनीति है तथा युद्ध मैदान सज़ा हो तो वो छोटा या बडा नही होता बल्कि एक चुनौती होता है और कुछ सिखाता है ,जीत भले न दे पर कुछ बुनियाद बनाता है वो चाहे हैदराबाद का म्युनिस्पल चुनाव ही क्यो न हो और मोदी जी से सीखा जा सकता है की अपना घर अपने साथ नही तो देश क्यो साथ होगा और उसके लिये वहा खुद कार्यकर्ता बन कर दिन रात एक कर देने मे कैसा गुरेज ।
कांग्रेस को तो काफी सबक लेने होगे क्योकी वो आज तक विपक्ष की धार और रणनीति से दूर है और लम्बी सत्ता के खुमार से बाहर ही नही आ पा रही है ।दल को बंद कमरे का दल बना कर उतने मे ही और आपस मे ही जूझते रहना तथा सेल्फ गोल करते रहना इसकी पहचान बन चुकी है ।खासकर राहुल और प्रियंक को उत्तर प्रदेश के लिये वही रवैया अपनाना ही होगा जो मोदी जी ने गुजरात के लिये अपनाया और अपने पुराने तौर तरीको मे व्यापक परिवर्तन करना ही होगा । यदि आप के पास कही लोग नही है तो भाजपा के पास भी काफी जगह लोग नही थी पर उसने बाहर से लोगो को स्वीकार किया और मुख्यमंत्री तक भी बनाने से गुरेज नही किया और तब जहा नही थी वहा भी मजबूत हो गयी ।
उत्तर प्रदेश मे फिलहाल समाजवादी पार्टी ही दूसरी पार्टी है पर पिछले चुनाव मे सीधे आमने सामने का चुनाव हो जाने और उसी आधार पर वोट पडने के बावजूद वो सरकार के खिलाफ की जनता को खुद से नही जोड़ पायी और उसके लिये अखिलेश यादव की अपनी कमजोरिया , आत्ममुग्धता , अति आत्मविश्वास इत्यादि कई कारक जिम्मेदार है और अब जल्दी उसे उतना अच्छा चुनाव मिलता नही दिख रहा है बशर्ते वो खुद मे व्यापक बदलाव न ला दे और व्यापकता न अपना ले ।उसे अपने खास लोगो को भी सिखाना होगा की उनका अहंकार या बुरी भाषा और व्यक्तिगत आक्रमकता पार्टी को नुक्सान करती है ।कुल मिला कर परीश्रम , समर्पण ,विनम्रता ,जन के लिये सहजता और स्वीकार्यता ही लोकतंत्र का हथियार है ।

बुधवार, 12 अक्तूबर 2022

पग यात्रा ,पद यात्रा और पथ यात्रा और राहुल गांधी ।

पग यात्रा ,पद यात्रा और पथ यात्रा और राहुल गांधी ।
पद यात्रा देती है पद प्रतिष्ठा और पहचान ।

भारत क्या पूरी दुनिया मे अनंत काल से पग यात्रा चल रही है ।इंसान रोज अपने पैरो पर चलता है अपने कामो से उद्देश्य कुछ भी हो यूँ ही टहलना ,किसी भी काम से जाना , पूजा पाठ के लिये या नौकरी और व्यापार के लिये जाना पर पग यात्रा व्यक्तियो के स्वयं तक सीमित होती है ।

पद यात्रा का अपना इतिहास है वो अमरीका मे मार्टिन लूथर किंग के नेतृत्व मे कालो के अधिकारो के संघर्ष के लिये हुयी हो जब 1960 के दशक मे वो लड़ रहे थे और 1965 मे सेल्मा अल्बामा से मोन्टगोमरी तक यात्रा निकली तथा अन्ततः अफ्रीकी अमरीकी नागरिको के साथ न्याय हुआ ।  भारत मे अभिनेता सुनील दत्त ने आतंकवाद खिलाफ पद यात्रा किया तो जापान जाकर परमाणु हथियार के खिलाफ । चन्द्रशेखर जी की भारत यात्रा भी एक दौर मे देश के उत्सुकता जा कारण बनी जब उन्होने कन्याकुमारी से दिल्ली तक की यात्रा किया , यद्दपि उसी समय इन्दिरा जी हत्या ने उनकी यात्रा का असर फीका कर दिया पर उनको नेता के रूप मे राष्ट्रीय फलक पर स्थापित कर दिया जिसके कारण वो आगे चल कर प्रधानमंत्री बने ।आन्ध्र प्रदेश मे वाई एस राजशेखर रेड्डी ने पद यात्रा से सत्ता हासिल किया तो उनके पुत्र जगन रेड्डी को भी सत्ता दिलाने का काम किया पद यात्रा ने और चन्द्र बाबू नायडू ने भी ऐसे ही सत्ता हासिल किया ।सीमित मामलो मे इन्दिरा गाँधी के काम आई ऐसे यात्रा 1977 के बाद तो 2017 मे  दिग्विजय सिंह की यात्रा मध्य प्रदेश में कांग्रेस के काम आयी । ऐसी तमाम छोटी बड़ी पद यात्राए होती रही है। अब राहुल गांधी पद यात्रा पर निकले है ।
पद यात्राओ ने हमेशा अपने यात्री को पद प्रतिष्ठा और पहचान दिया है तो राजनीतिक पद यात्राओ ने सत्ता दिया है । यद्दपि सत्ता तो रथ यात्राओ ने भी दिया पर उन्होने साथ ही हिंसा , विध्वस और नफरत भी दिया तथा उनसे मिली सत्ताए लोगो के पैरो के छाले देखने तथा भूखे पेटो की आवाज सुनने मे नाकाम रही क्योकी उनका पाला ही नही पड़ा और वो केवल एकल प्रवचन करते हुये जनता को अपने मनचाहे शोर और स्वार्थ मे डुबोते हुये गुजर गयी ।
जबकि पथ यात्रा विचार यात्रा होती है जो परिवर्तन कारी होती है और गौतम बुद्ध से लेकर महत्मा गाँधी होते हुये विनोबा भावे तक ने अपने अपने स्तर की पथ यात्राए ही किया वैसे अमरीका मे मार्टिन लूथर किंग की यात्रा को भी इसमे शामिल किया जा सकता है ।जहा सिद्धार्थ ने राजपाट छोडा और महत्मा बुद्ध बन गये और एक ऐसा पथ बनाया जिसका अनुगामी विश्व का एक बडा हिस्सा हो गया वही महत्मा गाँधी की चम्पारन से शुरु हुयी यात्रा 1930 के डांडी मार्च तक जाते जाते पूरे भारत को सन्देश दे चुकी थी और जन जन  को गांधी जी से जोड़ चुकी थी और इन यात्राओ ने  अजेय सत्ता को बेदखल ही नही किया बल्कि पूरे विश्व को अहिंसा और सत्याग्रह नामक एक नया और बहुत असरदार हथियार दे दिया । तो विनोबा भावे ने अपनी सीमित यात्रा मे लाखो बेघरो को घर और भूखो को रोटी का साधन दिलवा दिया उन लोगो से जिनके पास ज्यादा था ।
इस वक्त भारत ही नही बल्कि दुनिया की निगाह राहुल गांधी की यात्रा पर है ।राहुल की यात्रा भी इतनी चर्चित नही होती और उत्सुकता पैदा नही करती अगर उन्होने सिरे से सारे पद नही लेने और सत्ता के प्रति निर्मोही होने का मजबूत एलान नही किया होता और भारत के जन सरोकारो से जुडे मुद्दो को धारदार तरीके से उठाते हुये हर तरह की टूटन के खिलाफ और हर तरह के जुडाव के लिये खुद को झोंक नही दिया होता ।अगर एक यात्रा पूरी कर राहुल गाँधी भी काम पूरा किये बिना अपनी पुरानी जिन्दगी मे जाकर रम जाते है तो हो सकता है इसका तत्कालिक लाभ कांग्रेस की मिल जाये और सत्ता भी हासिल हो जाये पर ये बाकी पद यात्राओ की श्रेणी मे से ही एक होकर रह जायेगी और फिर बहुत दिनो के लिये पद यात्राओ का आकर्षण खत्म हो जायेगा ।पर जैसा की दिख रहा है राहुल गाँधी सत्ता के मोह से दूर अपने बौद्धिक चिंतन के साथ एक बडा इरादा और मजबूत समर्पण लेकर चलते हुये दिख रहे है । अगर ये यात्रा अन्तिम नही बल्कि बापू की तरह परिणाम हासिल करने तक निरन्तर चलती रही और देश के कोने कोने तथा जन जन को उद्वेलित कर जोडने मे कामयाब रही तो फिर ये पद यात्रा नही बल्कि पथ यात्रा हो जाएगी । समय इस बात का जवाब देगा की राहुल पद यात्रा तक सीमित रहते है या पथ यात्रा पर चल पडते है क्योकी उनको पद मिल रहा था उन्होने ठुकरा दिया और पहचान की उन्हे जरूरत नही ,हा उस प्रतिष्ठा के लिये वो खुद को तपा सकते है जो पथ यात्रा से ही मिलती है ।
इसका उत्तर केवल आने वाला समय दे पायेगा ।


बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव के आगे पीछे

24 साल के बाद अन्ततः राहुल गाँधी की जिद की वजह से इंडियन नेशनल कांग्रेस का नेहरू गांधी  परिवार के बाहर का अध्यक्ष बनने जा रहा है ।राहुल गांधी ने पिछला चुनाव हार जाने पर अचानक कांग्रेस अध्यक्ष पद से स्तीफा दे दिया था और साथ ही ये भी घोसित कर दिया था कि अब वो अध्यक्ष नही बनेगे और ना ही परिवार का कोई भी अध्यक्ष बनेगा ।तब से अंतरिम व्यवस्था मे सोनिया गांधी कार्यकारी अध्यक्ष के रूप मे काम देख रही थी ।नये अध्यक्ष के चुनाव की चर्चा शुरु हुयी तो फिर तमाम प्रदेश से कांग्रेस से राहुल के अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव पास कर दिया और उन्हे तैयार करने को बहुत दबाव भी बनाया पर राहुल अपनी बात पर अडिग रहे और अन्ततः सोनिया जी और जितेन्द्र प्रसाद के चुनाव के बाद पहली बार विधवत चुनाव हो रहा है । इस बार भी गहलौत से लेकर दिग्विजय सिंह तक का एपिसोड हुआ तो मुकुल वासनिक से लेकर मीरा कुमार तक का नाम चला पर अन्ततः दक्षिण के ही दो नेता राज्यसभा मे विपक्ष के नेता मलिकार्जुन खड़गे और संयुक्त राष्ट्र संघ मे रहे शशि थरूर के बीच चुनाव हो रहा है ।यद्द्पि प्रकट तौर पर चुनाव को स्वतंत्र बताया जा रही है पर कही न कही नेतृत्व का पलड़ा खड़गे जी की तरफ झुका लग रहा है ।
खड़गे जी कर्नाटक के दलित नेता है और बहुत अनुभवी है तो थरूर विद्वान और युवा वर्ग मे लोकप्रिय है ।फैसला जो होना है वो सबको पता है पर ये राजनीतिक पण्डितो को समझ मे नही आ रहा है की पंजाब की भांति राजस्थान की अच्छी भली चलती सरकार और राजनीति को क्यो छेडा गया जबकि गहलौत पहले ही दिन से दिल्ली आने के इच्छुक नही थे और खड़गे जी राज्यसभा मे नेता प्रतिपक्ष थे ही जिसके कारण उनका कैबिनेट मंत्री का स्तर था तो उनको बिना हटाये देश भर मे दलित नेता के रूप मे दौडाया जा सकता था प्रोटोकोल के साथ और पार्टी उनका इच्छित राजनीतिक उपयोग कर सकती थी ।
जबकि राजनीति पर पैनी निगाह रखने वालो का मानना है की इस माहौल मे मीरा कुमार सबसे अच्छी कांग्रेस अध्यक्ष साबित हो सकती थी क्योकि वो बाबा साहेब के बाद सबसे बड़े दलित नेता बाबू जगजीवन राम की बेटी है ,महिला है , दलित है , पूर्व आई एफ एस अधिकारी है , लोकप्रिय रही पूर्व लोकसभा अध्यक्ष है जिनकी तारीफ तब भाजपा के नेता भी करते थे और राष्ट्रपति के चुनाव मे विपक्ष की प्रत्याशी रही थी ,उनका पिछड़े वर्ग के कुशवाहा बिरादरी मे विवाह हुआ है । कांग्रेस का अध्यक्ष होते ही उनके प्रधानमंत्री होने की सम्भावना का प्रचार होते हो देश भर के दलितो मे सदेश जाता कि पहली बार दलित प्रधानमंत्री हो सकता है ,बिहार गौरव का सवाल आता तो उत्तर प्रदेश मे मायावती के भाजपा के पक्ष मे खडे दिखने के कारण चौराहे पर खड़ा भ्रमित दलित वर्ग अपनी पुरानी पार्टी की तरफ मुड़ जाता और ऐसा ही असर पूरे देश मे दिखता यदि कांग्रेस उनकी ठीक से ब्रांडिंग करती । देश की आधी आबादी भी प्रधानमंत्री के सपने से जुड़ती ।इसके अलावा जब भी कांग्रेस या मीरा कुमार पर हमला होता वो एक स्त्री पर , एक दलित पर और एक शिक्षित पर हमला बता कर जो आरोप पहले से संघ पर है इन लोगो के विरोध का वो और मजबूती से वर्तमान सत्ता को कटघरे मे खड़ा करता । चूक तो हुयी है और तीन चूक एक साथ हुयी है ।
परंतु फिर भी यदि खडगे जी को जीत के बाद कांग्रेस सर पर उठा लेती है तो राहुल गाँधी की दक्षिण मे बहुत सफल यात्रा के परिणाम स्वरूप और अगर खडगे जी भी अति सक्रीय तथा आक्रमक रहे तो उसका फायदा कांग्रेस पहले दक्षिणी राज्यो मे तो उसी तरह उठा सकती है जैसे 1977 मे पूरे उत्तर भारत मे हार के बावजूद केवल दक्षिण भारत से 154 सीट जीत गयी थी ।
देखना ये होगा की उत्तर भारत मे अगले चुनाव मे कांग्रेस के इस दलित कार्ड से क्या फर्क पडता है ।महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड जहा गठबंधन की नाव पर पार करना चाहेगी कांग्रेस ,वही उत्तर प्रदेश जो सबसे ज्यादा सीट वाला प्रदेश है और कांग्रेस का मुख्य आधार रहा है वहा हताशा और आत्म समर्पण वाली स्थिति रहेगी और कोई नई कूटनीतिक तथा आक्रमक नीति बनेगी । गुजरात के विधान सभा चुनाव वहा के बारे मे संकेत देगे तो बंगाल और उड़ीसा पर अभी कांग्रेस का रवैया देखना होगा,  जबकि मध्य प्रदेश, राजस्थान ,दिल्ली , हरियाणा , पंजाब , हिमाचल , उत्तराखंड और कश्मीर इत्यादि मे कांग्रेस स्वाभाविक तौर पर कुछ बढता हासिल कर सकती है पर इसके लिये इन प्रदेशो की कांग्रेस की राजनीति और राहुल गान्धी के इधर की यात्रा पर निगाह रखनी होगी और तब तक इन्तजार करना होगा ।

गुरुवार, 4 अगस्त 2022

भारत_तमाशों_का_देश_है

#भारत_तमाशों_का_देश_है ? 
काफ़ी पहले मेरा एक लेख छपा था कुछ अख़बारों में । हाँ सचमुच है और तमाशों के प्रति भारत का जुड़ाव तथा आग्रह इतना है कि तमाशे के लिए दवाई या खाने बिना मरता व्यक्ति भी ताली बजा ही देगा और कुछ देर के लिए शामिल हो ही जाएगा उस तमाशे में । चाहे कितने ज़रूरी काम से भी जा रहा हो पर काम छोड़ कर सहभागी हो ही जाएगा तमाशे में ।
पहले भारत की ये कमजोरी भालू और बंदर नचाने वाले , जादू दिखाने वाले , बाइसकोप दिखाने वाले और बसो में या चौराहों पर सुरमा या अन्य चीजें बेचने वाले जानते थे । धर्म के छोटे से बड़े तक ठेकेदार भी थोड़ा बहुत उससे काम चला लेते थे ।
पर कुछ सालो से मीडिया और अख़बार वालो ने पन्ना और अख़बार बेचने के लिए इस तकनीक का प्रयोग किया ,प्राइवेट शिक्षा संस्थानों तथा व्यापारिक संस्थानो ने प्रयोग करना शुरू किया फिर और बड़े पैमाने पर धार्मिक व्यापारियों ने इस तकनीकी और मनोविज्ञान का भरपूर दोहन शुरू किया ।
और अब तो राजनीतिक जमात और उनके आकाओ ने इस तकनीक को मुख्य हथियार ही बना लिया है । कैसी महंगाई ? , कैसी बेरोजगारी ? , कैसी बीमारी ? कैसी चिकित्सा ? कैसी मौत ? कैसी बर्बादी ? कैसी अयोग्यता और असफलता ?कैसी अदूरदर्शिता ? सब कुछ तमाशे के नीचे दफ़न करने की क्या खूब कारीगरी और बाज़ीगरी आ गयी है । सब ख़ास हम भी ख़ुश । उधर लगे रहो , कोई सवाल मत पूछो , अपनी ज़िंदगी और आसपास बिलकुल मत झांको और भविष्य का तो सोचो ही मत बस चली ताली बजाओ मेहरबान क़द्रदान दिखो मेरे झोले से अच्छा दिन निकलने ही वाला है , जो जल्दी में है वो जाकर घर सो जाए क्योंकि वो बीमार है । बाक़ी सब एक बात फ़ोर से थाली बजाओ और अच्छा दिन न दिखे तो मोमबत्ती दिया टॉर्च जलाओ और वो न हो तो मोबाइल की रोशनी में देखो ।  अरे देखो तो वो है अच्छा दिन आप सब के घर में पहुँचा दिया है फिर भी जो नही देख पा रहा है वो ये तो अंधा है , या धर्म द्रोही या देशद्रोही या सेकूलरिस्ट है अन्यथा पड़ोसी देशों का एजेंट है मारो इसे । मारने वाले अपना काम करे बाक़ी सब मुस्कुराओ और फिर से ताली बजाओ । 
अच्छा मेहरबान क़द्रदानों अपने घर जाओ आज का तमाशा यही ख़त्म होता है अब अगले तमाशे का इंतज़ार करो ? 
क्या ? सब महँगा हो गया है ?  बच्चों को नौकरी नही मिल रही है और इलाज बिना लोग मर रहे है और भूखा  किसान आत्महत्या कर रहा है ? 
अरे मूर्ख किसान की आत्महत्या का कारण कुछ मर्दानगी से जुड़ा है हमारे नेता ने इतना बड़ा ज्ञान दिया तूने सूँ नही ? सब नौकरी माँगोगे तो नया स्टार्ट आप कौन करेगा ? पकोड़े बनाओ , रिक्शा चलाओ , नाले से गैस निकालो देश में स्टार्ट अप की संख्या बढ़ाओ । इलाज का क्या रोना रोते हों नीम की पत्ती खाओ और ठीक हो जाओ । जवान सीमा पर खड़ा है और तुम बिना खाए मर रहे हो अरे थोड़ा उसका सोचो और जब तुम कुछ नही कर रहे हो तो जीकर भी क्या फ़ायदा ? लेकिन इस चुनाव तक तो किसी तरह तुमने जीना ही पड़ेगा उसके लिए ५ किलो अनाज और साल के ६ हजार चुनाव तक तो दे दूँगा फिर मुझे वोट देने के बाद तुम जानो तुम्हारा काम जाने । 
अब ज़ोर से नारा लगाओ की हम महान है ऐसा दुनिया में कोई नही और ताली ज़ोर से बजाओ मेहरबान क़द्रदान । ज़्यादा सोचो मत और आपस में ये बातें भी मत किया करो वरना क़ानून अंधा है और वर्दी किसी को नही पहचानती , समझ गए ना । 
तो एक बार बहुत ऊँचा झंडा लहराओ , ज़ोर से ताली बजाओ और समवेत स्वर में गाओ - हर हर —- घर घर — तथा -जी -जी -जी -जी । 
जी जनाब नशा शराब का हो या गुजरात के पोर्ट पर उतरने वाली हजारों करोड़ के माल का उससे भी बड़ा नशा है जानकर अंधे होने का , भक्त होने का और उससे भी बड़ा नशा तमाशे का होता है जनाब ।
यद्दपी सिद्धम लोक विरुद्धम ना करणीयम ना करणीयम ।

शुक्रवार, 15 जुलाई 2022

विपक्ष फिर चूक गया

रास्ट्रपति का चुनाव विपक्ष की मजबूत एकता का कारण बन सकता था , केन्द्र की वर्तमान सत्ता को चुनौती पेश कर सकता था पर इस बार फिर चूक गया सम्पूर्ण विपक्ष । 
यूँ भी लम्बे समय से विपक्ष भाजपा की सत्ता को न तो संसद मे ही कभी परेशानी मे डाल पाया और न सडक पर चुनौती दे सका है । पिछले 5/6 वर्षो मे कोई बडा आन्दोलन नही खड़ा कर सका । असरदार किसान आन्दोलन हुआ तो वो उनका था विपक्ष कही नही था । एन आर सी और सी ए ए के खिलाफ शाहीन बाग से आवाज उठी वो भी विपक्ष के बिना थी और रोजगार के सवाल पर या अभी अग्निपथ के खिलाफ सडक गरमा गयी तो विपक्ष उसमे भी दूर दूर तक नही था ।
कलमकारो और थोडा बहुत चितंन करने वालो  की जिम्मेदारी सिर्फ सत्ता का कान उमेठना ही नही है बल्कि सिद्धांतहीनता और विचलन का शिकार विपक्ष को भी लगातार कोंचना और आइना दिखाना है और वो भी अपनी इस भुमिका को पूरी तरह नही निभा पा रहे है ।
यद्दपि द्रौपदी मुर्मू का राज्यपाल के रूप मे कार्यकाल बहुत निस्पक्ष और गरिमा के अनुरूप नही बताया जाता है बल्कि उनपर संघ के लिये काम करने के आरोप लगते रहे और ये भी सत्य है की भारत का राष्ट्रपति जो केवल भारत के सार्वभौमिकता का प्रतीक ही नही है बल्कि सम्पूर्ण भारत का प्रतीक है ,तीनो सेनाओ का सर्वोच्च कमान्डर है और दुनिया मे जब वो जाता है या किसी राष्ट्राध्यक्ष का स्वागत करता है तो संपूर्णता से भारत का परिचायक होता है ,शिक्षा ,संस्कृति ,ज्ञान सब कुछ और द्रौपदी मुर्मू इन मामलो मे सम्भवतः 5% भी खरी नही उतरती है । ये भी सच है की आरएसएस के लगातार 50 साल शासन कर अपने सपने को साकार करने की बेचैनी मे भाजपा जिम्मेदार और भविश्य के लिये जवाबदेह शासन देने मे विफल केवल चुनावी मशीन बन चुकी है, वो आने वाली जनरेशन के बजाय आने वाले एलेक्शन के लिये ही सब करती दिखती है और उसका हर फैसला केवल अगले चुनाव को प्रभावित करने के उद्देश्य तक सीमीत होता है और ये फैसला भी भारत राश्ट्र के लिये नही बल्कि आगामी चुनाव के लिये ही है पर सवाल ये है कि क्या विपक्ष ने कोई मजबूत विकल्प दिया ? मजबूत चुनौती पेश किया ? ऐसा उम्मीदवार देते कि जो अपने नही वो भी मजबूर हो जाते उसे वोट देने को जैसे इस मामले मे जो भाजपा के नही वो भी काफी लोग मुर्मू का विरोध नही कर पायेंगे सिर्फ आदिवासी होने के कारण । 
बडा सवाल ये है कि क्या विपक्ष के सारे बड़े नेताओ ने भाजपा की रणनीति पर निगाह रखा और क्या गम्भीरता से चुनौती देने के बारे मे सोचा ? 
मनमोहन सिंह,प्रकाश सिंह बादल ,चन्द्र बाबू नायडू ,#मानिक_सरकार , देव गौडा, शरद यादव ,पवन कुमार चामलिग  इत्यादि के अलावा कोई प्रतिष्ठित पूर्व सर्वोच्च न्यायधीश , कोई पूर्व सेनाध्य्क्ष , शिक्षा जगत का प्रतिष्ठित व्यक्ति ,मेघा पाटकर जैसी कोई प्रसिद्ध समाज सेवी के साथ दक्षिण का होना या वंचित होना इत्यादि रणनीति विपक्ष की भी तो हो सकती थी । 
भाजपा के वर्तमान नेत्रत्व को बेचैन करने को आगे बढ़ कर रणनीतिक रूप से उन्ही के खेमे मे लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, वर्तमान उप राष्ट्रपति पर चर्चा चलाई जा सकती थी ।
जब पता था कि आदिवासी कार्ड खेला जा सकता है तो विपक्ष के पास भी तो आदिवासी नेता है जो शिक्षित भी है और अनुभवी भी ।
यदि केवल नाम के लिये ही चुनाव लड़ना था तो किसी सीवर मे घुस कर सफाई करने वाले को वही से उठा कर उम्मीदवार बना देते , किसी खेत से मजदूर को उठा कर खड़ा कर देते ,किसी बिल्कुल अनजान राजनीतिक कार्यकर्ता को ले आते या प्रो पुरुषोत्तम अग्रवाल अथवा प्रो आनंद कुमार जैसे किसी बुद्धिजीवी को उम्मीदवार बना देते ।
विपक्ष को ये समझना होगा की आधे अधूरे मन से और आपसी काट छांट से भाजपा से नही लड़ा जा सकता है और किसी भी चुनाव मे विकल्पहीनता या कमजोर विकल्प और वैकल्पिक कार्यक्रम और मजबूत सैधांतिक धरातल के बिना आरएसएस और उनके राजनीतिक चेहरे भाजपा को नही हराया जा सकता है ।
विपक्ष की सबसे बड़े पार्टी खुद इस वक्त राहुल गांधी को ईडी से बचाने की लड़ाई तक सीमित है । देश की राजनीतिक लड़ाई भी वो केवल राहुल गांधी के नेत्रत्व तक सीमित रखना चाहती है ।
देश, लोकतंत्र सब कुछ दाव पर लगा है पर कोई जिम्मेदार नही है ,कोई जवाबदेह नही है । सब अपना अपना ढोल पीट रहे है । कोई सामुहिक प्रयास नही दिख रहा है ।
क्या भाजपा मे असन्तोष नही है ? क्या वहा सभी नेता और कार्यकर्ता खुश और संतुष्ट है ? ना ,बिल्कुल नही ।पर वो तो नही टूट रही है , उसकी सरकारे नही गिर रही है । फिर विपक्ष की क्यो ? क्योकी विपक्ष मे कोई उसके लिये सतत और सार्थक प्रयास नही करता ।ये कहना की भाजपा ने हमारे लोगो को तोड लिया ये आधा सच है पूरा सच ये है की आप अपनो को अपना बना कर क्यो नही रख पाते,आप अपनो से जुडे क्यो नही रह पाते है । इस पर आत्मचिन्तन तो करना ही चाहिये  । 
अभी से भी यशवंत सिन्हा की जगह किसी अन्य नाम पर विचार करना चाहिये ।

डा सी पी राय 
स्वतंत्र राजनीतिक समीक्षक एवं वरिष्ठ पत्रकार

बुधवार, 22 जून 2022

राष्ट्रपति चुनाव के बहाने

रास्ट्रपति का चुनाव विपक्ष की मजबूत एकता का कारण बन सकता था , केन्द्र की वर्तमान सत्ता को चुनैती पेश कर सकता था पर इस बार फिर चूक गया सम्पूर्ण विपक्ष ।
मैने यशवंत सिन्हा को प्रत्याशी बनाने के खिलाफ भाजपा की आदिवासी का समर्थन किया जिसपर मुझे आलोचना का सामना करना पड़ रहा है पर इस बहाने एक बहस तो खडी हुयी कि क्या हम वैचारिक आधार पर वर्तमान विपक्ष के साथ खडे लोग भी सत्ता का केवल अन्धा विरोध कर रहे है और विपक्ष के सभी ऊल-जलूल फैसलो ,कर्मो का अन्धा समर्थन ही कर रहे है ? यदि उत्तर हा है तो हम सब भी भ्रमित और पथविचलित है । कलमकार होने और थोडा बहुत चितंन करने के कारण हमारी जिम्मेदारी सिर्फ सत्ता का कान उमेठना ही नही है बल्कि सिद्धांतहीनता और विचलन का शिकार विपक्ष को भी लगातार कोचना और आइना दिखाना है ।
 यद्दपि आज द्रौपदी मुर्मू  पास से जानने वाले एक  साथी से पता चला की राज्यपाल के रूप मे इनके क्या कारनामे थे और इन्होने भी किस तरह हर जगह सब कुछ ताक पर रख कर संघ को ही भरा ।ये भी सत्य है की भारत का राष्ट्रपति जो केवल भारत के सार्वभौमिकता का प्रतीक ही नही है बल्कि सम्पूर्ण भारत का प्रतीक है ,तीनो सेनाओ का सर्वोच्च कमान्डर है और दुनिया मे जब वो जाता है या किसी राष्ट्राध्यक्ष का स्वागत करता है तो संपूर्णता से भारत का परिचायक होता है ,शिक्षा ,संस्कृति ,ज्ञान सब कुछ और द्रौपदी मुर्मू इन मामलो मे सम्भवतः 5% भी खरी नही उतरती है । ये भी सच है की आरएसएस के लगातार 50 साल शासन कर अपने सपने को साकार करने की बेचैनी मे भाजपा जिम्मेदार और भविश्य के लिये जवाबदेह शासन देने मे विफल केवल चुनावी मशीन बन चुकी है और उसका हर फैसला केवल अगले चुनाव को प्रभावित करने के उद्देश्य तक सीमीत होता है और ये फैसला भी भारत राश्ट्र के लिये नही बल्कि आगामी चुनाव के लिये ही है पर सवाल ये है कि क्या विपक्ष ने कोई मजबूत विकल्प दिया ? मजबूत चुनौती पेश किया ? कि जो अपने नही वो भी मजबूर हो जाते उसे वोट देने को जैसे इस मामले मे जो भाजपा के नही वो भी काफी लोग मुर्मू का विरोध नही कर पायेंगे आदिवासी के कारण । 
बडा सवाल ये है कि क्या विपक्ष के सारे बड़े नेताओ ने भाजपा की रणनीति पर निगाह रखा और क्या गम्भीरता से चुनौती देने के बारे मे सोचा ? 
मनमोहन सिंह,प्रकाश सिंह बादल ,चन्द्र बाबू नायडू ,#मानिक_सरकार , देव गौडा, शरद यादव ,पवन कुमार चामलिग  इत्यादि के अलावा कोई प्रतिष्ठित पूर्व सर्वोच्च न्यायधीश , कोई पूर्व सेनाध्य्क्ष , शिक्षा जगत का प्रतिष्ठित व्यक्ति ,मेघा पाटकर जैसी कोई प्रसिद्ध समाज सेवी के साथ दक्षिण का होना या वंचित होना इत्यादि रणनीति विपक्ष की भी तो हो सकती थी । 
भाजपा के वर्तमान नेत्रत्व को बेचैन करने को आगे बढ़ कर उन्ही के खेमे मे लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, वर्तमान उप राष्ट्रपति पर चर्चा चलाई जा सकती थी ।
जब पता था कि आदिवासी कार्ड खेला जा सकता है तो विपक्ष के पास भी तो आदिवासी नेता है जो शिक्षित भी है और अनुभवी भी ।
यदि केवल नाम के लिये ही चुनाव लड़ना था तो किसी सीवर मे घुस कर सफाई करने वाले को वही से उठा कर उम्मीदवार बना देते , किसी खेत से मजदूर को उठा कर खड़ा कर देते ,किसी बिल्कुल अनजान राजनीतिक कार्यकर्ता को ले आते या प्रो पुरुषोत्तम अग्रवाल अथवा प्रो आनंद कुमार जैसे किसी बुद्धिजीवी को उम्मीदवार बना देते ।
विपक्ष को ये समझना होगा की आधे अधूरे मन से और आपसी काट छांट से भाजपा से नही लड़ा जा सकता है और किसी भी चुनाव मे विकल्पहीनता या कमजोर विकल्प और वैकल्पिक कार्यक्रम और मजबूत सैधांतिक धरातल के बिना आरएसएस और उनके राजनीतिक चेहरे भाजपा को नही हराया जा सकता है ।
विपक्ष की सबसे बड़े पार्टी खुद इस वक्त राहुल गांधी को ईडी से बचाने की लड़ाई तक सीमित है । देश की राजनीतिक लड़ाई भी वो केवल राहुल गांधी के नेत्रत्व तक सीमित रखना चाहती है ।
देश, लोकतंत्र सब कुछ दाव पर लगा है पर कोई जिम्मेदार नही है ,कोई जवाबदेह नही है । सब अपना अपना ढोल पीट रहे है । कोई सामुहिक प्रयास नही दिख रहा है ।
क्या भाजपा मे असन्तोष नही है ? क्या वहा सभी नेता और कार्यकर्ता खुश और संतुष्ट है ? ना ,बिल्कुल नही ।पर वो तो नही टूट रही है , उसकी सरकारे नही गिर रही है । फिर विपक्ष की क्यो ? ये कहना की भाजपा ने हमारे लोगो को तोड लिया ये अधूरा सच है पूरा सच ये है की हम अपनो को अपना बना कर क्यो नही रख पाते,हम अपनो से जुडे क्यो नही रह पाते है । इस पर आत्मचिन्तन तो करना ही चाहिये  । 
अभी से भी यशवंत सिन्हा की जगह किसी अन्य नाम पर विचार करना चाहिये ।

रविवार, 1 मई 2022

बिजली कब आएगी

 एक छोटी सी हास्य नाटिका कुछ यूँ हो सकती है न ---


दृश्य - एक डाक्टर का क्लिनिल है
बिजली कब आएगी

एक परिवार डाक्टर उसमे प्रवेश करता है और सभी बस एक ही बात रट रहे है --
बिजली कब आएगी ? बिजली कब आएगी ?
डाक्टर पूछता है की क्या बींमारी है
पर कोई जवाब नहीं मिलता है
तब डाक्टर कहता है - कंपाउंडर जरा इनकी नब्ज देखो
कंपाउंडर ने एक की नब्ज पकड़ा ही था की वो भी बोलने लगा की
बिजली कब आएगी बिजली कब आयेगी
तब डाक्टर उठता है और वो कंपाउडर की नब्ज पकड़ता है की इसे क्या हो गया
और फिर वो भी बोलने लगता है की बिजली कब आएगी बिजली कब आएगी
और यही बोलते बोलते सब दृश्य से बाहर चले जाते है
{ यह किसी भी चीज पर बन सकता है ,मसलन १५ लाख कब आयेंगे अच्छे दिन कब आएँगी ,सामान सस्ता कब मिलेगा इत्यादि }

मंगलवार, 1 मार्च 2022

गुट निरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता

गुट निरपेक्ष आंदोलन की सार्थकता ।

आज जब उक्रेन मे मौत तांडव कर रही है और सिर्फ उक्रेन की जनता ही नही बल्कि सम्पूर्ण विश्व उसके साथ अमरीका सहित नाटो के देश के न खडे होने से हतप्रभ है कि इन बड़ो के चक्कर मे क्या मिला सिवाय बर्बादी के । आज तक हजारो सौनिक तथा आम नागरिक जिसमे मासूम बच्चे भी है ,उसमे एक भारत का छात्र भी हौ शहीद हो चुके है तब फिर से ये सवाल उठ खड़ा हुआ है की क्या विकासशील या कम विक्सित और छोटे देशो को बड़े देशो की आपसी लड़ाई और प्रतिस्पर्धा का हिस्सा बनने के बजाय फिर से गुटनिरपेक्ष आंदोलन जैसा कुछ बना लेना चाहिये इसकी बुनियाद पंचशील सिद्धांत और पुराने इस आन्दोलन के मकसद के साथ युद्ध विहीन ,शोषण विहीन और मानवता पर केन्द्रित सिद्धांत हो और आपसी सभी जरूरतो के लिये परस्पर पूर्ण सहयोग का उद्देश्य हो । आपसी गठबंधन से बाहर तभी जाये जब वो चीज चाहिये हो जो इनके पास नही हो और इस संगठन के आदर्श महात्मा गाँधी को जो दुनिया मे स्वीकार्य है ।
आज के हालात मे जब प्रधानमंत्री मोदी अलोचना के केन्द्र मे है तब उनको आगे बढ़ कर इस उद्देश्य को आगे बढ़ाना चाहिये वरना पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आगे रख कर और सभी दलो के अनुभवीं नेताओं को जोड़ कर राजनीतिक और दलीय रूप से कांग्रेस को इस मुद्दे पर तत्काल लीड लेनी चाहिये और पूर्व गुट निरपेक्ष आंदोलन के सभी देशो से सम्पर्क कर एक बैठक बुला कर युद्द की निन्दा का प्रस्ताव करना चाहिये और मानव की सहयता के लिये डाक्टरो की टीम दवाईया , खाद्द्य सामग्री इत्यादि से मदद करने की शुरुवात करना चाहिये ।
हो सकता है की ये आन्दोलन तत्काल सत्ताधीशो को न समझ मे आये पर दुनिया की जनता इससे जरूर जुड़ेगी । जो रूस आक्रमण कर रहा है उसकी जनता वहा तानाशाही व्यवस्था के बावजूद सडक पर युद्ध का विरोध कर रही है और उक्रेन के राष्ट्रपति के आगे खडे रहने पर बड़ी संख्या जहा लोग पलायन कर रहे है वही  हजारो मौतो के बाद भी वहा के आम नागरिक जिसमे बच्चे बच्चियाँ और हर उम्र की महिलाओ तक ने हथियार उठा लिया है ।एक बात याद रखना चाहिये की कोई सत्ता हार सकती है ,कोई देश हार सकता है पर अगर जनता खडी हो गयी है तो जनता कभी नही हारती और ऐसा इतिहास मे दर्ज है ।अगर इस आन्दोलन के पक्ष मे दुनिया के लोग खडे होते है तो यद्द्पि याद तो जवाहर लाल नेहरू आएँगे पर मान भारत का बढ़ेगा और स्थापित होगा की भारत ने हमेशा सही रास्ता चुना ।साथ हो हम नारो ,हथियारो से तो बिश्वगुरु नही बन सके पर मानवता के अलमबरदार बन कर वो दर्जा हासिल कर सकते है ।
अब देखना ये है की इसकी अगुवाई प्रधानमंत्री मोदी करते है जिसमे शक इसलिये है की वैचारिक रूप से उनका मूल संगठन शायद इसे स्वीकार नही करेगा या फिर जिसका मूल स्वभाव ही यही है वो कांग्रस करती है ।
कोई बडा और ताकतवर देश सिर्फ कमजोर देशो पर हमला करता है द्वितीय विश्वयुद्ध को छोड दे तो यही हुआ है अमरीका प्रतिबंध प्रतिबंध खेलता रहता है जो उसका प्रिय खेल है 
अमरीका के झांसे मे आने वाले देशो का सदा नुक्सान ही हुआ है ।
चीन बडा व्यापारी देश बन चुका है और वो उतना ही सुरक्षा का इन्तजाम कर रहा है जो उसके लिये और दुनिया की बड़ी ताकतो से निपटने के लिये जरूरी है  और रूस तथा चीन दोनो 100 साल आगे की कल्पना कर अपनी तैयारी मे लगे है जबकि कुछ देश मंदिर मस्जिद बुर्का हिजाब जैसी चीजो को ही भविश्य मान बैठे है ।
छोटे देश लाख कोशिश कर भी बड़ी ताकतो के हमलो को झेल नही सकते है हा बर्बाद होकर भी लड़ सकते है ।
दुनिया तेजी से बदली है और इसके युद्ध के नियम तथा हथियार भी बदले है ।
जीतने के लिये जरूरी है मजबूत होना और मजबूत होने की पहली शर्त है देश का अन्दरूनी विवादो से ऊपर होना , देश मे एकता होना , आपसी सद्भाव तथा विश्वास होना ,सरकार पर विश्वास होना तथा इसकी शर्त है सरकार का पारदर्शी होना ,समझदार और दूरदर्शी होना और सम्पूर्ण जनता मे ये विश्वास पैदा करना की वो सब कुछ सबके लिये कर रहे है तथा सबके भविश्य और सुरक्षा के लिये कर रहे है।
अन्दर से टूटा हुआ देश आर्थिक प्रगति नही कर सकता तथा यदि अंदर झगडे है और कभी भी हालात बिगड़ने का अवसर है तो कही का भी इन्वेस्टर नही आयेगा और अन्दरूनी व्यापार भी प्रभावित होगा जबकि देश की मजबूती के लिये जरूरी है की देश आर्थिक रूप से बहुत मजबूत हो ,शैक्षणिक स्तर उच्च हो और स्वास्थ्य की गुणवत्ता भी उच्च कोटि की हो , बेरोजगारी ना के बराबर हो ,कृषि से लेकर व्यापार तक सब सम्पन्न हो और वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता हो सभी क्षेत्रो मे स्वाथ्य ,भविश्य की आवश्यकताओ तथा सैन्य जरूरतो के क्षेत्र मे तथा भविश्य मे आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लेकर पृकृति संरक्षण और आवश्यक चीजो के असम्भव निर्माण तक ।
इन सब चीजो के लिये वातावरण तभी बन सकता है जब नेतृत्व करने वाले सभी लोग दूरदर्शी हो और अपने ,अपनी पार्टी तथा सत्ता नही बल्कि आने वाली पीढियो के लिये सपने देखे ,सिधांत गढ़े और सन्कल्पित हो ।
वरना स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा और भविश्य की पीढियो के लिये सपनो की पतिस्पर्धा के बजाय तू तू मैं मैं तो किसी भी देश को पीछे ही ले जाता है ।
इतिहास के सपनो मे जीना या इतिहास की नफरत को ढोना और भविश्य की पीढियो को भी देकर जाने का इरादा सिर्फ और सिर्फ बर्बादी ही लाने वाला होता है ।इराक हो ,सीरिया हो ,उक्रेन या अन्य ऐसे कोई भी देश वो कितना भी फौजी साजो सामान इकट्ठा कर ले पर अगर वो किसी बड़े को खटक गये तो उसकी बर्बादी तय है और इस गलतफहमी मे रहना की उसको हथियार बेचने और अपने हितो के लिये इस्तेमाल करने वाला कोई दूसरा देश उसके लिये लड़ने आयेगा गलतफहमी ही साबित होता रहेगा क्यो कोई भी देश खुद को दूसरे के लिये बर्बाद नही करता क्योकी युद्ध बहुत महंगा शौक है । इसलिये छोटे , आर्थिक ,जनसांख्यिकी से कमजोर और विकासशील देशो के लिये सबसे अच्छा है की वो किसी बड़े की कठपुतली न बने और अपने हित अहित के साथ सबसे सम्बंध रखे और किसी बड़े के राजनीति का मैदान न बने ,चुनौती ही दे ।पहले और दूसरे विश्व युद्ध की विभिषीका कोई भी अभी भूला नही है ।
किसी भी देश का अपना निर्माण खास माहौल और ऐतिहासिक परिस्थितयो और कारको से होता है और उन्ही हालातो मे सुखी होता है तथा तरक्की करता है ।कुछ समाज हमेशा से तानाशाही व्यवस्था मे रहे और उसके आदी है तो वहा उसी फ्रेम मे कोई भी व्यवस्था हो जनता को फर्क नही पडेगा जब तक की लोकतंत्र की हवा का एहसास उसके अन्दर घर न कर जाये और वो तब होता है जब पूरी जनता उसका खुद अनुभव करती है या उसे सहज जानकारी होती है । भारत उन्मुक्त वातावरण का समाज रहा है यहा का समाज थोडे कम मे भी जी लेता है और संतुष्ट रहता है पर उसका उन्मुक्त वातावरण और उन्मुक्त हंसी उससे नही छिननी चाहिये इसलिये तानाशाही जैसा कोई कदम या सोच भारत के लिये आत्मघाती होगी । भारत को धर्म और जातीय झगड़ो वाले समाजो और देशो से सबक लेने की जरूरत है और जितनी जल्दी समझ लेगा उतना ही देश मजबूत हो जायेगा तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तरक्की भारत को दुनिया के सामने शान्ती तथा सद्भाव की चुनौती देने लायक हो जायेगी तथा ये दुनिया मे शान्ती का सन्देश देने लायक हो जायेगा महात्मा गांधी को सामने रख कर ।
ये वक्त फिर से विचार करने का है कि जवाहर लाल नेहरू द्वारा शुरु किया गया गुट निरपेक्ष आंदोलन कितना सार्थक था और वो खुद मे तीसरी धुरी था जी बाकी दो को बैलेंस करता था ।
पहले अमरीकी स्वार्थो ने काफी देशो को बर्बाद किया है और अब उक्रेन पूरी दुनिया के छोटे और कम बिकसित या विकासशील देशो के लिये नये सिरे से एक्जुट होकर नई रणनीति बनाने का वक्त है और भारत इन सबकी अगुवाई कर सकता है पर उसके लिये पहले भारत मे पूर्ण एकता और विश्वास जरूरी है ।
उक्रेन तो एक हफ्ते मे निपट जायेगा परंतु ये अन्तिम साबित नही होगा बल्कि ये नये तरह के युद्ध का प्रारंभ है ।
चीन की चुनौती भारत के लिये कम नही है और वो चुनौती खुद की वैचारिक और रणनीतिक गल्तियो से पैदा हुयी है ।इन गल्तियो को तुरंत स्वीकार कर उसका परिमार्जन और अनुभव का उपयोग करते हुये उससे बाहर निकलना वक्त की मांग है चाहे वह राजनीतिक विरोधी के  पास ही क्यो न हो ।
युद्ध से बचना है तो युद्ध को महंगा करना होगा और बंटा हुआ देश तथा अज्ञानी नेत्रत्व नही कर सकता ।

उक्रेन और गुट निरपेक्ष आंदोलन

उक्रेन का सबक और गुट निरपेक्ष आंदोलन की सार्थकता ।

आज जब उक्रेन मे मौत तांडव कर रही है और सिर्फ उक्रेन की जनता ही नही बल्कि सम्पूर्ण विश्व उसके साथ अमरीका सहित नाटो के देश के न खडे होने से हतप्रभ है कि इन बड़ो के चक्कर मे क्या मिला सिवाय बर्बादी के । आज तक हजारो सौनिक तथा आम नागरिक जिसमे मासूम बच्चे भी है ,उसमे एक भारत का छात्र भी हौ शहीद हो चुके है तब फिर से ये सवाल उठ खड़ा हुआ है की क्या विकासशील या कम विक्सित और छोटे देशो को बड़े देशो की आपसी लड़ाई और प्रतिस्पर्धा का हिस्सा बनने के बजाय फिर से गुटनिरपेक्ष आंदोलन जैसा कुछ बना लेना चाहिये इसकी बुनियाद पंचशील सिद्धांत और पुराने इस आन्दोलन के मकसद के साथ युद्ध विहीन ,शोषण विहीन और मानवता पर केन्द्रित सिद्धांत हो और आपसी सभी जरूरतो के लिये परस्पर पूर्ण सहयोग का उद्देश्य हो । आपसी गठबंधन से बाहर तभी जाये जब वो चीज चाहिये हो जो इनके पास नही हो और इस संगठन के आदर्श महात्मा गाँधी को जो दुनिया मे स्वीकार्य है ।
आज के हालात मे जब प्रधानमंत्री मोदी अलोचना के केन्द्र मे है तब उनको आगे बढ़ कर इस उद्देश्य को आगे बढ़ाना चाहिये वरना पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आगे रख कर और सभी दलो के अनुभवीं नेताओं को जोड़ कर राजनीतिक और दलीय रूप से कांग्रेस को इस मुद्दे पर तत्काल लीड लेनी चाहिये और पूर्व गुट निरपेक्ष आंदोलन के सभी देशो से सम्पर्क कर एक बैठक बुला कर युद्द की निन्दा का प्रस्ताव करना चाहिये और मानव की सहयता के लिये डाक्टरो की टीम दवाईया , खाद्द्य सामग्री इत्यादि से मदद करने की शुरुवात करना चाहिये ।
हो सकता है की ये आन्दोलन तत्काल सत्ताधीशो को न समझ मे आये पर दुनिया की जनता इससे जरूर जुड़ेगी । जो रूस आक्रमण कर रहा है उसकी जनता वहा तानाशाही व्यवस्था के बावजूद सडक पर युद्ध का विरोध कर रही है और उक्रेन के राष्ट्रपति के आगे खडे रहने पर बड़ी संख्या जहा लोग पलायन कर रहे है वही  हजारो मौतो के बाद भी वहा के आम नागरिक जिसमे बच्चे बच्चियाँ और हर उम्र की महिलाओ तक ने हथियार उठा लिया है ।एक बात याद रखना चाहिये की कोई सत्ता हार सकती है ,कोई देश हार सकता है पर अगर जनता खडी हो गयी है तो जनता कभी नही हारती और ऐसा इतिहास मे दर्ज है ।अगर इस आन्दोलन के पक्ष मे दुनिया के लोग खडे होते है तो यद्द्पि याद तो जवाहर लाल नेहरू आएँगे पर मान भारत का बढ़ेगा और स्थापित होगा की भारत ने हमेशा सही रास्ता चुना ।साथ हो हम नारो ,हथियारो से तो बिश्वगुरु नही बन सके पर मानवता के अलमबरदार बन कर वो दर्जा हासिल कर सकते है ।
अब देखना ये है की इसकी अगुवाई प्रधानमंत्री मोदी करते है जिसमे शक इसलिये है की वैचारिक रूप से उनका मूल संगठन शायद इसे स्वीकार नही करेगा या फिर जिसका मूल स्वभाव ही यही है वो कांग्रस करती है ।
कोई बडा और ताकतवर देश सिर्फ कमजोर देशो पर हमला करता है द्वितीय विश्वयुद्ध को छोड दे तो यही हुआ है अमरीका प्रतिबंध प्रतिबंध खेलता रहता है जो उसका प्रिय खेल है 
अमरीका के झांसे मे आने वाले देशो का सदा नुक्सान ही हुआ है ।
चीन बडा व्यापारी देश बन चुका है और वो उतना ही सुरक्षा का इन्तजाम कर रहा है जो उसके लिये और दुनिया की बड़ी ताकतो से निपटने के लिये जरूरी है  और रुस तथा चीन दोनो 100 साल आगे की कल्पना कर अपनी तैयारी मे लगे है जबकि कुछ देश मंदिर मस्जिद बुर्का हिजाब जैसी चीजो को ही भविश्य मान बैठे है ।
छोटे देश लाख कोशिश कर भी बड़ी ताकतो के हमलो को झेल नही सकते है हा बर्बाद होकर भी लड़ सकते है ।
दुनिया तेजी से बदली है और इसके युद्ध के नियम तथा हथियार भी बदले है ।
जीतने के लिये जरूरी है मजबूत होना और मजबूत होने की पहली शर्त है देश का अन्दरूनी विवादो से ऊपर होना , देश मे एकता होना , आपसी सद्भाव तथा विश्वास होना ,सरकार पर विश्वास होना तथा इसकी शर्त है सरकार का पारदर्शी होना ,समझदार और दूरदर्शी होना और सम्पूर्ण जनता मे ये विश्वास पैदा करना की वो सब कुछ सबके लिये कर रहे है तथा सबके भविश्य और सुरक्षा के लिये कर रहे है।
अन्दर से टूटा हुआ देश आर्थिक प्रगति नही कर सकता तथा यदि अंदर झगडे है और कभी भी हालात बिगड़ने का अवसर है तो अर्थवयवस्था बर्बाद होगी ही जबकि देश की मजबूती के लिये जरूरी है की देश आर्थिक रूप से बहुत मजबूत हो ,शैक्षणिक स्तर उच्च हो और स्वास्थ्य की गुणवत्ता भी उच्च कोटि की हो , बेरोजगारी ना के बराबर हो ,कृषि से लेकर व्यापार तक सब सम्पन्न हो और वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता हो सभी क्षेत्रो मे स्वाथ्य ,भविश्य की आवश्यकताओ तथा सैन्य जरूरतो के क्षेत्र मे तथा भविश्य मे आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लेकर पृकृति संरक्षण और आवश्यक चीजो के असम्भव निर्माण तक ।
इन सब चीजो के लिये वातावरण तभी बन सकता है जब नेतृत्व करने वाले सभी लोग दूरदर्शी हो और अपने ,अपनी पार्टी तथा सत्ता नही बल्कि आने वाली पीढियो के लिये सपने देखे ,सिधांत गढ़े और सन्कल्पित हो ।
वरना स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा और भविश्य की पीढियो के लिये सपनो की पतिस्पर्धा के बजाय तू तू मैं मैं तो किसी भी देश को पीछे ही ले जाता है ।
इतिहास के सपनो मे जीना या इतिहास की नफरत को ढोना और भविश्य की पीढियो को भी देकर जाने का इरादा सिर्फ और सिर्फ बर्बादी ही लाने वाला होता है ।इराक हो ,सीरिया हो ,उक्रेन या अन्य ऐसे कोई भी देश वो कितना भी फौजी साजो सामान इकट्ठा कर ले पर अगर वो किसी बड़े को खटक गये तो उसकी बर्बादी तय है और इस गलतफहमी मे रहना की उसको हथियार बेचने और अपने हितो के लिये इस्तेमाल करने वाला कोई दूसरा देश उसके लिये लड़ने आयेगा गलतफहमी ही साबित होता रहेगा क्यो कोई भी देश खुद को दूसरे के लिये बर्बाद नही करता क्योकी युद्ध बहुत महंगा शौक है । इसलिये छोटे , आर्थिक ,जनसांख्यिकी से कमजोर और विकासशील देशो के लिये सबसे अच्छा है की वो किसी बड़े की कठपुतली न बने और अपने हित अहित के साथ सबसे सम्बंध रखे और किसी बड़े के राजनीति का मैदान न बने ,चुनौती ही दे ।पहले और दूसरे विश्व युद्ध की विभिषीका कोई भी अभी भूला नही है ।
किसी भी देश का अपना निर्माण खास माहौल और ऐतिहासिक परिस्थितयो और कारको से होता है और उन्ही हालातो मे सुखी होता है तथा तरक्की करता है ।कुछ समाज हमेशा से तानाशाही व्यवस्था मे रहे और उसके आदी है तो वहा उसी फ्रेम मे कोई भी व्यवस्था हो जनता को फर्क नही पडेगा जब तक की लोकतंत्र की हवा का एहसास उसके अन्दर घर न कर जाये और वो तब होता है जब पूरी जनता उसका खुद अनुभव करती है या उसे सहज जानकारी होती है । भारत उन्मुक्त वातावरण का समाज रहा है यहा का समाज थोडे कम मे भी जी लेता है और संतुष्ट रहता है पर उसका उन्मुक्त वातावरण और उन्मुक्त हंसी उससे नही छिननी चाहिये इसलिये तानाशाही जैसा कोई कदम या सोच भारत के लिये आत्मघाती होगी । भारत को धर्म और जातीय झगड़ो वाले समाजो और देशो से सबक लेने की जरूरत है और जितनी जल्दी समझ लेगा उतना ही देश मजबूत हो जायेगा तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तरक्की भारत को दुनिया के सामने शान्ती तथा सद्भाव की चुनौती देने लायक हो जायेगी तथा ये दुनिया मे शान्ती का सन्देश देने लायक हो जायेगा महात्मा गांधी को सामने रख कर ।
ये वक्त फिर से विचार करने का है कि जवाहर लाल नेहरू द्वारा शुरु किया गया गुट निरपेक्ष आंदोलन कितना सार्थक था और वो खुद मे तीसरी धुरी था जी बाकी दो को बैलेंस करता था ।
पहले अमरीकी स्वार्थो ने काफी देशो को बर्बाद किया है और अब उक्रेन पूरी दुनिया के छोटे और कम बिकसित या विकासशील देशो के लिये नये सिरे से एक्जुट होकर नई रणनीति बनाने का वक्त है और भारत इन सबकी अगुवाई कर सकता है पर उसके लिये पहले भारत मे पूर्ण एकता और विश्वास जरूरी है ।
उक्रेन तो एक हफ्ते मे निपट जायेगा परंतु ये अन्तिम साबित नही होगा बल्कि ये नये तरह के युद्ध का प्रारंभ है ।
चीन की चुनौती भारत के लिये कम नही है और वो चुनौती खुद की वैचारिक और रणनीतिक गल्तियो से पैदा हुयी है ।इन गल्तियो को तुरंत स्वीकार कर उसका परिमार्जन और अनुभव का उपयोग करते हुये उससे बाहर निकलना वक्त की मांग है चाहे वह राजनीतिक विरोधी के  पास ही क्यो न हो ।
युद्ध से बचना है तो युद्ध को महंगा करना होगा और बंटा हुआ देश तथा अज्ञानी नेत्रत्व नही कर सकता ।
डा सी पी राय
स्वतंत्र राजनीतिक चिंतक एवं वरिष्ठ पत्रकार

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2022

उक्रेन का सबक

उक्रेन का सबक और गुट निरपेक्ष आंदोलन की सार्थकता ।

कोई बडा और ताकतवर देश सिर्फ कमजोर देशो पर हमला करता है 
द्वितीय विश्वयुद्ध को छोड दे तो यही हुआ है 
अमरीका प्रतिबंध प्रतिबंध खेलता रहता है जो उसका प्रिय खेल है 
अमरीका के झांसे मे आने वाले देशो का सदा नुक्सान ही हुआ है ।
रुस का जरूर मित्र देश के साथ खड़ा रहने का इतिहास है ।
चीन बडा व्यापारी देश बन चुका है और वो उतना ही सुरक्षा का इन्तजाम कर रहा है जो उसके लिये और दुनिया की बड़ी ताकतो से निपटने के लिये जरूरी है  और वो तथा चीन दोनो 100 साल आगे की कल्पना कर अपनी तैयारी मे लगे है जबकि कुछ देश मंदिर मस्जिद बुर्का हिजाब जैसी चीजो को ही भविश्य मान बैठे है ।
छोटे देश लाख कोशिश कर भी बड़ी ताकतो के हमलो को झेल नही सकते है हा बर्बाद होकर भी लड़ सकते है ।
दुनिया तेजी से बदली है और इसके युद्ध के नियम तथा हथियार भी बदले है ।
जीतने के लिये जरूरी है मजबूत होना और मजबूत होने की पहली शर्त है देश का अन्दरूनी विवादो से ऊपर होना , देश मे एकता होना , आपसी सद्भाव तथा विश्वास होना ,सरकार पर विश्वास होना तथा इसकी शर्त है सरकार का पारदर्शी होना ,समझदार और दूरदर्शी होना और सम्पूर्ण जनता मे ये विश्वास पैदा करना की वो सब कुछ सबके लिये कर रहे है तथा सबके भविश्य और सुरक्षा के लिये कर रहे है।
अन्दर से टूटा हुआ देश आर्थिक प्रगति नही कर सकता तथा यदि अंदर झगडे है और कभी भी हालात बिगड़ने का अवसर है तो कही का भी इन्वेस्टर नही आयेगा और अन्दरूनी व्यापार भी प्रभावित होगा जबकि देश की मजबूती के लिये जरूरी है की देश आर्थिक रूप से बहुत मजबूत हो ,शैक्षणिक स्तर उच्च हो और स्वास्थ्य की गुणवत्ता भी उच्च कोटि की हो , बेरोजगारी ना के बराबर हो ,कृषि से लेकर व्यापार तक सब सम्पन्न हो और वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता हो सभी क्षेत्रो मे स्वाथ्य ,भविश्य की आवश्यकताओ तथा सैन्य जरूरतो के क्षेत्र मे तथा भविश्य मे आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लेकर पृकृति संरक्षण और आवश्यक चीजो के असम्भव निर्माण तक ।
इन सब चीजो के लिये वातावरण तभी बन सकता है जब नेतृत्व करने वाले सभी लोग दूरदर्शी हो और अपने ,अपनी पार्टी तथा सत्ता नही बल्कि आने वाली पीढियो के लिये सपने देखे ,सिधांत गढ़े और सन्कल्पित हो ।
वरना स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा और भविश्य की पीढियो के लिये सपनो की पतिस्पर्धा के बजाय तू तू मैं मैं तो किसी भी देश को पीछे ही ले जाता है ।
इतिहास के सपनो मे जीना या इतिहास की नफरत को ढोना और भविश्य की पीढियो को भी देकर जाने का इरादा सिर्फ और सिर्फ बर्बादी ही लाने वाला होता है ।इराक हो ,सीरिया हो ,उक्रेन या अन्य ऐसे कोई भी देश वो कितना भी फौजी साजो सामान इकट्ठा कर ले पर अगर वो किसी बड़े को खटक गये तो उसकी बर्बादी तय है और इस गलतफहमी मे रहना की उसको हथियार बेचने और अपने हितो के लिये इस्तेमाल करने वाला कोई दूसरा देश उसके लिये लड़ने आयेगा गलतफहमी ही साबित होता रहेगा क्यो कोई भी देश खुद को दूसरे के लिये बर्बाद नही करता क्योकी युद्ध बहुत महंगा शौक है । इसलिये छोटे , आर्थिक ,जनसांख्यिकी से कमजोर और विकासशील देशो के लिये सबसे अच्छा है की वो किसी बड़े की कठपुतली न बने और अपने हित अहित के साथ सबसे सम्बंध रखे और किसी बड़े के राजनीति का मैदान न बने ,चुनौती ही दे ।पहले और दूसरे विश्व युद्ध की विभिषीका कोई भी अभी भूला नही है ।
किसी भी देश का अपना निर्माण खास माहौल और ऐतिहासिक परिस्थितयो और कारको से होता है और उन्ही हालातो मे सुखी होता है तथा तरक्की करता है ।कुछ समाज हमेशा से तानाशाही व्यवस्था मे रहे और उसके आदी है तो वहा उसी फ्रेम मे कोई भी व्यवस्था हो जनता को फर्क नही पडेगा जब तक की लोकतंत्र की हवा का एहसास उसके अन्दर घर न कर जाये और वो तब होता है जब पूरी जनता उसका खुद अनुभव करती है या उसे सहज जानकारी होती है । भारत उन्मुक्त वातावरण का समाज रहा है यहा का समाज थोडे कम मे भी जी लेता है और संतुष्ट रहता है पर उसका उन्मुक्त वातावरण और उन्मुक्त हंसी उससे नही छिननी चाहिये इसलिये तानाशाही जैसा कोई कदम या सोच भारत के लिये आत्मघाती होगी । भारत को धर्म और जातीय झगड़ो वाले समाजो और देशो से सबक लेने की जरूरत है और जितनी जल्दी समझ लेगा उतना ही देश मजबूत हो जायेगा तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तरक्की भारत को दुनिया के सामने शान्ती तथा सद्भाव की चुनौती देने लायक हो जायेगी तथा ये दुनिया मे शान्ती का सन्देश देने लायक हो जायेगा महात्मा गांधी को सामने रख कर ।
ये वक्त फिर से विचार करने का है कि जवाहर लाल नेहरू द्वारा शुरु किया गया गुट निरपेक्ष आंदोलन कितना सार्थक था और वो खुद मे तीसरी धुरी था जी बाकी दो को बैलेंस करता था ।
पहले अमरीकी स्वार्थो ने काफी देशो को बर्बाद किया है और अब उक्रेन पूरी दुनिया के छोटे और कम बिकसित या विकासशील देशो के लिये नये सिरे से एक्जुट होकर नई रणनीति बनाने का वक्त है और भारत इन सबकी अगुवाई कर सकता है पर उसके लिये पहले भारत मे पूर्ण एकता और विश्वास जरूरी है ।
उक्रेन तो एक हफ्ते मे निपट जायेगा परंतु ये अन्तिम साबित नही होगा बल्कि ये नये तरह के युद्ध का प्रारंभ है ।
चीन की चुनौती भारत के लिये कम नही है और वो चुनौती खुद की वैचारिक और रणनीतिक गल्तियो से पैदा हुयी है ।इन गल्तियो को तुरंत स्वीकार कर उसका परिमार्जन और अनुभव का उपयोग करते हुये उससे बाहर निकलना वक्त की मांग है चाहे वह राजनीतिक विरोधी के  पास ही क्यो न हो ।
युद्ध से बचना है तो युद्ध को महंगा करना होगा और बंटा हुआ देश तथा अज्ञानी नेत्रत्व नही कर सकता ।
डा सी पी राय