संघर्ष को समर्पित एक राजनीतिक कबीर की फकीरी जिंदगी का नाम था ; राजनारायण
लोकबन्धु राजनारायण के लिए ये चार पंक्तियां दिशा निर्देशक का काम करती थी | तभी तो जहा देश की स्वतंत्रता के लिए नेता जी कुल चार बार जेल गए वही आज़ादी के बाद अपनों के शासन में कुल करीब १५ वर्ष जेल में बिताए | जब भी जहा भी उनको जनता का कष्ट दिखलाई पड़ता या आज़ादी के सपनो का खून होता दिखलाई पड़ता वही वो आन्दोलन का शंख बजा देते थे | इसी लिए आज के माहौल में में उनकी चर्चा और उनके संघर्षो की चर्चा और भी समीचीन हो जाती है जब लगता है की सत्ता निरंकुश हो रही है और विपक्ष नदारद दीखता है या किंकर्त्व्यवमूढ़ दीखता है या सी बी आई एयर इ डी नमक चीजों से डरा हुआ सहमा सा नजर आता है , तब सोचना पड़ता है की राजनारायण जी के पास कौन सी फ़ौज थी या ताकत थी जो लगातार सत्ता से सीधे टकराते रहे ,हारे भी और जीते भी पर परवाह नहीं किया बस कर्तव्य पथ पर चलते रहे लगातार तभी तो आज़ादी की लड़ाई से लेकर आपातकाल उनके संघर्ष की कहनियाँ ही पसरी हुयी है भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में |अगर हर आन्दोलन का तारीखवार वर्णन करूँगा और विस्तार में जाऊँगा तो किताब बन जाएगी इसलिए बस इशारतन ही जिक्र करूँगा यहाँ | वो मजदूरों का आन्दोलन हो उत्तर प्रदेश से लेकर आसनसोल तक जहा उन्होंने नक्सलवादियो का किला तोड़ते हुए समाजवादी संगठन खड़ा कर दिया था मजदूरों का | वो किसानो का आन्दोलन हो अदलपुरा से लेकर अरदाया तक या लखनऊ की धरती पर विशाल प्रदर्शन जिसमे ; किसान जागा पन्त भागा ; के नारे लगे थे ,वह किसान आन्दोलन रहा हो जिसमे राजनारायण जी को बुरी तरह पीट कर बंद कर दिया गया और आचार्य नरेन्द्र देव की मध्यस्थता से समझौता हुआ | १९५३ में गोरखपुर में रेल मजदूरों पर गोली चलने के खिलाफ आन्दोलन हो ,१९५४ में नहर के पानी का रेट बढ़ने पर आन्दोलन हो ,मिर्जापुर में मजदूर आन्दोलन हो ,५५ में गोरखपुर हो या या लखनऊ का छात्र आन्दोलन ,;;और बहुत महत्वपूर्ण १९५६ में जब वो हजारो हरिजनों को लेकर कशी विश्वनाथ मंदिर में घुस गए थे और तब संघियों ने तथा फासिस्ट ताकतों ने न सिर्फ हरिजनो के मदिर प्रवेश का विरोध किया बल्कि राजनारायण जी पर घातक हमला भी कर दिया था | १९५७ के सिबिल नाफ़रमानी आन्दोलन के संचालक बने ,बिक्रीकर के खिलाफ आन्दोलन ,बिहार में सोशलिस्ट पार्टी के आन्दोलन का सञ्चालन ,;;; स्वतंत्र भारत में जगह जगह लगी अंग्रेजो की मूर्ती के विरोध में बनारस में मूर्ती तोड़ने पर गिरफ्तार हुए और स्वतंत्र भारत की सरकार में इसके लिए १९ महीने की सजा और ४०० रूपये का जुरमाना हुआ वही से मूर्ती भंजन प्रथा शुरू हुयी तथा सरकार को बाध्य होकर सभी अंग्रेजो की मूर्तियाँ हटानी पड़ी और काशी में किंग एडवर्ड अस्पताल का नाम बदल कर शिवप्रसाद गुप्त अस्पताल हुआ ,१९५८ में खाद्य आन्दोलन ,और सम्पूनानन्द की सरकार में समितियों का बहिष्कार का फैसला ,१९६० में राष्ट्रव्यापी आन्दोलन के संचालक बनाये गए ..देश भर में घूम घूम कर आन्दोलन ,लाल बहदुर शास्त्री के निवास पर पर्दर्शन जैसे हजारो आन्दोलन और उसमे सिद्धांत के साथ साथ अपने शरीर को विरोध का इस कदर हथियार बना देना की तमाम बार की पिटाई से पैर टूटे ,सर टूटा ,और जेलों में रहते रहते तमाम बीमारियों ने पकड़ लिया |
[ राजनारायण जी के जन्म शताब्दी वर्ष पूर्ण होते ही आ गया ठीक ३८ दिन बाद ३१ दिसम्बर उनकी पुण्यतिथि का दिन , मुझे याद है १ जनवरी १९८७ का बनारस ,ऐसा लगता था की पूरा बनारस या तो सड़क पर है या छतो पर और घाट पर भी वही नज़ारा पूरी नदी में नावो में भरे हुए लोग और पूरा घाट भरा हुआ इतनी भीड़ मैंने नहीं देखा था अपनी जिंदगी में , लोगो का कहना था की मालवीय जी के लिए भी निकला था ऐसे ही बनारस और
तब मैंने लिखा था
= मिटटी ,मिटटी से यूँ मिली की सारा जहा रो पड़ा =]
तब मैंने लिखा था
= मिटटी ,मिटटी से यूँ मिली की सारा जहा रो पड़ा =]