शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

मेरी_लिखी_कहानी

#मेरी_लिखी_कहानी अगर पढ़ना चाहे —-

#प्रोफेसर_साहब --

प्रोफेसर साहब मेडिकल कालेज के नामी गिरामी प्रोफेसर थे । नाम बडा था ज्ञान भी था ही पर ? जाने देते है ।
जब मेनचेस्टर कहे जाने जिले के मेडिकल कालेज मे प्रोफेसर थे तो उनका  लडका भी वही छात्र हो गया था पता नही अपनी मेहनत से या पिता की जुगाड से । बेटे के साथ एक बहुत कुशाग्र छात्र भी पढता था जो तीन साल तक लगातर प्रथम आता रहा । चौथे साल मे प्रोफेसर साहब का माथा ठनका की उनके रहते हुये कोई और छात्र कैसे टॉपर हो सकता है, बस लग गये और चौथे तथा अंतिम साल मे बेटे को टाप करवा ही दिया ।
समय ने करवट लिया और प्रेम के स्मारक वाले शहर के मेडिकल कालेज मे प्रोफेसर साहब हेड बन कर आ गये और जिस अपने छात्र को उन्होने टॉप नही करने दिया था वो भी अध्यापक बन कर उसी कालेज मे आ गया ।थोडे दिन मे प्रोफेसर साहब का दूसरा बेटा इसी कालेज मे दाखिल हो गया । उसकी परीक्षा का अवसर आया तो जिसका नंबर घटा कर पीछे किया था उनसे ही सिफारिश किया अपने दूसरे बेटे को प्रथम स्थान पर पहुचाने की ।
प्रोफेसर साहब ने अपने दोनो बेटो को अमेरिका भेज दिया और खुद लग गये पैसा बटोरने मे । पैसा दांत से पकडते थे प्रोफेसर साहब और शहर मे सबसे ज्यादा फीस वसूलते थे ,कोई रहम नही । कोई बहुत गरीब और जरूरतमंद हो तो गिड़गिड़ा कर मर जाये पर मजाल क्या कि प्रोफेसर साहब का दिल पिघल जाये ।
प्रोफेसर साहब अब बूढे हो चले थे तो सोचा चले कुछ दिन दोनो बेटो के घर अमरीका मे बिताये और मन लग गया तो भारत का घर इत्यादि बेच कर पति पत्नी वही बच्चो के पास रह जायेंगे । बड़े अरमानो और जोश से टिकेट करवा कर अमरीका बड़े बेटे के घर पहुचे । कुछ दिन तो सब ठीक चला पर फिर बेटे से खटपट होने लगी छोटी बड़ी बात पर और बात यहा तक पहुची की बेटा उनके मुह पर ही बोल देता कि क्यो बिला वजह जिन्दा हो ? क्या बक बक करते हो ?  शाम तक मर क्यो नही जाते ।
और एक दिन बेटे ने घर से जाने का फरमान सुना दिया तब छोटे बेटे को फ़ोन किया पर वो लेने ही नही आया और रुखी से बात कर फोन काट दिया । छोटे बेटे से बोले कि टिकेट होने तक अपने घर ले चलो और फिर बस हवाई अड्डे तक छोड देना, पर वो नही आया ।निराश ,उदास,अपमानित  प्रोफेसर साहब भारत अपने घर लौट आये ।

पत्नी गम्भीर बीमार हो गई तो वही काम आया जिसके नंबर कम कर अपने बेटे को टॉप करवाया था । उन्होने पत्नी का ऑप्रेशन किया । कुछ ही दिन मे प्रोफेसर साहब गम्भीर रूप से बीमार हो गये तो उसी डाकटर साहब ने उन्हे अस्पताल मे भर्ती किया और लगातार उनकी देखभाल किया । पर लगता है कि बीमारी से ज्यादा मन की टूटन ने प्रोफेसर साहब को जख्मी कर दिया था अंदर तक और वो एक दिन उदासी चेहरे पर ओढ़े हुये चल बसे ।
सवाल आया कि दो बेटे है उन्हे खबर कर दिया जाये और उनके इन्तजार मे शरीर को संरक्षित कर रख दिया जाये । बेटो को खबर की गई पर दोनो ने ही आने से इंकार कर दिया कि एक मर गये आदमी को बस आग लगाने को वो अमरीका से नही आ सकते । अन्ततः प्रोफेसर साहब के नौकर ने उनका अंतिम संस्कार किया और उस वक्त मुट्ठी भर केवल वो लोग वहाँ मौजूद थे जो उनके कुछ नही लगते थे पर जिनको पढाया था या जो साथ मे शिक्षक थे और जिन्हे ये एहसास था कि नही गये तो लोग क्या कहेंगे ।
प्रोफेसर साहब का दांत से पकडा पैसा अपने भविष्य की बाट जोह रहा है और वो बड़ी सी कोठी प्रोफेसर साहब की पत्नी के अंतिम दिनो का सहयोगी बन वीरानी मे टुकुर टुकुर देखती रहती है और अपने नये मालिक के साथ फिर से गुलजार होने का इन्तजार कर रही है । नौकर ने बेटे का कर्तव्य निभा दिया और संस्कार कर दिया पर वो बेटा तो नही हो पायेगा अधिकार मे और इसिलिए उसने अपनी रोजी रोटी के लिये दूसरा ठिकाना ढूढना शुरू कर दिया है ।
कुछ दिन मे लोग भूल जाना चाहेंगे प्रोफेसर साहब को पर उनके किस्से सबक बन कर काफी दिनो तक फिजा मे तैरते रहेँगे ।
(अभी अभी लिखी एक कहानी । हम सब के आसपास ना जाने कितने प्रोफेसर साहब है और उनके बेटे भी )

जिन्दगी_झरोखे_से

#जिन्दगी_झरोखे_से --

जब सुबह जगा कर एडीएम साहब #संगम ले गए थे --

उस दिन सुबह संगम के दृश्य । न जाने कितनी बार आया था #इलाहबाद पर उस दिन सुबह उठ कर उगते हुए सूर्य की किरणों के साथ संगम जाना और वहा दो नदियो या कहे की दो संस्कृतीयो और दो बहनो गंगा और यमुना का मिलन देखना सचमुच बहुत सुखद अनुभूति रही ।
एक दिन पहले कलक्टर साहब से बात हुई थी तो बोले की संगम गए है या नही और नही कहते ही उन्होने फरमान सुना दिया की सुबह तैयार रहियेगा फला एडिएम साहब संगम प्रेमी है वो  आप को ले जायेंगे । मैं सोचने लगा कि कहा मेरे मुह से नही निकल गया , क्या सचमुच इतनी सुबह आ जायेंगे एडीएम साहब , ना आये तो अच्छा । पर वही हुआ सुबह ही करीब 4,45 पर एडीएम साहब ने सर्किट हाऊस जो कलक्टर साहब जो मेरे मित्र थे उन्होने ही बुक करवाया था के मेरे कमरे का दरवाजा खटखटा दिया और फिर उनके साथ गाडी पर संगम जाना ही पडा ( किसी मुसीबत की तरह जो मेरे चेहरे पर साफ दिख रही है फोटो मे , पर वहा पहुच कर थोडी देर बाद एहसास हुआ की सचमुच मैं आज के पहले एक बहुत अच्छे अनुभव और मनोरम दृश्य से वंचित था ) जहा एक शायद सरकारी वोट तैयार थी और ए डी एम साहब के कोई नीचे वाले कोई कर्मचारी पहले से ही पहुच कर तैयारी किये हुये थे ।
खैर --
प्रयाग का संगम 
----------------------
सूरज उग रहा था और उनकी किरणे गंगा और जमुना के हरे और सफ़ेद पानी को सुनहरा बना रही थी ।क्या मनोहारी दृश्य था और इतनी सुबह की आस्था का सैलाब उमड़ा हुआ था ।ना जाने कितनी नावो में भरे हुए लोग इस ठिठुरती ठण्ड की परवाह किये बिना आये हुए थे की बिलकुल संगम स्थल पर ही आचमन लेंगे या डुबकी लगाएंगे ताकि ,जो भी उनकी मनोकामना या इच्छा हो । बहुत बड़ी संख्या में चिड़ियों को झुण्ड भी चारो तरफ कलरव कर रहा था ।मैं पूछ नहीं पाया की ये चिड़ियाँ  यहाँ स्थायी रूप से मौजूद रहती है या जाड़े में सूदूर बर्फीले इलाके से साइबेरिया इत्यादि से आई हुयी है इस वक्त ।ये जानकारी कोई दे सके तो आभार व्यक्त करूँगा ।
मुझे उस दिन पहली बार पता लगा की संगम के किनारे का किला अकबर ने बनवाया था ।कही नहीं वर्णन आ पाया होगा मेरे अध्ययन में ।अब जानना पड़ेगा की अकबर ने संगम को किला बनवाने को क्यों चुना और हर बात में विवाद ढूँढने वाले लोग  इसमें कोई विवाद नहीं ढूढ़ पाये क्या ।इस पर बाद में अध्ययन करने पर लिखूंगा ।
मेरे दो संस्कृतियो पर बहस छिड़ सकती है क्योकि दोनों  एक ही इलाके में है और मिलन के बाद तो बस गंगा बचती है और विलीन हो जाती है उसमे यमुना , सरस्वती कहां से निकलती है और कब विलीन हो जाती है रहस्य ही बना हुआ है ।
हां तो संस्कृति पर बहस की बात मैंने जान बूझ कर छेड़ा है । यद्यपि यमुना का हरा जल कुछ साफ़ दीखता है यहाँ पता नहीं कैसे जबकि इसके पीछे यमुना पूरी तरह गन्दी दिखती है लेकिन इस हरे रंग के किनारे की संस्कृति कुछ अलग है और उसका खुलकर वर्णन कर दूंगा तो विवाद बढ़ जायेगा । पर इस दो संस्कृति का मेरा आशय और अनुभव भी क्या है कभी लिखूंगा जरूर ताकि मेरी समझ भी साफ़ हो सके । हो सकता मैं जो समझ रहा हूँ उसमे कुछ पेंच हो या मेरे ही मन में किन्ही लोगो या घटनाओ के कारण कुछ खराश हो ।
गंगा का पानी सफ़ेद और कुछ मटमैला दीखता है संगम पर पर गंगा का किनारा पकडे हुए संस्कृति मटमैली नहीं दिखती ।
बताया गया की संगम पर गंगा और यमुना में भी एक युद्ध चलता रहता है । मैं कहूँगा की दो बहनो की आपसी अठखेली होती है या छेड़छाड़ । पर संस्कृति की बड़प्पन की लड़ाई भी हो सकती है ।
कभी गंगा यमुना को पीछे धकेल देती है तो कभी यमुना गंगा को, पर ये पता नहीं चलता की इस लड़ाई में सरस्वती की भूमिका क्या रहती है , तटस्थ एम्पायर या रेफरी की या बस मजा लेते हुए तीसरे व्यक्ति की ।
पर ये सच्चाई तो कबूल करना ही पड़ेगा की अंत में जीत जाती है गंगा और विलीन हो जाता है उसमे सब कुछ , अस्तित्व , संस्कृति , रंग , स्वाद और दोनों नदिया और फिर हथिनी की चाल से गौर्वान्वित चलने लगती है और गंगा भी विलीन हो जाने के लिए अपने से भी बड़े अस्तित्व में ताकि जीवन , मरण और फिर जीवन का चक्र पूरा हो सके ।
फिर समुद्र से भाप बन कर उड़ता है नया जीवन और नई तरह के जीवन बरस पड़ते है उससे जो फिर कही ताल तलैया , तो अलग अलग क्षेत्र में कोई गंगा , कोई यमुना , कोई राप्ती और कोई सरयू जैसा जीवन पाकर चलती रहे ताकि जीवो का जीवन चलता रहे ।
शायद मैं दर्शन से दर्शन की तरफ चला गया ।पर मुझे याद नहीं की इससे पहले उगता हुआ सूरज कब देखा था ।शायद जब कन्याकुमारी गया था नेता जी के साथ ।
इस सब दृश्य के बीच मोटर बोट मंथर गति से नदियो का सीना चीरती हुयी चली जा रही थी और वहां ले जाने वाले साथी वहां के बारे में , ऐतिहासिकता के बारे में और पुण्य के बारे में वर्णन करते जा रहे थे ।उन्होने आज बताया की यदि संगम नहीं आये तो सब तीर्थ बेकार है तो मन में बरबस आ गया की मैं तो कभी किसी मंदिर ही नहीं गया तीर्थ तो बड़ी बात है ,और तब तो यहाँ आकर भी मैं पुण्य का भागी नहीं बन पाया । वैसे ही शीत प्रकृति के कारण डुबकी लगाने का मतलब कुछ दिनों डॉ0 मित्रो की सेवा में रहना हो जाता पर दृश्य सचमुच ऐसा की मैं लिखे बिना नहीं रह सकता था । शायद ऐसे दृश्य ही लोगों को अपनी तरफ खींचते है और यही खिंचाव आस्था बन जाती है । अब तो साधन हो गए पर जब साधन नहीं रहे होंगे तब जो विलीन हो जाते होंगे इन दृश्यों के आगोश में वो स्वर्ग में जाने वाले और ईश्वर के बुलावे वाले वर्ग में शामिल हो जाते होंगे और जो वापस चले जाते होंगे घर वो ईश्वर की और संगम की कृपा से बच जाने वाले वर्ग में शामिल हो जाते होंगे और इसकी विषद व्याख्या अपने अपने जजमानों को सुनाने वालो की भी काफी तादात होती ही है ।
पर पुण्य मिले या न मिले क्योकि अभी तक कोई प्रमाणिक दस्तवेज और अध्ययन नहीं है जो साबित कर सके की पुण्य क्या है और किस किस को मिला तो क्यों और कैसे मिला और संगम में गहरी डुबकी मार कर भी जिन्हें नहीं मिला क्यों नहीं मिला ।
संगम पर ही जिंदगी जीने वाले मछुवारे ,नाव चलाने वाले और रोज नित्यकर्म से लेकर यही नहाने वाले तो पुण्य से मालामाल हो गए होंगे तो उनके जीवन में क्या विशेष है ये अध्ययन का विषय हो सकता है और शायद शोध से कुछ जानकारी मिले । फिर भी करोडो की आस्था का केंद्र है संगम तभी तो इतने कष्ट सह कर करोडो लोग यहाँ कल्पवास करते है और डुबकी लगाते है । आस्थाएं शायद लोगो को अतिरिक्त ताकत देती और भरपूर ऊर्जा भी ।
जी हां पुण्य मिले या न मिले पर उसी संगम के दर्शन कर लिए आज मैंने भी इतनी सुबह जाकर और इस सुबह जाने की मानसिकता और दबाव में पूरी रात नहीं सोकर तो इस कष्ट के लिए कुछ तो मिलेगा ही ।
पर ये सुबह का दृश्य की किसी भी मायने में कन्याकुमारी के सुबह के दृश्य से पीछे नहीं है और इसे सैलानियो को आकर्षित करने के लिए प्रचारित किया जा सकता था । उस दिन मुझे एहसास हुआ की मेरा प्रदेश किस कदर सुस्त ,दिशाहीन और संकल्पहीन है की राजस्थान अपनी रेट की मार्केटिंग कर लेता है ,कश्मीर , शिमला और अन्य अपनी बर्फ और ठंड, तमिलनाडु कन्याकुमारी का सूर्योदय जो ज्यादातर दिखता ही नही बादलो के कारण इसलिए कह रहा हूँ की जब मैं गया था मुलायम सिंह यादव के दौर मे  कन्याकुमारी तब रात भर जगा बैठा रहा बाल्कनी मे की कही सोता न रह जाउँ और सुबह बस हो गई बादलो मे छुपी हुई ,केरल से लेकर महाराष्ट्र तक समुद्र का किनारा ,तो चेरापूंजी अपनी बारिश और हरियाली ,भूटान सिक्किम मेघालय अरुणाचल अपने पहाड़ और दृश्य तो अमरीका तो बस यू ही किसी भी चीज पर मोटा टिकेट लगा कमा रहा है तो क्या चीज नही है उत्तर प्रदेश मे , साथ ही बिहार और मध्यप्रदेश इत्यादि मे भी , बस सैलानियो के लिए सुरक्षा का भाव अपराधियो और शोहदो से और पुलिस की लूट तथा कमाई के लिए परेशान करने वाली प्रवृति से , और अभाव है मार्केटिंग के लिए भाव , समर्पण ,इरादा और व्यव्स्था की ।
ले दे कर एक ताज महल, या बनारस का घाट भी कुछ लोगो को आकर्षित करता है ।
चलिये इस मुद्दे पर विस्तार से फिर कभी ।
बोलो गंगा मैया की जय (क्योकि जय केवल विजेता और शक्तिशाली की ही बोलने की परम्परा है तो मैं भी इस परम्परा को क्यों तोडू )।

जिन्दगी_झरोखे_से

#जिन्दगी_झरोखे_से 

सोशल मीडिया में नोबेल पुरष्कार के लिए आज कल जाति और गोत्र खोज प्रतियोगिता चल रही है ।
देखे पढ़े लिखो का पतन कहा तक होता है ।
पहले कहा जाता था कि ज्यो ज्यो शिक्षा बढ़ेगी समाज से जातिवाद और धार्मिक कट्टरता , अन्धविश्वास और नफरत खत्म होगी और इंसानियत बढ़ेगी ।
पर 
पर इससे अच्छा तो मेरा बचपन वाला अशिक्षित गांव था जिसमे अख़बार रात को चाचा जी शहर से लौटते हुए लाते थे और एक रेडियो पर सबको समाचार और कृषि की जानकारी मिल जाती थी ।
कभी चाचा नेहरू से शास्त्री जी तक का भाषण भी सुन लेता था गांव पर साथ साथ उसी समय किसी मुख्यमंत्री का भाषण जबर्दस्ती नहीं सुनना पड़ता था ।
पूरा गांव की सभी जातियां एक दूसरे की पूरक थी तो एकमात्र मुसलमान परिवार गांव की आवश्यकता , जांघिया नाच दिखने वाले दलित भाई शुभ अवसरों पर मनोरंजन देते थे तो कुम्हार बर्तन और कहाँर भुना हुआ अनाज और कूंए से पानी , बनिया शहर और गांव के बीच की आवश्यकता पूरी करता था तो पंडित जी की बात और कुछ सबसे ज्यादा बुजुर्गों की बात सर्वमान्य थी ।
नाइ चाचा खुद ही शादियां तय कर देते थे तो पिछड़े वर्ग के मुंशी जी किसी को भी डंडे से पढ़ना और जोड़ना घटाना सिखा देते थे और उनके खिलाफ कोई शिकायत नहीं करता था  
कहा चला गया वो समाज 
या तो पढ़ाई नकली है या नए जमाने की हवा में जहर है ।
फिर भी अभी भी बिना पढ़े लिखे लोग पढ़े लिखो के मुकाबले इस नफरत के व्यापार में हज़ारों मील पीछे है आज भी ।
हां तो 
ये नोबेल पुरष्कार किसे मिलेगा ।

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2024

जिंदगी के झरोखे से

#जिंदगी_के_झरोखे_से 
वो 30 जनवरी की तारीख़ थी जो भारत के इतिहास की काली तारीख़ साबित हुयी और भारत ही क्या दुनिया को मानवता का रास्ता दिखाने वाला सूरज अस्त कर दिया गया एक हत्यारे द्वारा ।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हम सबके बापू दिल्ली के बिडला हाउस के एक छोटे से कमरे में रहते थे बहुत ही साधारण तरीक़े से । ज़मीन पर बैठते थे सोते थे , बहुत साधारण बर्तन में सादा भोजन करते थे ।
बापू रोज़ पीछे के मैदान में उपस्थित इंसानो से मिलते थे , उनके प्रश्नो का जवाब देते थे , रामधुन गाते थे , प्रार्थना करते थे और विभिन्न विषयों पर प्रवचन भी करते थे ।
कुछ देर पहले ही तो सरदार पटेल महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात कर के गए थे और कल ही तो बापू में ड़ा राममनोहर लोहिया को बुलाया था चर्चा करने को । रात हो रही थी और ड़ा लोहिया थके हुए थे जबकि बापू कुछ व्यस्त थे । जब बापू वापस आए तो ड़ा लोहिया गहरी नीद में सो गए थे । बापू ने उन्हें नही जगाया और ख़ुद भी ध्यान करने के बाद सो गए । सुबह बापू जल्दी जाग गए और अपनी नित्य की दिनचर्या में व्यस्त हो गए और ड़ा लोहिया उनके बाद जगे । लोहिया बापू के पास गए की बापू मुझे नीद आ गयी थी बताइए क्या आदेश है । बापू का समय निर्धारित होता था और उसी हिसाब से उनका जीवन चलता था इसलिए बापू ने उन्हें आज यानी ३० जनवरी को आने को कहा और इतना ज़रूर कह दिया कि आवश्यक बात करनी है और कांग्रेस के भविष्य पर तथा उसमें इन लोगों की भूमिका पर बात कर कुछ महत्वपूर्ण निर्णय लेना है । ड़ा लोहिया चले गए । 
३० तारीख़ को मिलने वालो ने सरदार पटेल प्रमुख थे और गम्भीर चर्चा कर वो वापस का चुके थे । 
बापू अपने नियत समय पर अपने कमरे के इसी चित्र वाले दरवाजे से प्रार्थना स्थल के लिए निकले और ज्यों ही नीचे की सीढ़ियाँ चढ़ कर आगे बढ़े भारत का पहला आतंकवादी जो इतना कायर था की आज़ादी की इतनी लम्बी लड़ाई में वो देश के लड़ना तो दूर जिसने कभी मुह छुपा कर भी अंग्रेज के ख़िलाफ़ कोई नारा तक नही लगाया था ,जिसने किसी अंग्रेज के घर की दीवार पर ग़ुस्सा दिखाने के लिए कभी एक कंकरी तक नही फेंका था और जिसने चंद दिन पहले ही अपने हाथ पर मुस्लिम नाम लिखवा लिया था उसी ने जिन अंग्रेजो कि कभी औक़ात नही हुयी बापू को उँगली से भी छूने की उन्होंने की अंग्रेज़ी पिस्तौल से उन्ही अंग्रेजो कि बनाई तीन गोलियाँ बापू के सीने में उतार दिया और भागने लगा जिसको वही के माली ने तमाचे मार कर पकड़ लिया ।
अपने को हिंदुओं का ठेकेदार बताने वाली एक सगठन जो अब देश भक्ति का उपदेश देता है ने तुरंत देश भर में फैलाया की बापू को मुसलमान ने मार दिया पर तुरंत नेहरू जी और पटेल जी ने निर्णय लिया और हत्यारे का नाम देश भर तक रेडियो से पहुँचा दिया । देश की जानता रोटी हुयी सड़क पर थी और कांग्रेसी गोलीय जनता को सच बताने निकल पड़ी ।
ड़ा लोहिया बापू से मिलने के लिए आ रहे थे और अभी थोड़ा दूर ही थे की पता लगा की सूरज अस्त हो गया । नेहरू जी ने रोते हुए कहा कि रोशनी ख़त्म हो गयी । 
दूसरी तरफ़ संघ और हिंदू महासभा ने ख़ुशी मनाया और मिठाई बाँटा । 
जी आज तीस जनवरी को 74 साल हो गए । वो ताकते जी बापू की हत्या के लिए ज़िम्मेदार है सब तक पैर जमा चुकी है तथा अपने आका के सपनो को उतार देना चाहती है बापू के भारत में हिटलर और मुसोलिनी ने भी जो रास्ता तय किया था उसी पर चल कर उन्ही की तरह  मानवता का क़त्ल करके और देश को जहन्नुम बना कर । 
इसलिए ३० जनवरी हमें चेतावनी देती है देश को समाज को और मानवता को बचाने की चेतावनी और हिटलर मसोलिनी का नही बल्कि बापू के सपनो का भारत बनाने की । 
काश उस दिन ड़ा लोहिया दो नही गए होते या काश बापू की हत्या नही हयी होती और आचार्य नरेंद्र देव , ड़ा लोहिया , जयप्रकाश , अच्युत पटवर्धन इत्यादि कांग्रेस में ही रहे होते तो शायद तस्वीर कुछ और होती पर आज इस बात को याद करने का दिन नही है बल्कि मानवतावादी सत्य अहिंसा ग्राम स्वराज और स्वावलम्बन बनाम हत्या दंगे , राक्षसी सोच और अंधाधुंध पूंजीवाद के बीच चलती लड़ाई में से अपना पक्ष चुनने का दिन है ।
आइए बापू के साथ खड़े हो । 
#मैं_भी_सोचूँ_तू_भी_सोच

जिंदगी_के_झरोखे_से

#जिंदगी_के_झरोखे_से

एक लघु कथा -- 
माँ ।---

वो पुराना घर 
कहते थे की किसी राजा के कारिंदों का था  
कुछ लोग बताते थे की राजा के घोड़े बांधते थे 
पर अब तो कुछ लोग रह रहे थे वहां 
और 
ऐसा घर पाना भी कितनी बडी सुविधा थी ।
उस छोटे से दो कमरे के घर में वही एक कमरा टपकता था बारिश में
और उस परिवार के पास उस कमरे की छत की मरम्मत लायक पैसे नहीं थे 
और 
जिस संस्था का घर था उसके पास तब तक पैसे नहीं थे जब तक ये परिवार रहां उस घर में  
ज्यो ही जाती विशेष का व्यक्ति उसी घर में आ गया पूरा घर ही बदल गया और बहुत कुछ नया भी बन गया 
पर भटक न जाऊं मैं तो बस एक माँ की कहानी लिख रहा था 
तो 
बारिश कितनी बड़ी सजा थी उस माँ के लिए और बच्चो के लिए 
पिता तो सो जाता था 
पर माँ कैसे भीग जाने देती अपने छोटे छोटे बच्चो को ।
पहले मच्छरदानी लगाया 
फिर उस पर कुछ प्लास्टिक बिछाया 
फिर भी बात नही बनी तो बच्चो को उस कोने में लिटाया जहा पानी नही आ रहा था और 
पानी वाली जगह कही बाल्टी रखा और कही टब ।
पूरी रात जी पूरी पूरी रात 
वो बैठी रहती थी बर्तन बदल बदल कर पानी फेंकने को कि एकमात्र बिस्तर भीग न जाये ।
कितनी राते नहीं सोती थी वो माँ अपने बच्चो के लिए औरअपने परिवार के लिए 
पूरे दिन काम भी पूरा करती थी बिना चेहरे पर शिकन लिए 
अभी कल की ही तो बात है 
बेटी पैदा होने वाली थी । पैसे नहीं थी तो सरकारी अस्पताल के जर्नल वार्ड में कुछ अपनों के कारण इंतजाम हो गया था 
और डॉ चार दिन कम से कम रोकते है और कुछ दिन आराम करने तथा शरीर के सामान्य हो जाने को समय देने को बोलते है पर गरीबी और घर की मजबूरी के कारण वो एक दिन में ही घर आ गयी थी और लग गई थी घर के हर काम में ।
और ऊपर से ये टपकती छत 
पर कोई भी हालात उसे नहीं तोड़ पाता था ।
वही खिलखिलाती हंसी 
वही समर्पण और कभी उफ़ की आवाज़ नहीं 
और बारिश भी निकल गयी तथा वो दौर भी ।
बड़ा कर काबिल बना दिया उसने अपने बच्चो को बिना शिकन और अभावों का एहसास किये और कराये हुए ।
वो बस एक माँ थी ।