मंगलवार, 10 अगस्त 2021

एंटी_क्लॉक_वाइस_घूमती_राजनीति_की_सुइया "#और_विश्वास_का_संकट"

#एंटी_क्लॉक_वाइस_घूमती_राजनीति_की_सुइया "
#और_विश्वास_का_संकट"

मैने कुछ साल पहले लिखा था की आने वाले वक्त मे राजनीती की सूइया एंटी क्लॉक वाइस घूमेगी ।
कांग्रेस पार्टी आज़ादी के लिए बनी वो काम किया कुर्बानी भी दिया आज़ादी की लडाई से बाद तक और शुन्य पर खड़े देश को दुनिया के मुकाबले खड़ा भी कर दिया पर आपात्काल की लफंगा ब्रिगेड की भर्ती ने इसका लगातार क्षरण किया और ये समय समय पर अपने सिद्धांतो से विचलन और हरम की सजिशो के कारण  विघटन का शिकार होती रही ।गांधीवाद की बुनियाद और नेहरु के तथा इन्दिरा गांधी के प्रगतीशील सोच से बढती हुई पार्टी कभी शहबानो तो कभी अयोध्या मे ताला खुलने और नरसिंहा राव के समय के विध्वस और फिर मनमोहन सिंह के समय मध्य मार्ग को छोड पूरी तरह पूंजीवादी रास्ते पर जाने के कारण पतन की आखिरी पायदान पर जा खड़ी हुई ।इससे बडा क्या दिवालियापन हो सकता है की इतनी पुरानी और इतनी बडी पार्टी अपने लिए एक अध्यक्ष नही चुन पा रही है और सडक पर देश और लोकतंत्र के लिए लड़ने के बजाय दिल्ली के चंद बंगलो की आपसी लडाई मे उलझी हुई है ।कांग्रेस के पास बहुत अच्छा अवसर है मजबूत वापसी का पर वह आज सुविधा और भ्रम के बीच झूल रही है । उसके लोग निकल जा रहे पर किसी पास फुर्सत नही है अपनो से संवाद करने और तारतम्य बिठाने का क्योकी कोई भी जिम्मेदार नही है ।वो अपनी भी नही समझ पा रही है की इन्दिरा युग कब का बहुत पीछे जा चुका और अब टाक टू माई चपरासी और टाक तो माई पी ए से दल नही चलने वाला । व्यक्ति विशेष के चमत्कार धूमिल हो चुके है और खुद की सीट बचाना मुश्किल हो रहा है ऐसे मे भी और ज्यादा लोगो को और अपनो को जोडने के बजाय अहंकार से टूटने दिया जा रहा है ।
भाजपा आरएसएस की राजनीतिक विंग के रूप मे स्थापित हुई पहले जनसंघ के नाम पर और मूलतह शहरो मे बसे पकिस्तान से आये लोगो और व्यापार के पक्ष मे बात करने के कारण व्यापारियो तक सीमित रही लम्बे समय तक ।इससे पूर्व बंगाल मे मुस्लिंम लीग से साथ सरकार बना चुकी थी। फिर 1960 के दशक मे गाय के नाम पर सधुवो को उकसा कर पहचान बनायी तो 1967 मे डा लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के घोड़े पर सवार होकर मुस्लिम मजलिस ,कम्युनिष्ट इत्यादि के साथ सरकार मे शामिल हुई ,फिर आपात्काल के बाद जनता पार्टी मे शामिल हो सभी दलो की पवित्रता का लाभ लिया और उसके बाद जनता दल और कम्युनिष्टो की मिली जुली सरकार समर्थन किया जिसमे कश्मीर का पलायन हुआ और ये कुछ नही बोली ।जब सारे राजनीतिक हथियार फ़ेल हो गए तो सीधे धर्म और राम को एजेंडा बना लिया फिर बात तब बनी जब तमाम छोटे छोटे दलो की जोडा जिसमे खालिस्तान के समर्थक अकाली दल को तो आतंकवादियो को शहीद कहने वाली महबूबा मुफ्ती को भी और बढते गए अपनी पुरनी बाते छोड़ते गए रणनीतिक तौर कर । जहा जो मिला उसी को पार्टी मे शामिल कर लिया और आज करीब 150 सांसद अधिकतर पूर्व कांग्रेसी या अन्य दलो के है । अंग्रेजी मे भाषण होने लगे और हिन्दी सिसकने लगी ।फिर पहले चीन की साम्यवादी पार्टी से सीखा और फिर इस्राइल से और जिन्न का कोई चिराग हाथ लग गया और विजय आसमान तक पहुचने लगी ,दीनदयाल उपाध्याय का अन्त्योदय दहाड़ मार कर रोने लगा और जाकर अम्बानी अडानी के महलो मे उसे शरण मिली ।सिद्धांत और कर्म के बजाय विश्वास धर्म ,राम और अफवाहो पर ही सीमित हो गया । 
साम्यवादीयो का जिक्र ही नही कर रहा हूँ क्योकी न मैं इनकी भाषा समझ पाया न उद्देश्य ही आजतक और शायद देश की जनता भी ।
समाजवादी पार्टी की  स्थापना 10 % बनाम 90 % की लडाई और गांधी लोहिया जयप्रकाश को लेकर हुई थी खासकर लोहिया के समाजिक न्याय ,सप्त क्रांति और चौखम्भा राज को लेकर ,जे पी की सम्पूर्ण क्रांति और गांधी के प्रीती पराई जानो और समाजिक समरसता को लेकर ,पर समय के साथ समाजिक न्याय पारिवारिक और जातिगत न्याय तक सीमित हो गया और शक्ति के केन्द्रीयकरण ने चौखम्भा राज को गहरे दफना दिया , कौन गांधी और कौन जयप्रकाश ।ऐसी सभी पार्टियाँ जो कभी लोकदल , जनता पार्टी ,जनता दल के नाम पर बने और बिखरे सब एक जैसे ही साबित होते रहे और अपने नेताओ के सीमित उद्देश्य को पूरा कर अविश्वसनीयता तथा असफलता का शिकार होते रहे आरोपो के बोझ से दबे हुये ।
बसपा की स्थापना काशिराम ने बहुत मेहनत से किया था और सोई हुई कमजोर जातियो को जगाया भी और जोडा भी ।
पर वो भी अन्ततः सिर्फ कैसे भी कुर्सी और महल मुकुट ,नोटो की माला तक सिमट गई ।
दोनो ही पार्टिया जिनको गाली देती थी उन्ही की गोद मे बैठ गई ।दोनो ही पार्टियो ने विचार और वैचारिक आधार रखने वालो की कमजोर किया या नेपथ्य ने डाल दिया ।
दोनो ही पार्टियो के नेता 10 से 90 की न्याय दिलाते दिलाते खुद 10 मे शामिल हो गए और लगातार इसमे और ऊंची पायदान पर पहुचने की ही जद्दो जहद दिखती रही ।
अवसर तो इन सभी नेताओ को मिला और वो चाहते तो सम्पूर्ण पिछड़े दलित अल्पसंख्यक और सभी गरीबो को इमानदारी से समान भाव से ताकत देते आगे बढाते , मजबूत करते तो आज राजनीती की दशा और दिशा ही कुछ और होती और देश आखिरी पायदान के व्यक्ति के कल्याण की तरफ बढ़ रहा होता और ये सब दल एक सार्थक भूमिका निभा रहे होते पर इन्होने ये नही करने और स्वार्थी होने तथा संकुचित होने का गुनाह किया है जिसका खमियाजा भोग रहे है और भोगते रहेंगे ।जैसे अन्ना ने आन्दोलनो की विश्वसनीयता खत्म कर कई सालो के लिए उसकी सम्भवना ही खत्म कर दिया वैसे ही इन पिछड़ो और दलितो तथा गरीबो की बात करने वालो ने भी अब लम्बे समय के लिए उसे खत्म कर दिया है क्योकी सब चेहरे विश्वसनीयता खो बैठे है ,किसी के पास 20 कोठिया तो किसी के पास बेहिसाब दौलत ने उनको कायर बना दिया है ।
आज दोनो पार्टियाँ परशुराम परशुराम खेल रही है की कौन कितनी बडी मूर्ति बनाएगा ।राजनीतिक और दिमागी दिवालियेपन ने देश के मतदाता को हिला कर रख दिया है ।
एक नेता तो पहले ही घोसित कर चुके है की वो विष्णू का मंदीर बनायेंगे और कृष्ण की विशाल मूर्ति का भी वादा कर चुके है ।
सरदार पटेल की ऊंची मूर्ति सिर्फ गुजरात के चुनाव के लिए चीन से बनवायी गई और उसके लिए आसपास के गाणव उजड़े और आज सरदार पटेल बाढ मे डूबे अपनी सुरक्षा की गुहार लगा रहे है ।
अभी कोरोना ने आइना दिखा दिया की कोई मन्दिर मस्जिद चर्च किसी काम नही आया , हा गुरद्वारे जरूर काम आये पर सेवा के क्योकी उन्होने अंधभक्ति और ढोग नही बल्की सेवा को ही धर्म के रूप मे अपने मानने वालो के मनो मे बैठा दिया है ।
धर्म और उसके प्रतीको पर प्रश्नचिंह लग गया इस आपदा मे और कोई धर्म और देव किसी भक्त के काम नही आया तो हम डाक्टर को पृथ्वी का देव कहने लगे और अस्पताल को आज का देवालय तथा शिक्षा और विज्ञान तथा अनुसंधान की जरूरत सबको महसूस होने लगी सुविचरित रोजगार नीति और विकास नीति के साथ ।
ये अच्छा अवसर था जनता को अन्धविश्वास और पोंगापंथी से बाहर निकालने का और उसमे वैज्ञानिक सोच पैदा करने का ,यह अच्छा अवसर था सरकार के लिए अपनी 1924 /25 की सोच और उद्देश्य से बाहर   निकल कर नये तरीके से सोचने का और विकास की दिशा और पृतिब्द्धता मोड़ने का ,सब जोडने और शिक्षा चिकित्सा विज्ञान कृषी ,गांधी नेहरु के सपनो के भारत की तामीर करने ,गांधी द्वारा बताये ग्राम स्वराज की तरफ बढ़ने और बड़े पूजिपतियो के सरक्षण के बजाय अधिकतम चीजो के लिए कुटीर उद्द्योग की तरफ बढ़ने और गांधी जी की उस सोच की तरफ बढ़ने का की आसपास के अधिकतम गाव अपने उत्पादन पर ही निर्भर हो जाये जरूरत की अधिकतम चीजो के लिए ।पर सरकार अपने मातृ संगठन की सोच से नही निकली और इवेंट जारी रखा तथा आपदा को अवसर मांन जनता को फिर से मन्दिर और मूर्ति मे उलझा दिया ।
तो विपक्ष के पास भी अवसर था मजदूरो के साथ सड़क सड़क को नाप देने का और कोरोना के प्रति जागरूकता पैदा करते हुये गाव से लेकर शहर की बस्तियो तक छा जाने का पर वो घरो मे बैठा ट्वीट ट्वीट ही खेलता रहा चंद लोगो को छोडकर ।विपक्ष मे जो लोग गरीब गुरबा के कल्याण और समाजिक न्याय की बात कर खड़े हुये थे उनके पास अवसर था मजदूरो की बदहाली और असुरक्षा तथा गरीबो के और माध्यम वर्ग के सवाल पर निकल पड़ने का और धार्मिक पाखंड के नाम पर देश के बटवारे के खिलाफ और उसको वोट के लिए इस्तेमाल होने के खिलाफ बहस छेद कर जनता को उससे बाहर निकाल लाने का पर डरा हुआ ,भ्रमित क्योकी उसकी सिद्धांतो के प्रति प्रतिबद्धता ही नही है और अधिकतर आरोपो से भी घिरे है तो स्वयं की चितंनहीनता के कारण वो स्वयं भी उन्ही लोगो के अभियान मे शामिल हो गया और मन्दिर मंदीर खेलने लगा ,जबकी इस अवसर का लाभ उठा उसे देश और समाज तथा सरकार की हर कमजोरी के खिलाफ वैकल्पिक कार्यक्रम पेश कर जनता मे उछाल देना चाहिये था विचार और फैसलाकुन होने के लिए ।
पर अधिकतर राजकुमारवाद का शिकार विपक्ष अवसर को गंवा बैठा ।तो सत्ता ने भी संवादहीनता और अहंकार तथा अपने 5000 साल पहले के चिंतन वाले थिंकटैंक पर अति आत्मविश्वास के कारण देश और समाज को एक अन्धी खोह की तरफ धकेल दिया है जिसका तुरंत कोई निदान दिखलाई नही पड़ रहा है और सबसे बुरा पक्ष यह है की देश विश्वस के संकट मे फंस गया है और बहस उस मुद्दो पर होने के बजाय जो आज की और कल की आवश्यक आवश्यकता है उलझ गया है की आज़ादी कायम रहेगी या नही ? लोकतंत्र रहेगा या नही ? संविधान रहेगा या नही ? 
और जवाब किसी के पास नही है बल्की जवाब मे सिर्फ सन्नाटा है ।
राजनीती की सुइयां एंटी क्लॉक वाइस घूम गई है काफी हद तक ।अब देखना है की कहा जाकर रुकती है और फिर सही दिशा मे चलना शुरू करती है ।

सोमवार, 9 अगस्त 2021

उत्तर प्रदेश में सत्ता बदलेगी या इतिहास बदलेगा ?

आज उत्तर प्रदेश की राजनीति की दशा और दिशा --

उत्तर प्रदेश का आने वाला चुनाव मील का पत्थर साबित होने वाला है ।बंगाल ने लम्बे समय बाद एक चुनौती को स्वीकार भी किया और चुनौती दिया भी और इबारत लिख दिया राजनीति के पन्ने पर की इरादा हो, संकल्प हो और आत्मबल हो तो कितनी भी बड़ी ताकते सामने हो उन्हे परास्त किया जा सकता है ।
अब बारी उत्तर प्रदेश की है तय करने की कि देश की राजनीति की दशा और दिशा क्या होगी । जो विभिन्न कोनो से आवाज उठती है कि लोकतंत्र खत्म हो जायेगा और संविधान संघविधान मे बदल जायेगा तथा एक संगठन को छोड बाकी सब कैद मे जीवन काटेंगे ,क्या सचमुच वैसा कुछ होगा या ये सब एक भ्रम मात्र है ।तय तो ये भी होना है की जो चल रहा है वही चलेगा या बदलाव आयेगा और खुली बयार फिर से बहेगी ।तय होना है की उत्तर प्रदेश सिर्फ ठोको , मुकदमे लगाओ और जेले भरो पर ही चलेगा या रोटी रोजगार और सचमुच के विकास जिसका लोग सपना देखते है उसपर चलेगा ।
तय ये भी होना है कि 1989 से हर चुनाव मे सत्ता परिवर्तन की बयार इस बार भी बहेगी या कांग्रेस युग की वापसी होगी और सत्ता फिर वापस आयेगी ।
इस युद्द के मुख्य रूप से चार योद्धा है जिसमे भाजपा तथा आरएसएस और समाजवादी पार्टी फिलहाल आमने सामने दिखलाई पड़ रहे है । भाजपा के ऊपर जहा सरकार असफलताओ का बोझ है वही अपने ही विधायको नेताओ और कार्यकर्ताओ की नाराजगी का जोखिम भी ,जहा सभी चीजो की महंगाई का विराट प्रश्न सामने मुह बाये खड़ा है तो किसान आन्दोलन की आंच भी जलाने को तत्पर है ,बेरोजगार नौजवान हुंकार भर रहा है तो कुछ को छोडकर कर पूर प्रशासन तंत्र मे एक कसमसाहट है , या यूँ कहे की चुनावी जमीन भाजपा को निगलने को आतुर दिख रही है ।नागपुर से लेकर दिल्ली और लखनऊ तक भगवा खेमे जबर्दस्त बेचैनी दिखलाई पड़ रही है और साम दाम दंड भेद सब कुछ इस्तेमाल कर किला बचाने की जद्दो-जहद भी साफ नज़र आ रही है । हिन्दू मुसलमान मुद्दा बना देने को कमर कसते नज़र आ रहे है भगवा खेमे के योद्धा चाहे उसकी आंच मे प्रदेश बर्बाद क्यो न हो जाये पर चुनाव बड़ी चीज है ।
दूसरी तरफ समाजवादी खेमा लम्बी नीद से उठ कर अपनी अंगडाई लेता हुआ दिख रहा है पर अभी भी जमीनी हकीकत और अपनी कमजोरियो से आंखे मूदे हुये लगता है ।जहा भाजपा सैकड़ो चेहरे और संगठनो के साथ उछल कूद कर रही है वही समाजवादी पार्टी वन मैंन शो के साथ वन मैन आर्मी ही नजर आ रही है । अखिलेश यादव द्वारा मुलायम सिंह यादव को बेइज्जत कर अध्यक्ष पद से हटाने के बाद पार्टी सभी चुनावो मे खेत रही है ।पार्टी का दो मुख्य मजबूत वोट था जिसमे से पिछले विधान सभा चुनाव और लोक सभा चुनाव मे इसमे से यादव लोगो का भाजपा खेमे को काफी समर्थन मिला हिन्दू और मंदिर के नाम पर और अभी भी ये दावा नही किया जा सकता कि 100% यादव वोट पुरानी वाली ताकत तथा जज्बे से सपा के लिये लडेगा और वोट देगा ।दूसरा अडिग वोट मुसलमान का रहा जो 1989 और फिर 1993 से पूरी ताकत के साथ सपा के साथ खड़ा रहा पर इस बार वो विचलित दिखलाई पड़ रहा है और आज़म खान के मामले मे अखिलेश यादव की तब तक की गई बेरुखी जब तक वोवैसी से आज़म से मिलने की इच्छा व्यक्त नही किया और कांग्रेस की तरफ से भी उनके प्रति सहानुभूती नही दर्शाई गई ने भी पूरे मुस्लिम समाज को विचलित कर दिया है साथ मे कभी विष्णू के मंदिर तथा कभी परशुराम के मंदिर की बात कर अखिलेश यादव ने पाया कुछ नही बल्कि भाजपा की नीतियो का पिछलग्गू बनने का काम किया है ।ऐसे मे यदि मुस्लमान को कोई और विकल्प नही मिला तो उसका वोट तो मिल सकता है पर 1991की तरह ही जोश रहित और कम संख्या मे होगा ।पता नही क्यो अखिलेश यादव पर अति जातिवादी होने का ठप्पा भी लग गया है और बडी जातियो के प्रति बेरुखी वाला भाव भी ।ये गलती तो सपा ने प्रारंभ से ही किया कि वो अन्य पिछडी जातियो और अति पिछडी जातियो को ये एहसास नही करा पायी की पार्टी तथा सत्ता उनकी भी है ।मुलायम सिंह के उलट अखिलेश का सुलभ न होना तथा पुराने लोगो के प्रति उपेक्षा भाव और अनुभवी वरिष्ठ लोगो से दूरी भी उनको भारी पड़ती दिख रही है और वो अपना ही राजनीतिक कुनबा ही पूरी तरह समेट नही पा रहे है ।जहा सिर्फ 30या 35 सीट की लडाई मे अपने चाचा शिवपाल यादव और मुलायम सिंह यादव को बाहर का रस्ता दिखा दिया वही कांग्रेस को 125 सीट दे दिया । यद्द्पि भाजपा के सामने आज तक सपा ही है पर अभी तक सपा और उनके सहयोगी 125/130 सीट से ज्यादा पर बढते हुये नज़र नही आ रहे है पर थोडा व्यव्हार और रणनीति बदल कर उछाल लेने से भी इंकार नही किया जा सकता है । कितना ये उनके व्यहार और रणनीति परिवर्तन पर निर्भर है 
तीसरी  पार्टी बसपा है जिसकी नेता मायावती यदि पैसे की भूखी नही होती और धन वैभव तथा अहंकार से दूर रही होती और अपने मिशन के साथियो को दूर नही किया होता तथा काशीराम के रास्ते पर चलती रही होती तो आज देश की सबसे बडी ताकतवर नेता होती या सबसे बड़े 3/4 मे होती ।पर उनकी कमजोरियों और कर्मो ने उनकी लम्बे अर्से से भाजपा की सत्ता के सामने शरणागत कर दिया और लम्बे समय से दिल्ली मे बैठी वो केवल राजनीति की औपचारिकता निभाती हुयी दिख रही है । उनके कर्मो से उनका वोट ठगा हुआ मह्सूस कर रहा है ,फिर भी उनका वोट है ।इस चुनाव मे भी वो पुराने हथकंडो के साथ मिश्रा जी के कन्धे पर चढ़ कर चुनाव को बस जीवित रहने लायक लड़ना चाह्ती है या भाजपा की बैसाखी बन अपनी सुरक्षा और अपने भतीजे की राजनीति मे स्थापना तक के ही इरादे से उतरना चाह्ती है ये वक्त बतायेगा ।  फिर भी मायावती यदि इस चुनाव मे पैसे का लालच छोड कर और क्षेत्रो के सम्मानित लोगो को ढूढ कर टिकेट देती है और अपने खजाने का कुछ अंश लोगो के चुनाव लड़ने पर खर्च करती है तो वो 40 से ज्यादा सीट जीत सकती है और यदि ढर्रा पुराना ही रहता है तो 19 से भी नीचे ही जायेंगी और कितना नीचे इसकी समीक्षा कुछ समय बाद हो सकेगी ।
चौथी पार्टी कांग्रेस है जिसके लिये इस बार सबसे अच्छा अवसर था क्योकी वो 1989 से ही उत्तर प्रदेश सरकार से बाहर है और प्रियंका के रूप मे ये नया चेहरा उनके पास था पर या तो कांग्रेस का नेतृत्व किसी दबाव मे है या फिर मन से हार चुका है और इतना कुण्ठित हो गया है कि नये विचार और कार्यक्रम सोच ही नही पा रहा है । लोगो को जोडने मे कांग्रेस का विश्वास नही नही है बल्कि स्थापित काग्रेसी इस चक्कर मे रह्ते है की जो है उनको भी कैसे निकाला जाये की उनका एकछत्र राज रहे चाहे बंजर जमीन पर ही सही ।खुद राहुल गांधी पूरे परिवार की पूरी ताकत लगाने के बावजूद अपनी पारम्परिक सीट अमेठी हार चुके है और जब सोनिया जी या राहुल जीतते भी है तो अपने जिले की विधान सभा नही जीता पाते पर अभी ये परिवार स्वीकार नही कर पा रहा है की राजनीति कहा जा चुकी और आप करिश्मा करने वाले नही रहे । वैसे भी इधर कांग्रेस सिर्फ उन प्रदेशो मे चुनाव जीती जहा किसी दल से सीधी टक्कर हो और उस प्रदेश मे कांग्रेस का मजबूत नेता हो जिसने अपने प्रदेश मे अपनी साख कायम रखी हो । बंगाल मे शून्य पर आकर और तमिलनाडु केरल तथा असम मे पूरी ताकत और समय लगाकर भी दोनो कूछ हासिल नही कर सके पर अभी भी अपनी कमजोरियो दूर करने और जमीन की हकीकत समझने का कोई इरादा नही दिखता है ।शायद भाजपा और आरएसएस पर ही निगाह रखते तो कुछ तो कमजोरिया दूर कर सकते थे ।इसका क्या जवाब है कि अच्छे खासे पंजाब के नेतृत्व को कमजोर करने की क्या जरूरत थी । सिंधिया छोड सकते है महीनो से पता था पर क्यो नही रोक पाये ,सचिन पाइलट ने 5 साल मेहनत की पर उनकी उपेक्षा क्यो और क्यो कुछ फैसला नही ।मध्य प्रदेश में 28 सीटो का चुनाव था और सत्ता का फैसला होना था पर भाई बहन सहित पूरी पार्टी ने कमल नाथ को अकेला छोड दिया ।इतिहास ही याद कर लेते की 1978 मे सिर्फ एक सीट पर इन्दिरा जी ने कैसे गाव गाव पैदल नापा था और जिस गाव मे जहा जगह मिली रुक गई । सांकेतिक राजनीति का तजुर्बा तो हो चुका भट्टा और परसौल मे । जरा पन्ना पलट कर देख लेना चाहिए कि वो सब कर के कितना वोट मिला दोनो जगह । उत्तर प्रदेश में मे भी कही कांग्रेस इसी तरह चलती रही तो कही बंगाल ही न दोहरा दे और अब भी अपने रंगीन चश्मे उतार दे और राजनीतिक पर्यटन को छोडकर कर डट जाते पूर्णकालिक तौर पर और व्यवहारिक राजनीति कर ले तो शायद कुछ साख बच जाये ।वो सत्ता की तरफ जाने वाला रास्ता और समय तो पीछे छूट गया पर सम्मान बचा सकती है और 2024 के लिये बुनियाद रख सकती है ।
कुल मिलाकर पूरा माहौल भाजपा और योगी विरोधी होने के बावजूद आज की तारीख तक विरोध की अकर्मण्यता,सिद्धांतो से विचलन और धारदार राजनीति का अभाव तथा सुविचारित रणनीति का अभाव भाजपा को फिर मुकुट पहना सकता है ।ऊपर लोगो की जिन आशंकाओ का जिक्र किया गया है उनका जवाब देने और फैसलाकुन युद्द छेड़ने की जिम्मेदारी तो विपक्ष के नेताओ की है ।देखते है की 1989 का सिलसिला जारी रहता है और सत्ता बदलती है या 80 के दशक का कांग्रेस का इतिहास भाजपा दोहरा देती है । यदि विपक्ष रणनीतिक साझेदारी के साथ आरएसएस और भाजपा के धार्मिक और जातीय ट्रैप से बच कर फैसलाकुन लडाई लडने उतर सका तो भाजपा को 100 सीट भी नही मिलेगी और सत्ता परिवर्तन होगा और यदि यही ढर्रा रहा तो भाजपा 160 से 210 तक सीट जीतने मे कामयाब हो जाएगी सारी विपरीत स्थितियो के बावजूद भी । सवालो के जवाबो की प्रतीक्षा जनता को भी है और भविष्य के इतिहास को भी ।
डा सी पी राय 
स्वतंत्र राजनीतिक चिंतक 
और 
वरिष्ठ पत्रकार