शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

समर्पण

जो कुछ भी लिख सका हूं वो मेरे दादा जी स्व बाबू पतरु राय ,  पिताजी  स्व डा पारस नाथ राय , माता जी स्व जगदम्बा राय और पत्नी स्व मंजुला राय को समर्पित ।

गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

एक अभिमन्यु

अब तो घरों में खिड़कियां होती है पर पुराने जमाने में घर हो या किला उसमे तमाम झरोखे और रोशनदान होते थे जो रोशनी के काम आते थे तो ताक झांक करने के भी और जरूरत पड़ने पर हमला करने और बचाव करने के भी । जिंदगी भी एक तरह का घर ही तो है जिसमे आप आते है रोते हुए और जिससे आप जाते है तो रुलाते हुए । जिंदगी कितने टेढ़े मेढे रास्तों से गुजरती है हसाती भी है और रुलाती भी है । 
जिंदगी में कितने मौके आते है जब पहाड़ की चढ़ाई लगती है जिंदगी तो कभी पहाड़ सा बोझ लगती है जिंदगी , कभी खाई दिखलाई पड़ती है जिंदगी के अगले कदम पर तो कभी इतनी बड़ी नदी की तैर कर पार करना मुश्किल लगता है और तैरना हो नही आता हो तब तिनके का सहारा भी आकर्षित करता है । वैसे नरेश सक्सेना ने तो अपनी कविता में लिख दिया की " पुल पार होने से पुल पार होता नदी पार नही होती ,  नदी पार नही होती नदी में धसे बिना " ।पर कई जिंदगियां  नदी में धसी ही रह जाती है । पुल भी उनके लिए मृगतृष्णा होता है जिसपर पैर रखने की कोशिश में नदी में समा जाते है और कई बार तो कुछ लोगो को नदी नही नाले नसीब होते है जिसमे होती है सिर्फ कीचड़ या दलदल ।कीचड़ हुई और किसी ने बचा लिया तो नहा धोकर साफ होकर फिर इंसान से दिखने लगते है पर दलदल हुआ तो अस्तित्व ही विलीन हो जाता है उसमे ।
तो मैं बात तो झरोखे की कर रहा था । हा जिंदगी में भी कितने झरोखे होते है रंग बिरंगे और बदरंग भी । इन खरोखो में ही न जाने कितने पात्र नजर आते है ।कुछ युधिष्ठिर तो कुछ धृतराष्ट्र , कुछ कृष्ण तो कुछ भीष्म और  कर्ण भी , कुछ द्रोण तो कुछ विदुर, कुछ दुर्योधन तो कुछ गंधारी , कोई द्रौपदी तो कोई अभिमन्यु भी ।।
जिदंगी के महाभारत में सबसे ज्यादा निरीह तो अभिमन्यु दिखता है जो सीख ही नही पाया चक्रव्यूह के सब दरवाजे तोड़ पाना और फिर भी वक्त ने उसे उसी चक्रव्यूह में फंसा दिया।
जी हा ये किस्सा भी एक अभिमन्यु का ही है जो थोड़ा बड़ा होते ही लड़ने लगा अपने बचपन को जीने के लिए अपनो से , अपनी जिंदगी के लिए अपनो से और अपनो ने भरपूर प्रताड़ित भी किया और मनचाहा थोपा भी । फिर शुरू हो गई जंग जिंदगी की तो लड़ाई दो मोर्चो पर शुरू हो गई एक अपनो से को जिंदगी की लड़ाई के तरीके और लक्ष्य के खिलाफ थे और गैरो से जो प्रयोग तो कर लेना चाहते थे और चुरा लेना चाहते थे अपना वक्त , धन और पुरुषार्थ और बदले में सिर्फ धोखा देना ही था मन । वो अभिमन्यु तो लड़ रहा था जिनसे उनको जनता था की उनसे लड़ना है मारना है या मरना है पर ये अभिमन्यु तो लड़ नही रहा था बल्कि अपना मान कर पूर्ण समर्पण से योगदान कर रहा था की अपने तरक्की करे और हर मुसीबत उनसे दूर रहे । छल उस अभिमन्यु के साथ हुआ पर वो सामने खड़े घोषित दुश्मनों ने किया लेकिन मेरी पुस्तक के पात्र अभिमन्यु के साथ तो हर तरह का छल तथाकथित अपनो ने किया ।
उस महाभारत में शरशैया पर पड़े भीष्म शायद अतीत में झांक कर तौल रहे थे सही और गलत और अंतिम उपदेश दे रहे थे पर इस महाभारत में तो अभिमन्यु घायल पड़ा है मन और आत्मा से और बस याद कर रहा है उस काले अध्याय को जिसने उसको घायल कर दिया है बुरी तरह की फिर से उठने लायक भी नहीं छोड़ा है ।
इस पुस्तक में अभिमन्यु की जिदंगी के बस कुछ अध्याय है बाकी आगे की पुस्तकों में आते रहेंगे । ये लिख इसलिए दिया गया की आगे शायद अन्य किसीको अभिमन्यु बनाने से बचा सके ।
किसी बच्चे का सैकड़ों बार सिर्फ इसलिए पिटना की बाल काटते वक्त नाई ने उसकी चुटिया क्यों काट दिया , या इसलिए की राम की स्पेलिंग क्या होती है आर ए एम ए या आर ए एएम और भ्रमित कर कर के पीटना या इस बात पर पिटना की हिंदी क्यों पढ़ रहे हो तो हिंदी या गणित क्यों नहीं पढ़ रहे हो या बाकी बच्चो के साथ इतनी देर तक क्यों खेल रहे थे और इससे शुरू हुई पिटाई जिंदगी भर चक्रव्यूह में घेर घेर कर इस अभिमन्यु की पिटाई ही करती रही जिंदगी । 
राजनीति के बारे में कहा जाता है की ये धोखे का कारोबार है पर अभिमन्यु ऐसा नहीं जानता था ।समझौते भी नही करना जानता था अभिमन्यु और धंस गया राजनीति की कीचड़ में और वो भी धोखे को ही राजनीति समझने वालो के चंगुल में । कितना मुस्किल होता है किसी को बड़ा भाई बना कर उसके लिए समर्पित हो जाना और कितना आसान होता है छोटा भाई बना कर हर पर उसकी हत्या करते रहना ।
कितना आसान था अभिमन्यु के लिए किसी भी और काम में सफल हो जाना या उतनी मेहनत और पूंजी si कोई भी कारोबार खड़ा कर लेना ? उसके साथ के लोगो ने क्या क्या सफलताएं नही हासिल कर लिया बहुत कम प्रयास से पर राजनीति के धोखे ही किस्मत में लिखे हो और इतने बड़े कलाकारों से पाला पड़ जाए जो लगातार बहुत अपना बने रहे हो बड़ा भाई  बन कर और दिल में लगातार साजिश रही हो और जातिवादी घृणा तो कोई कर भी क्या सकता था । 

परिचय

डा चंद्र प्रकाश राय ( डा सी पी राय) का जन्म 1955 में आजमगढ़ के मध्य ग्राम में हुआ था । आपने एम ए ( राजनीति शास्त्र ),   एल एल बी,   स्नातकोत्तर डिप्लोमा ( समूह संचार ),   एम एड ,  पी एच डी ( राजनीति शास्त्र) , पी एच डी ( शिक्षा शास्त्र ) किया है । आप आगरा के बी आर अम्बेडकर विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे है । छात्र जीवन से ही आप के लेख पत्र पत्रिकाओं में छपते रहे है । आप की एक शोध पुस्तक " संसद और विपक्ष " को संसदीय पुस्तक पुरस्कार मिल चुका है ।आप की " इतिहास के आईने में डा लोहिया" , "समाजवाद का क ख ग," तथा काव्य संग्रह " यथार्थ के आसपास " नमक पुस्तके प्रकाशित हो चुकी है । 
आप समाजवादी पार्टी के संस्थापक महामंत्री रहे है और उत्तर प्रदेश सरकार में दो बार राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त रहा है तो तीन बार इस दर्ज को ठुकरा कर भी चर्चा में रहे है । 
आप का विश्वास है की समाज और देश की विसंगतियों से कलम तथा कर्म से जूझना हर जागरूक नागरिक की जिम्मेदारी है । कलम को हथियार बना कर लड़ते रहना होगा । 

मंगलवार, 26 दिसंबर 2023

में कवि नही हूं बस कुछ लिख देता हूं

                       मै कभी भी साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा ,ना हिंदी साहित्य का ,ना अंग्रेजी साहित्य का |मुझे नहीं पता है लेखन का कोई नियम |ना कोई छंद ना व्याकरण, ना दोहा ,ना गजल ,ना अकविता सचमुच किसी विधा का ज्ञान नहीं है मुझे | साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा अतः शब्द भंडार भी नहीं है मेरे पास | पर शरीर पाया है तो उसके अंदर एक दिल भी पाया है | बस यही दिल है जो कुछ कह देता है कभी कभी |
                      इस दिल से जो निकलता है  ,बस उसे अपने अल्प ज्ञान और टूटे फूटे शब्दों में उतार देता हूँ मै कागज पर | कुछ लोग इसी को कविता नाम दे देते है | पता नहीं ये कविता है या नहीं, उसकी कसौटी पर थोडा भी खरा उतरती है या नहीं ,मै बिलकुल नहीं जानता | पर जब देश एक अँधेरे दौर से गुजर रहा था तो मंचों पर लोग मुझे सुन कर ताली  बजा ही देते थे और मेरी कविता { तुम कहा थे जब उन्हें फांसी पर चढ़ाया गया }लोगो को आक्रोशित करती थी |" सीमा पर जवान अपना खून बहाए पर भारत रत्न मिलता है प्रधानमंत्री को " सुन कर तब के नौजवान कई बार कुछ ज्यादा ही उत्तेजित हो जाते थे |
                   मेरा दिल मेरे बस में नहीं रहता है | तभी तो जिनके लिए गला फाड़ फाड़ कर प्रचार किया था ,उन्हें आये हुए कुछ महीने भी नहीं हुए थे की दिल ने [ राजघाट  की कसम ] लिखने पर मजबूर कर दिया और अपने लोगो का बुरा बना दिया | "आज का समाजवाद" भी बहुत से अपनों के कोप का कारण बन गया | पर क्या करूँ दिल है की मानता ही नहीं |जब जहा कुछ भी चुभता है ,कुछ गलत होता दिखता है दिल मजबूर कर देता है कुछ कहने के लिए |या दिल को जब भी दर्द होता है वो फूट पड़ता है शब्दों में |
                   मै ऐसा नहीं मानता की मेरा लिखा कोई बड़ा बदलाव कर देगा, पर उम्मीद पर दुनिया टिकी है कि शायद एक एक कर बड़ी फ़ौज खड़ी हो जाएगी  | तब एक दिन आयेगा की दुनिया उन तमाम चीजो से उबर जाएगी जो दिल को चुभता है |केवल राजनैतिक और सामाजिक हालात पर ही दर्द नहीं होता बल्कि जब आग से जल कर तेईस लोग ख़त्म हो जाते है या जब जापान में विध्वंस के हालात पैदा होते है तब भी दिल उछाल मार ही देता है |कही दंगा हो तो" बच्चे है ना "के माध्यम से तो "दरवाजे की कुण्डी खटकी मत खोलो दरवाजा जी 'के द्वारा समाज की गन्दगी को दिल इंगित कर ही बैठता है |"कमल हँसता था ,अब रो  रहा है कमल' बहुत लोगो को क्रोधित ही नहीं कर गया बल्कि हिंसक होने तक पहुंचा दिया एक खास विचारधारा के लोगो को | मुझे और मेरे दिल को नहीं लगता की सभी का खुश होना जरूरी है | कुछ लोग मोम का दिल लेकिन पत्थर के विचार लेकर पैदा होते है और जब पत्थर चलेगा तो कुछ खिड़कियाँ भी टूटेंगी और अगर पूरा घर ही शीशे का है तो वह भी टूटेगा |लोगो के तिलस्मी टूटे तो टूटें मै अपना दिल टूटते नहीं देख सकता |अगर कोई घर की सफाई करेगा तो हाथ तो गंदे होंगे ही और हाथ ही क्यों चेहरे पर भी गन्दगी गिरेगी |जाले गिरेंगे तो चिपक भी जायेंगे और बहुत देर तक आप को गन्दा बनाये रखेंगे और लोगो को आप का गन्दा चेहरा दिखलाई भी पड़ता रहेगा |लेकिन जो गन्दगी से ही डर जायेगा उसे सफाई का सोचना भी नहीं चाहिए | घर की सफाई में बहुत कुछ बाहर फेंकना पड़ता है और बहुत कुछ नया अंदर लाना होता है |जब इतना परिवर्तन होगा तो बदलाव भी देखेगा और बदले भी दिख सकते है |
                       जब दिल मोम का हो तो वह किसी भी दर्द से प्रभावित होगा| वह दर्द अपने आस पास का हो या अपने अंदर का हो । मां अपनी हो या अपने बच्चो की या चिड़िया की मां तो मां होती है तो पिता भी किसी पेड़ से कम कहा होते है जो देता है छाया और फल भी और आखिर में क्या पता ईंधन ही बन जाए । बेतिया तो जीवन में जीवन होती है तो जो कही और से आता है जीवन में और जीवन बन जाता है वो भी कैसे छूट सकता है कलम से ।जब औरत घायल हो रही हो चारो तरफ तब ऐसा कैसे हो सकता है की मां बहन बेटी और बीबी को प्यार करने वाला उसे अनदेखा कर दे और तब लिखा जाता है की क्या कोई औरत हिमालय है जिसपर चढ़ जाना चाहते हो या दुश्मन का किला जिसपर विजय पा लेना चाहते हो और औरत को देख कर आंख में नाखून कब उगने शुरू हुए । गांव हमारी जिंदगी से कैसे निकल सकता है जब आप वहा पैदा हुए और रहे हो ।बापू के देश में जब बापू को ही भुलाया जा रहा हो तो कलम का कर्तव्य हो जाता है की देश को भूलने दे लिख जाता है बापू फिर मत आना और राम के देश में जब राम के नाम पर राजनीति होने लगे तो लिखना ही पड़ता है कि राम मत आना । वो हिंदू मुसलमान का सवाल हो या कमल के आसपास का कीचड़ कुछ भी तो नही छूटता है । वो नदी हो ,वातावरण हों, वो ईश्वर हो या किसी वक्त की ईश्वर बन जाने की इच्छा सब कलम के दायरे में आ हो जाते है ।मुनादी हो गुलामी मान लेने की ,मुनादी हो कलम को फेक देने की ,मुनादी हो सत्ता का मौन गुलाम बन जाने की ,मुनादी हो दुनिया एक रंग की हो और एक ही स्वर में बोले तो कवि का विद्रोह तो स्वाभाविक हो जाता है ।आत्महत्या जैसा कायराना कदम भी मुझे उद्वेलित कर देता है ।कवि खुद के जमीर को बेचने बाजार में खड़ा हो जाता है बस चुनौती के लिए पर इस मुनादी पर भी सन्नाटा ही दिखता है ,कोई ग्राहक नही होता ईमान का । युद्ध की त्रासदी हो या पीठ पर पिट्ठू लिए भटकते नौजवान कवि की नजर से कुछ भी नही बचता है । नदी में तैरती लाशे हो या कोराेना की त्रासदी किसी से भी कैसे आंखे मूंद सकता है कोई कवि । कृष्ण से भी शिकायत दर्ज करवा ही देता हूं की कहा हो जब एक और गीता उपदेश की और बड़े महाभारत की जरूरत है ।
                       खैर जो भी है अच्छा या बुरा ,हाजिर है पत्थर खाने और पत्थर मारने वाले दोनों के लिए और दोनों से अलग तठस्थ लोगो के लिए भी |मेरी काव्य यात्रा प्रारंभ ही नहीं होती अगर मेरे स्वर्गीय पिता डॉ पारस नाथ राय  जो बहुत लोकप्रिय शिक्षक भी थे उन्होंने मेरे अंदर साहित्य के प्रति रुझान नहीं पैदा किया होता और मेरी माँ का आशीर्वाद नहीं होता  |उस मेरे महान स्वर्गीय दादा जी जो गाव के थे गाँव में ही रहे पर उनकी बाते किसी विद्वान से कम नहीं थी की प्रेरणा भी मेरा रास्ता बनाती गयी | मेरी स्वर्गीय पत्नी जो बहुत विदुषी थी अच्छी आलोचक ,अच्छी सलाहकार ,सभी तरह के साहित्य में पूरी रूचि रखने वाली सचमुच पूर्ण पत्नी और पूर्ण प्रेमिका पूर्ण दोस्त उनका योगदान तो अकथनीय है |यदि श्री सोम ठाकुर, स्वर्गीय शैल चतुर्वेदी और स्वर्गीय कुलदीप दुबे जैसे बड़े कवियों ने अवसर नहीं दिया होता और प्रेरणा नहीं दी होती तो भी यह यात्रा मुश्किल होती |मै इन सभी का ऋणी हूँ तो साथ साथ काव्ययात्रा प्रारंभ करने वाले साथियों का भी आभारी हूँ |मेरे बच्चे नेहा ,जूही और सिद्धार्थ मेरे श्रोता भी है और सहयोगी भी |मै उन तमाम लोगो का आभारी हूँ जिन्होंने ने किसी भी रूप में मुझे प्रेरणा दिया या सहयोग किया |मै आभारी हूँ देश के प्रसिद्ध कवि पूर्व सांसद उदय प्रताप जी का जिन्होंने मेरी कुछ कविताएं सुन कर मुझे प्रेरित किया संग्रह प्रकाशन हेतु । मैं आभारी हूं देश के जानिए साहित्यकार कवि नरेश सक्सेना जी का जिनकी शिक्षा बहुत ज्यादा काम की है तथा वो यूं ही लिख गई पक्तियो को कविता बनने में मददगार साबित हुई और होती रहेगी । मैं। आभारी हूं जनसंदेश टाइम्स के प्रधान संपादक और कवि भाई सुभाष राय का जिनके अत्यधिक सहयोग से ही मेरे शब्द इस रूप में आ पाए की आज एक संग्रह को शक्ल पी सके ।
                          मेरे गुरुजन और मेरे सभी दोस्त तथा वे सभी लोग जिनका मै यहाँ जिक्र नहीं कर पा रहा हूँ ,लेकिन जिनके योग दान को नाकारा नहीं जा सकता है ,मै उन सभी का भी आभारी हूँ |अब ये शब्द यात्रा आप सभी के सामने है |आप सभी के सुझाव और सहयोग से मुझे बल मिलेगा |आशा ही नहीं बल्कि विश्वास है कि आप सभी का आशीर्वाद मिलेगा जरूर मिलेगा और मै अपनी यह कंटकपूर्ण यात्रा जब तक सांसें साथ देगी जारी रख सकूँगा | अंत में मै आभारी हूँ श्री आलोक शर्मा जी का और उनके लोकमित्र प्रकाशन का जिन्होंने मेरा संग्रह प्रकाशित किया | जो भी लिखा है मेरे स्वर्गीय दादा जी,स्वर्गीय पिता जी, स्वर्गीय पत्नी  और अपनी माँ को समर्पित है |
 
                                                                                                                     डॉ सी .पी .राय 
                                                                                                                   १३/१ एच आइ जी                                                   फ्लेट्स
                                                                                                                     संजय प्लेस, आगरा
                                                                                                                   9412254400,                                                     8979366377
                                                                                                                                    cprai1955@yahoo.co.in
                                                                                         
                                                                                                             

रविवार, 24 दिसंबर 2023

1991_मंडलीय_सम्मेलन_और_14_लाख_की_थैली

#जिंदगी_के_झरोखे_से 

#1991_मंडलीय_सम्मेलन_और_14_लाख_की_थैली 

बात 1991 के चुनाव के बाद की है पता नही वो घटना अभी तक मैने लिखा या नही जब रात भर चुनाव परिणाम देखने के बाद मैं सुबह ही मुलायम सिंह यादव जी के घर पहुचा था और इतने बुरे परिणाम से वो बेचैन थे ,जबकी पहले ही दिल्ली से लौटते हुये शिवपाल जी कर घर पर उन्हे मैं ऐसे परिणाम की आशंका जाता चुका था प्रदेश का चुनाव देखने के कारण पर सारे अधिकारी और इंटेलीजेंस एजेंसियां उन्हे 125 से 150 तक की रिपोर्ट दे रही थी ।
केवल 29 एम एल ए और चंद्रशेखर जी समेत केवल 4 एम पी सीट सत्ता मे रहते उनको विचलित कर गई थी ।
मिलते ही बोले कि अयोध्या के कारण ये तो सारी जनता नाराज हो गई है इत्यादि । मैने कहा कि छोटा हूँ पर एक बात कहना चाहता हूँ कि अब हमे इसी स्टैंड पर कायम रहना चाहिये । आप ने कुछ बुरा नही किया बल्की मुख्यमंत्री होने के कारण संविधान की रक्षा किया है और उस पर आप को गर्व होना चाहिये । ये ठीक है की संघ अभी जहरीला प्रचार कर कामयाब हो गया पर कल जब लोग समझेंगे की देश तो संविधान और कानून से ही चल सकता है न कि दंगो से तो यही प्रदेश आप को फिर वापस लाएगा ,और हम दोनो चाय पीने बैठ गये और उसी समय ये भी तय हुआ की मात्र 7 दिन मे चुनाव लड़े विधनसभा के 425 और लोक सभा के 85 लोगो की बैठक बुला लिया जाये (इसका किस्सा अलग से ) ।कल्याण सिंह की सरकार बन गई थी ।
पर सरकार जाने के बाद बडा संकट था और पार्टी चलाने मे दिक्कत हो रही थी क्योकि इस मुख्यमंत्री काल मे मुलायम सिंह जी ने पैसे के बारे मे सोचा ही नही था और जहा तक मुझे पता है सिर्फ एक मामले मे ओम प्रकाश चौटाला ने कुछ दिया था जो दिल्ली से टी सीरीज कैसेट के डिब्बो मे ले जाया गया था और जो आया भी वो चुनाव मे खर्च हो गया था । दो बार तो त्योहार के मौके पर भी हम दफ्तर के स्टाफ को तन्ख्वाह नही दे पाये तब मैने तपन दादा को कुछ रुपए दिये की वो जगजीवन और शरमा इत्यादि बराबर बराबर बांट ले और त्योहार मना ले ,तपन अब बुजर्ग हो गये है पर है और जगजीवन तो आज बहुत रईस भी है और एम एल सी भी । इसी तरह मुलायम सिंह जी के घर का फ़ोन कट गया और कई दिन बाद जुड़ा तब एक दिन मैने महामंत्री के रूप मे लोगो का आह्वान कर दिया की जितना मन हो चाहे 5/10 रुपया ही सही मुलायम सिंह यादव जी को मनी ऑर्डर करे ।जो भी पहुचा मैने पूछा नही ।
2 महीने बाद ही मुलायम सिंह यादव जी एक सामाजिक कार्यक्रम के लिये आगरा आये और जैसा की हमेशा होता था कि अन्त मे प्रेस से मुलाकात मेरे निवास पर होती थी । उस दिन भी हुयी ।
प्रेस के बाद इटावा जाना था तो बोले की आप भी चलिये रास्ते मे बात करते चलेंगे और आज ही ट्रेन पकड़ कर लखनऊ जाना है तो आप उसके बाद वापस आ जाईयेगा ,ऐसा अक्सर ही होता था उस दौर मे । मुझे ऐसा याद आता है कि उस दिन देश के जाने माने कवि और हमारे सांसद उदय प्रताप जी भी साथ थे जिन्होने बाद मे मुझसे शिकायत किया था कि रास्ते भर आप दोनो ही बात करते रहे और मैं तो महज श्रोता बना रहा ।
हम लोग इटावा सिचाई विभाग के डाक बंगला पहुचे जहा शायद मुलायम सिंह यादव जी के आने की खबर नही दी गई थी तो जिस सुईट मे ये रुकते थे पुलिस के किसी डी आई जी को आवंटित हो गया था । मैने वहा के व्यवस्थापक को हड़काया कि आवंटन किसी का हो पर जब प्रोटोकोल मे बडा व्यक्ति आ जाता है तो वो आवंटन अपने आप निरस्त हो जाता है ।खैर डरते डरते की साहब मेरे खिलाफ कुछ न हो जाये उसने कमरा खोल दिया ।मुलायम सिंह जी अंदर गये और बस बाथरूम होकर बाहर आ गये कि अच्छा मौसम है ,बाहर पार्क के चबूतरे पर बैठते है जबकी जून आखिर या जुलाई का आरम्भ था और तेज गर्मी थी ।
खैर हम लोग वही बैठ गये । मुलायम सिंह यादव जी का मानना था को कम से कम एक साल चुपचाप आराम किया जाये और राजनीतिक गतिविधिया बंद रखा जाये क्योकि अभी कही भी निकलने पर जनता का गुस्सा झेलना पड़ सकता है ।
मैने कहा की मैं इस बात से सहमत नही हूँ और वही मैने बीजेपी तथा आरएसएस के गढ आगरा से ही तत्काल कार्यक्रम शुरु करने को आमंत्रित किया । वो सहमत नही थे पर मेरे जोर देने पर मान गये की प्रदेश कार्यकारिणी और वरिष्ठ नेताओ की बैठक कर इसपर बिचार हो जाये तो मैने कहा की देर क्यो हो तत्काल बुला लिया जाये और शायद एक हफ्ते बाद ही वो बैठक बुला ली गई लोहिया ट्रस्ट के हाल मे ।वहां मैने सबसे पहले अपनी बात रखा और तर्क की क्यो तत्काल बाहर निकल कर सक्रिय हुआ जाये और आगरा से ही क्यो । तब कुछ लोगो ने कहा की आगरा मे पार्टी नही है और पार्टी का कोर वोटर नही है कार्यक्रम फ़ेल हो सकता है तब मैने आश्वस्त किया कि आगरा मंडल का कार्यकर्ता सम्मेलन रखा जाये और बाकी सब मुझ पर छोड दिया जाये और उसी मे मैने प्रस्ताव रख दिया कि पार्टी चलाने के लिये 5 से 10 लाख तक की थैली भेंट करने की कोशिश भी की जाये और कार्यक्रम तय हो गया सम्भवतः अगस्त की कोई तारीख तय हुयी ,हम लोग मई अन्त मे चुनाव हारे थे ।
मैं वापस आगरा आया और सबसे पहले कागज पर योजना और अनुमानित बजट तथा अपना कार्यक्रम बनाया और दूसरे दिन ही आगरा का सर्किट हाउस तथा सूर सदन हाल बुक कर दिया तथा बाहर पार्किंग मे लगाने के लिये पंडाल और बैठने का इन्तजाम की भीड ज्यादा हो तो अव्यवस्था न हो और अपने एक दोस्त के बात कर गैलरी से बाहर के पंडाल तक देश के किसी भी कार्यक्रम मे पहली बार क्लोस सर्किट टीवी का इस्तेमाल की व्यव्स्था भी । शाम को आगरा मे जो थोडी बहुत पार्टी थी जनता दल टूटने के बाद जिसमे अधिकतर मेरे द्वारा जोड़े गये 8/10 लडके थे उनकी मीटिंग किया और सबको काम अभी से बता दिया । अपने एक दोस्त के होटल मे आने वाले लोगो के लिये 5000 पैकेट खाना बनाने की बात तय कर दिया ।
आगरा के अन्य नेताओ से कह दिया की मुलायम सिंह के आगरा आने से लेकर जाने तक ठहरना , पूरे सम्मेलन का खाना, शहर भर मे स्वागत द्वार और स्वागत , वाल राइटिंग, गाडियाँ इत्यादि सब मेरी जिम्मेदारी और बाकी लोग थैली के लिये धन एकत्र करे ।
इसके बाद मैं मंडल भर के सभी जिलो के दौरे पर निकल गया सभी जिला अध्यक्षो को बता कर और तब तक मंडल बटा नही था अलीगढ़ भी इसी मे था । सभी जिलो मे मैं सम्मेलन और थैली के लिये माहौल बनाने मे कामयाब रहा ।
सम्मेलन से दो दिन पहले से पूरे महात्मा गांधी मार्ग पर वाल राइटिंग मैने खुद भी किया ,खम्भो पर चढ़ चढ़ कर झंडे और बैनर मैने खुद भी बाधे ताकी कार्यकर्ताओ मे उत्साह रहे क्योकि वो धन का नही जन का जमाना था और राजनीती के ये सब काम कार्यकर्ता ही करते थे और हम जैसे लोग तो छात्र राजनीति से ही करते आ रहे थे ।
कार्यक्रम के एक दिन पहले कई दिनो से आता मुलायम सिंह जी का फ़ोन फिर आया कि अभी भी कार्यक्रम रद्द कर दीजिये फेल जो जायेगा और मैने कहा की आप ट्रेन पकड़ लो रात को सुबह मैं स्टेशन पर मिलूंगा ।
उस दिन सुबह 4 बजे मैने कार्यक्रम स्थल की व्यवस्थाये देखा और खुद मंच के पीछे का बडा बैनर टंगवाया और फिर स्टेशन रवाना हो गया । मुलायम सिंह जी और साथ मे आज़म खान साहब आये थे । अपनी योजना के अनुसार पहले स्टेशन के सामने किले के गेट पर अम्बेडकर मैदान मे बाबा साहेब अम्बेडकर की मूर्ति पर इन लोगो से माल्यार्पण करवाया और फिर सर्किट हाऊस पहुचा कर ये कह कर घर आ गया कि आप लोग तैयार हो जाइये और लोगो से मिलिये 10 बजे  निकलेंगे हम लोग ।
घर आया थोडी देर लेटा पर नीद कहा तो उठ कर नहा धोकर तैयार हो गया और 9,45 पर फिर सर्किट हाऊस पहुच गया ।
हम लोग बड़े काफिले के साथ वहाँ से निकले और महत्मा गांधी तथा अन्य महापुरुषो की मूर्तियो पर माल्यार्पण करते हुये काफिला महात्मा गांधी मार्ग पर निकला जिसपर समाज के सभी समाजो तथा धर्मो की तरफ से अलग अलग चौराहो पर स्वागत द्वार पर स्वागत हुआ तथा दो स्थानो पर मुलायम सिंह जी को सिक्को से तौला भी गया और जब हम लोग कार्यक्रम स्थल पर पहुचे तो बाहर ही बडा हुजूम था । अंदर गये तो एक एक सीट पर किसी तरह अटक कर दो दो लोग बैठे थे और सारी सीढियां ही नही बल्की मंच के सामने का खाली स्थान भी भरा था और मंच पर भी तिल रखने को जगह नही थी क्योकि सारे पूर्व और वर्तमान सांसद , विधायक , सभी प्रमुख पदाधिकारी तथा अध्यक्ष इत्यादि मंच पर आ गये थे और मेरे तथा पड़ोस मे रहने वालो के बच्चे भी जबकी मेरे प्रोफेसर पिता तथा पत्नी इत्यादि भी नीचे कार्यकर्ताओ मे बैठे थे ।
दो बात का जरूर उल्लेख करना चाहूँगा कि  मैने अपने कार्यकर्ताओ से कहा था कि जिसकी जहा जिम्मेदारी है वही रहेगा यहा तक की मुलायम सिंह भी सामने आ जाये तो नही हिलना है और बाद मे मैं सबको मिलवाउंगा और साथ फोटो भी करवाउंगा , दूसरा मैने ऐसी व्यव्स्था किया था कि पानी के लिये बस इशारा करिए आप तक पहुच जायेगा और खाने के समय भी सब अपनी जगह ही रहे वही अधिक से अधिक 15 मिनट मे सबको खाना और पानी मिल जायेगा और वही हुआ भी किसी कार्यक्रता ने अपना काम नही छोडा और सारा वितरण मेरी योजना अनुसार ही हो गया ।
मुलायम सिंह जी चाहते थे की अपने स्वागत भाषण और राजनैतिक भाषण के बाद कार्यक्रम का संचालन मैं ही करू पर मेरी ये कमी है की कोई जिम्मेदारी लेने के बाद उसके हर पहलू पर निगाह रखना तथा समय पर व्यवस्थित रूप से चीजो करवा लेना मेरी बेचैनी मे शामिल रहता है इसलिए भाषण के बाद और पूरे कार्यक्रम का ब्योरा देने के बाद मैने पूर्व सिचाई मंत्री बाबू राम यादव से संचालन का आग्रह किया और फिर बाकी सब व्यवस्थित करने मे लग गया जिसका जिक्र ही अखबारो ने किया की सी पी राय मंच पर रहने के बजाय लगातार भाग दौड करते रहे ,करता भी क्यो नही कोई बडी और प्रशिक्षित तथा संपन्न पार्टी तो थी नही ,साधन विहीन ,कमजोर पार्टी थी और आगरा मे सब नये नौजवान थे मेरे जोड़े हुये तो लगता था कही परेशान न हो जाये ।
हा दो दिन पहले लगातार 2/3 घंटे बैठ कर मैने राजनीतिक प्रस्ताव , आर्थिक प्रस्ताव इत्यादि लिख कर प्रिंट करने भेज दिया था और फ़ाईल और कार्यक्रम के पहले वाली रात कई लोग फाइल बनाने मे लगे रहे मेरे घर के बाहर बनी झोपड़ी मे बैठ कर जिसमे कुछ लोग बाद मे बहुत महत्वपूर्ण हो गये और मेरे प्रोफेसर पिता रात को उन सभी को बना बना कर ट्रे भर भर चाय पिलाते रहे और साथ बैठ काम भी करवाते रहे और घर के अंदर मेरी पत्नी और बच्चे भी क्योकि 5000 फाइल बननी थी ।
कार्यक्रम के प्रारंभिक औपचारिकताओ के बाद थैली भेंट होनी शुरु हुयी । वादा किया था कि 10 लाख की कोशिश होगी पर 5 तो होगा ही और भेट किया सब लोगो ने मिल कर 14 लाख जिसके लिये मैने पहले खरीदी अटैची जिसकी दुकान पास ही थी वापस भेज कर बडी अटैची मंगवाया और मथुरा के पंडित राधेश्याम शर्मा ने 50 ग्राम सोना भेट किया ।
दिनभर तमाम नेताओ का भाषण हुआ और अन्त मे मुलायम सिंह जी का नम्बर आया ।वो बहुत भावुक हो गये थे ऐसे स्वागत और कार्यक्रम से तो बोले कि मैं पहले भी कई बार आगरा आया हूँ , चौ चरण सिंह के साथ भी आया जब तीन विधायक थे तो कार्यक्रम रतन मुनी जैन इंटर कालेज मे हुआ था । मैं कल तक सी पी राय से कहता रहा की कैन्सिल कर दीजिये पर इनका आत्मविश्वास था और बोले की बस आप आ जाइये और आज सर्किट हाऊस से यहा तक हर चौराहे पर स्वागत हुआ । यहा भी इतनी भीड हो गई है को अंदर ,बाहर गैलरी और उसके बाहर का पंडाल भरा है और पहली बार मै ये देख रहा हूँ की बाहर वाले लोग भी सब लोग बाहर लगे टीवी पर सब कुछ देख और सुन रहे है । सी पी राय ने उतने अच्छे सब प्रस्ताव लिखे है और बहुत अच्छा सारा इन्तजाम किया है और अनुशासन के साथ सारा इन्तजाम ।
मेरी निगाह मे  यह कार्यकम भीड से ,प्रस्ताव से अनुशासन से , व्यव्स्था से और राजनीती के लिये सर्वश्रेष्ठ कार्यक्रम है और इसका श्रेय केवल सी पी राय को जाता है ।मैने सोचा था 5 लाख नही तो कुछ तो मिलेगा ही पार्टी चलाने को पर यहा तो 5 क्या 14 लाख रुपया और सोना भी मिला है । सी पी राय ने ये कैसे सम्भव किया इनसे बाद मे पूछूंगा पर पार्टी आज से फिर चल गयी और इसके लिये सी पी राय को याद रखा जायेगा ।
नेता के सामने भीड हो और सब अच्छा हो तो जोश तो आ ही जाता है ।जबरदस्त भाषण दिया मुलायम सिंह जी ने और उनके पहले आज़म खान साहब ने भी । काफी बडी संख्या मे नेता लोग बोले ।
सम्मेलन के बाद मैने सूर सदन के बाहर पोर्च से सार्वजनिक सभा को संबोधित करने का इन्तजाम पहले से ही कर रखा था तो मुलायम सिंह को पोर्च पर ले गया । ये बात उनको पहले से नही बताया था ।शाम करीब 5 बज रहा था एम जी रोड पर भीड का समय था और सभा के कारण बडा जाम लग गया ।
सभा के बाद मेरे निवास पर प्रेस से वार्ता और भोजन था । अपने निवास पर मैने कार्यकर्ताओ से उनको मिलवाया ।मुलायम सिंह जी गदगद थे और मेरे सभी कार्यकर्ता भी पर जब स्टेशन उनको छोड़ने गया अपने निवास से तब तक मेरे गले की आवाज मेरा साथ छोड चुकी थी पर तसल्ली इतनी थी की पार्टी को मैने फिर से रफ्तार दे दिया था धन से भी और आत्मविश्वास से भी और खासकर मुलायम सिंह जी का आत्मविश्वास लौट आया था जो बहुत जरूरी था और फिर हम लोग निकल लिये पूरे प्रदेश मे ।
मैने तो बस इमानदारी से अपना कर्तव्य निभाया था ।
कुछ छूट गया होगा तो वो आत्मकथा मे मिलेगा ।

शनिवार, 23 दिसंबर 2023

जेल से छूटा था तभी

#ज़िंदगी_के_झरोखे_से 

42/43 साल पुरानी याद जब आंदोलन मे लाठीचार्ज के बाद  गिरफ़्तार होकर जेल गए और समर्थन में स्वतंत्रता सेनानी पूर्व सांसद कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया जेल में आ गए तो बरेली से कुँ सर्वराज सिंह भी । गिरफ़्तारी के अगले ही दिन राज नारायण जी और उनके आने पर प्रशासन तथा पुलिस के आला अफ़सर पहले ही हाज़िर और तुरंत रिहा करने को तैयार पर राज नारायण जी चाहते थे की कुछ दिन जेल में रहा जाए और राजनीतिक क्लास लगे । दिल्ली पहुँचते ही चंद्र शेखर जी को भेजा , फिर पूर्व मुख्यमंत्री राम नरेश यादव , मधू दंडवते , इत्यादि लाइन लग गयी जेल में मिलने आने वालों की ।जब भी कोई आता एक तखत बीछ जाता और उस पर से भाषण होता । 
काफ़ी लोग तब पता नही कितने बड़े रहे होंगे जो जाति देखकर वोट पूछते है और पूछते है क़ि क्या किया ज़िंदगी में । 
रोज़ शाम को किसी विषय पर कमांडर साहब और मेरा प्रवचन होता तथा पूर्व केंद्रीय मंत्री सुमन जी का गाना भी । सब इसमें रुचि नही लेते बल्कि कुछ अपराधियों से दोस्ती गाँठते तो कुछ ताश खेलते पर बहुत इन चीजों में भी रुचि लेते । 
फिर 35 दिन बाद छूटे थे तो जेल से । वही से मिला मिला कुर्ता पजामा और जैकेट , चप्पल और जेल में बढ़ी दाढ़ी । वैसे सब गांधी आश्रम का है ।
अब जेल जाने पर मिलता है या नहीं ?

बिचपुरी का आंदोलन

#ज़िंदगी_के_झरोखे_से 

#छात्र_राजनीति_का_दौर याद आ गया । मेरे भाषण सुनने के लिए छात्र छात्राएँ बहुत बड़ी संख्या में अपने आप एकत्र हो जाते थे -
#( जब मैं वाद विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने जाता था तो चाहे जितनी दूर हो पर यदि शहर में किसी कालेज या विश्वविद्यालय में हुआ तो काफ़ी संख्या मे वहाँ सुनने और जोश बढ़ाने भी पहुँचते थे कालेज के छात्र और छात्राएँ और कई अध्यापक भी ) ख़ैर वो दौर ही ऐसा था की कोई भी खेल हो वहाँ भी सभी स्कूल कलेजो के सैकड़ा लोग पहुँचते थे अपनी टीम और खिलाड़ी के पक्ष में #
- बस कोई एक साथी कालेज का घंटा बजाता और मैं  लाइब्रेरी के सामने के ऊँचे बरामदे के सामने खड़ा हो जाता था जो गेट के ठीक सामने है और कालेज के दोनो मैदान उसके सामने सड़क के दोनो तरफ़ और लाइब्रेरी के सामने भी तीन तरफ़ सड़क और ठीक सामने काफ़ी चौड़ी जगह और सभी क्लास से बाहर निकल आते थे सभी छात्र और छात्राए और मेरे सामने बडी भीड होती थी मुझे सुनने को । अध्यापक भी जब देखते की मैने घन्टा बजवा दिया है और अपनी सम्बोधन वाली जगह पर खड़ा हूँ तो खुद क्लास के बाहर चाले जाते और हम लोगो के सामने के बजाय दूसरे वाले रास्ते से स्टाफ रूम मे चले जाते ।फिर मेरा भाषण होता था की क्यो हड़ताल हो रही है और सिर्फ हड़ताल होना है या कही जुलुस जाना है ।सारी बात बता कर मैं पहले सबको समर्थन मागता और सहमत होने पर जुलुस का रूट , रास्ते का और जहा जाना होता वहा पहच कर वहा का अनुशासन बताता तथा यदि मौन जुलुस नही है तो चलने के पहले ही नारो का अभ्यास करवाता और फिर कारवा निकल पडता था । ज्यो ही प्रशासन को भनक लगती की मैं निकल रहा हूँ पास के थाने के सी ओ और एस ओ मय फोर्स आ जाते साथ चलने को और पूछ लेते गन्तव्य और कारण और एक इच्छा व्यक्त कर देते की हर बार की तरह मैं अनुशासन कायम रखूंगा और साथ साथ सब चलते ।लेकिन विवि या कलक्टरेत पर दो पी ए सी का ट्रक जरूर पहुचा होता था ।
पर ये तस्वीर तो शहर से दूर मेरे कालेज के दूसरे कैम्पस की है जहां किसी समस्या पर मुझे आमंत्रित किया गया था वहाँ के शिक्षकों और छात्रों द्वारा । मेरा भाषण आख़िरी भाषण था , आप देख सकते है तलियो के लिए तैयार हाथ , फिर उस जमाने में मेरे भाषणों में एक आग होती थी । वो यहां भी काम कर रही थी । फिर मेरे नेतृत्व में जुलूस निकला । 
आजकल के तथाकथित छात्र नेता इस जुलूस की आधी लम्बाई तो इसके एक चित्र में देख सकते है बिल्डिंग के दूसरे छोर पर और कसी हुयी मुट्ठियों के साथ लगने वाले नारो से अन्दाज़ लगा सकते है मेरे शब्दों के असर का । 
फिर जो होना था हुआ और सब हुआ जिसका वर्णन यहाँ नही आत्मकथा में । 
350 से ज़्यादा लोग गिरफ़्तार होकर जेल गए 
और फिर वो समस्या हमेशा के लिए ख़त्म हो गयी ।
आंदोलन तो वो भी था जब लाठीचार्ज और फिर मेरी गिरफ़्तारी के बाद अगले दिन सुबह ही राजनारायण जी जेल में हाज़िर थे और उनके आने का पता लगते ही ज़िले के डी एम एस पी सहित पूरा अमला और प्रशासन हम लोगों को छोड़ने को तैयार था उसी समय और मेरी छात्र संघ का चुनाव कराने की माँग मानने को भी पर राजनारायण जी ने इनकार कर दिया की अभी रहने दो , फिर समर्थन में गिरफ़तारियो का दौर चला सुमन जी , फिर बरेली से आकार कुँवर सर्वराज सिंह , फिर कमांडर साहब के नाम से मशहूर कैप्टैन अर्जुन सिंह भदौरिया और उसके बाद जेल में मिलने राम नरेश यादव , मधू दंडवाते से लेकर चंद्रशेखर जी तक और जब भी कोई आता एक तख़त लग जाता जिसपर से उस नेता का सम्बोधन होता । रोज़ शाम को बैरक में किसी विषय पर कमांडर साहब और मेरा उद्बोधन होता प्रशिक्षण के तौर पर । सभी की नाप हयी ,कपड़े जिसमे गांधी आश्रम का ही कोट भी था हम सभी बंदियों को मिला । बहुत से लोगों की रुचि जेल में गुंडो से दोस्ती करने में थी तो कुछ की पपलू खेलने में भी । गलती से कुछ संघ से जुड़े छात्र भी बंद हो गए थे उनकी रुचि का सार्वजनिक वर्णन निषेध है पर आत्मकथा में होगा और ऐसे काफ़ी थे जिनकी रुचि राजनीतिक मुद्दों और देश को समझने में थी । 
आंदोलन वो भी था जब उत्तर प्रदेश के राज्यपाल को घेर लिया गया सर्किट हाउस में और अंधेरा होने पर लाइट बुझा कर उन्हें पीछे के रास्ते से निकाल कर ले जाया गया 
आंदोलन वो भी था जब विश्वविद्यालय के कुलपति को खड़ा कर मैं उनकी कुर्सी पर क़ाबिज रहा क़रीब ४ घंटे और फिर अधिकारियों को चाय पिला कर ही उठा । 

वह आंदोलन भी मेरा अनोखा आंदोलन था जिसने सभी के हाथ बांधे थे , मुँह पर पट्टी बंधी थी और सीने पर पोस्टर था जिसपर दिल का दर्द लिखा था और पूरा जुलूस कलक्टरी तक सड़क के किनारे बिलकुल मौन ही गया और वहाँ पट्टी भी खुली और आवाज तथा उद्घोष भी 
और वो ६ वी क्लास में पूरी क्लास को लेकर स्वतंत्रता सेनानी और संविधान सभा के सदस्य रहे एच एन कुज़रू जी के घर तक जाकर अपनी बात कहना और उनका गाल थपथपा कर कहना की नेता बनेगा ? और दूसरे ही दिन माँग पूरी कर देना 
अपने पिता से उलझ जाना छात्रों के लिए , 
आंदोलन इस बात के भी हुए की बस और सिनेमा में आधा टिकट लगे , साइकिल स्टैंड पर कितना पैसा लगे ,और भी बहुत कुछ 
ना जाने कितने आंदोलन है इस ज़िंदगी के झरोखे में 
याद के अनुसार सब आत्मकथा में मिलेगा । 
बड़े बड़े क्रांतिकारी युवा और छात्र नेता हम लोगों से आज पूछते है की आप क्या और कौन ?

चित्र प्रदर्शनी

यादों से : 

पिछले साल आज की शाम इस कार्यक्रम के नाम था  जिसमें  दूसरे नंबर की पेंटिंग 48 करोड़ रुपए की है । और साथ खड़े इन लोगों को लखनऊ में कौन नही पहचानता है ? साहित्यिक गतिविधियाँ हो या देश और समाज के सरोकार ये त्रिगुट हमेशा आगे रहता है और अपनी सक्रियता से लखनऊ को जीवंत रहता है । 
मैं तो बस इतना कह सकता हूँ कि मैं इन लोग से परिचित हुँ और कभी कभी चर्चा में हिस्सेदार भी हो जाता हुँ सुशीला जी , उषा राय और नाइस हसन के साथ ।
इस अवसर पर उषा राय ज़ी ने अपना नया कहानी संग्रह : हवेली : भी भेंट किया । 
चर्चा तो हुयी ही देश और दुनिया की ।
हा रंग भी कविता करते है , कहानी और उपन्यास लिखते है और इतिहास भी लिखते है और रचते भी हैं ।
रंग कितने महँगे भी हो सकते है ? ४८ करोड़ !

न्यू यॉर्क

न्यू यॉर्क में एक छोटे से कार्यक्रम का हिस्सा बना जहा बस खुद की तकलीफे भुला कर सामूहिक रूप से एक दो तीन बोलना होता है और अपना नाम अगर आपने लिख कर डब्बे में डाला है तो आखिरी में इस अभियान के सदस्यों द्वारा बनाई गयी सांकेतिक चित्रकारी आप को मिल सकती है ।
और कार्यक्रम होता है वाल स्ट्रीट त्रंफ भवन के पास ।

स्थापना सम्मेलन

By Chandra Prakash Rai Sir...

यादो_के_झरोखे_से

#मेरे_पिता प्रोफेसर डा पारस नाथ राय #आज_ही_हमे_छोड_गए_थे_सदा_के_लिए । अपने छात्रो मे बहुत लोकप्रिय रहे , बहुत ही लोकप्रिय पुस्तको के लेखक और ऐसे शिक्षक की अवकाश लेने के बाद भी लोगो ने अवकाश नही लेने दिया ।
पहले लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति ड़ा सोढ़ा ने आमंत्रित कर लिया विशेस कोर्स के निदेशक के रूप मे और यहा का तीन साल पूरा हुआ 
तो 
बी एच यू के कुलपति प्रो पंजाब सिंह ने बुला लिया अपने नये कैम्पस का निदेशक बन कर स्थापित करने और चलाने को ।
उनके छात्र देश भर मे फैले और नाम किया ।

जमीदारी उन्मूलन के बाद अचानक बहुत सँकट मे आ गए मेरे परिवार को मेरे पिता ने बहुत संघर्ष और मेहनत से उबारा । 
खुद केवल 8 पास कर पढ़ाना शुरू कर दिया शायद मात्र 6 रुपया तन्ख्वाह मे वो जमाना ऐसा ही था ।
फिर पढते गए और बढते गए।कुछ लोगो से मिलकर मेरे गांव के क्षेत्र मे ब्लॉक तहबर पुर पर स्कूल और फिर इंटर कालेज की स्थापना किया और उसको बढाने मे बहुत मेहनत किया । मुझे याद है बचपन जब लोगो से फूस,खपड़ैल इत्यादि मांग कर शुरुवात हुई थी ।
उस समय दंगल और संस्कृतिक कार्यक्रम जिसमे नाटक मे मेरे पिता जोकर बनते थे और पेट पर कपडे के नीचे फुटबाल छुपा कर पंप से फुला कर लोगो को हंसाते थे और उन कार्यक्रमो के माध्यम से कालेज के लिए धन एकत्र होता था । 
उन कार्यक्रमो मे शहर के कलक्टर और एस पी भी आते थे घोड़े पर ,तब मोटर नही होती थी ,थाने काफी दूर मे होते थे और  दारोगा लोग साइकिल पर दण्डा या लाठी बाँधे हुये आते थे ।
तब शिक्षक की इतनी कद्र थी की जिले के सर्वोच्च अधिकारी सम्मान करते थे ,सलाह करते थे और सम्बन्ध रखते थे । बचपन की कुछ धुधली सी याद है की एक बार मैं पिता के साथ शहर गया हुआ था तो पता चला की कलक्टर और जिला जज मे कुछ विवाद और कहा सुनी हो गई और किसी ने मेरे पिता से कहा की आप मिल कर सुलझाइये और फिर एकाध और लोगो के साथ मेरे पिता ने वो विवाद सुलझाया था । बाद मे इसी इंटर कालेज के प्राचार्य भी रहे मेरे पिता । 
बाबा जी ने एक बार बताया की बचपन मे पिताजी पढने के बजाय खेल मे ज्यादा रुचि लेते थे तो बाबा जी ने उन्हे गन्ना पेरने वाले कोल्हू मे बैल के जगह बाँध दिया और बैल की तरह चलाया । 
उसके बाद मेरे पिता ने मुड़ कर नही देखा । रात को भी दिये की रोशनी मे पढाई करते थे ।और पढते पढते पहले एल टी करने आगरा आये जो नौकरी मे होने वाले शिक्षको के लिये 2 साल 3/3 महीने का शिक्षक कोर्स था ।
मेरे पिता के निधन पर उनके एक साथी जो आगरा मे उनके साथ थे एल टी करने मे उन्होने बताया की मेरे पिता पढाई के बाद रात 2 बजे तक आगरा के किसी पब्लिशर के यहा किताब लिखने का काम करते थे ताकी मेरे चाचा जो मेडिकल के छात्र थे उनकी पढाई प्रभावित न हो ।
फिर आगरा से ही एम एड किया और प्रसिद्ध शिक्षा शस्त्री डा आर के सिंह जो उस समय आर बी एस कालेज के प्राचार्य थे की निगाह मे आ गए वो आर के सिंह जिनके समय मे दो अमरीकी राष्ट्रपति आर बी एस कालेज आये आइजन हावर और लिंडन जॉन्सन और न जाने कितने लोगो को ड़ा सिंह ने अमरीका पढने भेजा , जिस ड़ा सिंह का नेहरु जी से शिक्षा व्यव्स्था पर हुआ विवाद सुर्खियां बना था उन्होने मेरे पिता को आदेश दिया की जुलाई मे आकर कालेज जोइन कर लो , डा सिंह ने बाद मे मुझे भी बहुत प्रेरित किया की मैं आई ए एस बनू और वो खुद तैयारी करवाना चाहते थे पर मेरा उधर रुझान नही था तो कुछ दिन मुझसे नाराज रहे और मेरी शिकायत करते रहे ।
मेरे पिता ने गांव की जिम्मेदारी और वहा के इंटर कालेज की जिम्मेदारी का जिक्र कर बचने का प्रयास किया पर उस वक्त गुरु की बात से इन्कार कहा सम्भव था ।
मुझे याद है की जब मेरे पिता तहबर पुर इंटर कालेज से विदा हो रहे थे तो लगता था की कोई सभा हो । हजारो लोग विदा करने आये थे और सब ऐसे रो रहे थे और जोर से जैसे बेटी विदा करते वक्त होता है ।
आजमगढ़ से चलने वाली ट्रेन शाहगंज जंक्सन पर बदलनी होती थी ,बडी संख्या मे लोग शाहगंज तक भी पहुच गए विदा करने जो जौनपुर मे पडता है और फिर लखनऊ मे ट्रेन बदल कर आगरा पहुचना होता था तो लखनऊ स्टेशन पर भी कई लोग आये थे ट्रेन बदलवाने और घर से बनवा कर लाई पूरी सब्जी खिलाने ।
ऐसे थे मेरे पिता । जब पहली बार मैं राज्य मंत्री बन आगरा पहुचा था तो मानो पिता जी का चेहरा आभा से दमक उठा था ।ऐसा हर उस काम पर होता था जो अच्छा हो ,वो चाहे खेलो की टीम मे होना ही , डिबेट मे और अन्य प्रतियोगिताओ मे कालेज ,विश्वविद्यालय या राश्ट्रीय स्तर पर प्रथम आना हो या एन सी सी मे राष्ट्रीय स्तर तक नाम करना हो वो वैसे ही खुश होते थे बिल्कुल बच्चो की तरह और बच्चो को भी प्रोत्साहित करने को कुछ देना उनकी आदत थी । उनके रसगुल्लो के किस्से भी सभी जानने वालो से सुने जा सकते है । 
आज ही के दिन उन्होने बनारस मे शरीर त्याग दिया । कुल तीन चार दिन पेट मे दर्द हुआ , जांचो से कुछ पता नही चला और उस दिन बस बाथरूम गए और फिर चले ही गए । मैने आगरा मे अपने साथी डाक्टर लोगो से शाम को ही चर्चा किया था और ये तय हुआ था की किसी तरह उनको आगरा तक ले आऊं औए फिर भी जरूरत हुई तो एम्स चाले जायेंगे ।दूसरे दिन मुझे बनारस के लिए निकलना था की रात 1बजे बनारस से फ़ोन आया और कहने को कुछ नही था ।पूरे परिवार को गाडी मे बैठा कर सुबह 3 बजे खुद चला कर निकला और दोपहर मे 1बजे तक बी एच यू पहुच गये हम लोग पर बडी बेटी नॉएडा मे नौकरी करने लगी थी इसलिए उसे नही ले जा पाये और उसका मजबूरी वाला रोना आजतक भी विचलित करता है ।
पिता जी अक्सर कहते थे आधा पेट खाना और काशी मे बसना वही प्राण तजना ।
शायद उनकी इच्छा पूरी हुई ।
पिता जी आप ने पूरे परिवार को उस मझधार से निकाल कर यहा तक पहुचा दिया पर हमारी पीढी के भी सभी ने किशिश किया है की आपकी ही तरह अगली पीढी को सही रास्ता दिखाये और आगे बढाये और अभी तक तो सब वैसा ही हो रहा है ।ईश्वर करे सभी आने वाली पीढ़िया रास्ता सही रखे चाहे धन और सुख सुविधा कम भी हो पर सम्मान बना रहे ।
( बाकी बहुत कुछ मेरी आत्मकथा मे होगा )

मेरे पिता

By Chandra Prakash Rai Sir...

यादो_के_झरोखे_से

#मेरे_पिता प्रोफेसर डा पारस नाथ राय #आज_ही_हमे_छोड_गए_थे_सदा_के_लिए । अपने छात्रो मे बहुत लोकप्रिय रहे , बहुत ही लोकप्रिय पुस्तको के लेखक और ऐसे शिक्षक की अवकाश लेने के बाद भी लोगो ने अवकाश नही लेने दिया ।
पहले लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति ड़ा सोढ़ा ने आमंत्रित कर लिया विशेस कोर्स के निदेशक के रूप मे और यहा का तीन साल पूरा हुआ 
तो 
बी एच यू के कुलपति प्रो पंजाब सिंह ने बुला लिया अपने नये कैम्पस का निदेशक बन कर स्थापित करने और चलाने को ।
उनके छात्र देश भर मे फैले और नाम किया ।

जमीदारी उन्मूलन के बाद अचानक बहुत सँकट मे आ गए मेरे परिवार को मेरे पिता ने बहुत संघर्ष और मेहनत से उबारा । 
खुद केवल 8 पास कर पढ़ाना शुरू कर दिया शायद मात्र 6 रुपया तन्ख्वाह मे वो जमाना ऐसा ही था ।
फिर पढते गए और बढते गए।कुछ लोगो से मिलकर मेरे गांव के क्षेत्र मे ब्लॉक तहबर पुर पर स्कूल और फिर इंटर कालेज की स्थापना किया और उसको बढाने मे बहुत मेहनत किया । मुझे याद है बचपन जब लोगो से फूस,खपड़ैल इत्यादि मांग कर शुरुवात हुई थी ।
उस समय दंगल और संस्कृतिक कार्यक्रम जिसमे नाटक मे मेरे पिता जोकर बनते थे और पेट पर कपडे के नीचे फुटबाल छुपा कर पंप से फुला कर लोगो को हंसाते थे और उन कार्यक्रमो के माध्यम से कालेज के लिए धन एकत्र होता था । 
उन कार्यक्रमो मे शहर के कलक्टर और एस पी भी आते थे घोड़े पर ,तब मोटर नही होती थी ,थाने काफी दूर मे होते थे और  दारोगा लोग साइकिल पर दण्डा या लाठी बाँधे हुये आते थे ।
तब शिक्षक की इतनी कद्र थी की जिले के सर्वोच्च अधिकारी सम्मान करते थे ,सलाह करते थे और सम्बन्ध रखते थे । बचपन की कुछ धुधली सी याद है की एक बार मैं पिता के साथ शहर गया हुआ था तो पता चला की कलक्टर और जिला जज मे कुछ विवाद और कहा सुनी हो गई और किसी ने मेरे पिता से कहा की आप मिल कर सुलझाइये और फिर एकाध और लोगो के साथ मेरे पिता ने वो विवाद सुलझाया था । बाद मे इसी इंटर कालेज के प्राचार्य भी रहे मेरे पिता । 
बाबा जी ने एक बार बताया की बचपन मे पिताजी पढने के बजाय खेल मे ज्यादा रुचि लेते थे तो बाबा जी ने उन्हे गन्ना पेरने वाले कोल्हू मे बैल के जगह बाँध दिया और बैल की तरह चलाया । 
उसके बाद मेरे पिता ने मुड़ कर नही देखा । रात को भी दिये की रोशनी मे पढाई करते थे ।और पढते पढते पहले एल टी करने आगरा आये जो नौकरी मे होने वाले शिक्षको के लिये 2 साल 3/3 महीने का शिक्षक कोर्स था ।
मेरे पिता के निधन पर उनके एक साथी जो आगरा मे उनके साथ थे एल टी करने मे उन्होने बताया की मेरे पिता पढाई के बाद रात 2 बजे तक आगरा के किसी पब्लिशर के यहा किताब लिखने का काम करते थे ताकी मेरे चाचा जो मेडिकल के छात्र थे उनकी पढाई प्रभावित न हो ।
फिर आगरा से ही एम एड किया और प्रसिद्ध शिक्षा शस्त्री डा आर के सिंह जो उस समय आर बी एस कालेज के प्राचार्य थे की निगाह मे आ गए वो आर के सिंह जिनके समय मे दो अमरीकी राष्ट्रपति आर बी एस कालेज आये आइजन हावर और लिंडन जॉन्सन और न जाने कितने लोगो को ड़ा सिंह ने अमरीका पढने भेजा , जिस ड़ा सिंह का नेहरु जी से शिक्षा व्यव्स्था पर हुआ विवाद सुर्खियां बना था उन्होने मेरे पिता को आदेश दिया की जुलाई मे आकर कालेज जोइन कर लो , डा सिंह ने बाद मे मुझे भी बहुत प्रेरित किया की मैं आई ए एस बनू और वो खुद तैयारी करवाना चाहते थे पर मेरा उधर रुझान नही था तो कुछ दिन मुझसे नाराज रहे और मेरी शिकायत करते रहे ।
मेरे पिता ने गांव की जिम्मेदारी और वहा के इंटर कालेज की जिम्मेदारी का जिक्र कर बचने का प्रयास किया पर उस वक्त गुरु की बात से इन्कार कहा सम्भव था ।
मुझे याद है की जब मेरे पिता तहबर पुर इंटर कालेज से विदा हो रहे थे तो लगता था की कोई सभा हो । हजारो लोग विदा करने आये थे और सब ऐसे रो रहे थे और जोर से जैसे बेटी विदा करते वक्त होता है ।
आजमगढ़ से चलने वाली ट्रेन शाहगंज जंक्सन पर बदलनी होती थी ,बडी संख्या मे लोग शाहगंज तक भी पहुच गए विदा करने जो जौनपुर मे पडता है और फिर लखनऊ मे ट्रेन बदल कर आगरा पहुचना होता था तो लखनऊ स्टेशन पर भी कई लोग आये थे ट्रेन बदलवाने और घर से बनवा कर लाई पूरी सब्जी खिलाने ।
ऐसे थे मेरे पिता । जब पहली बार मैं राज्य मंत्री बन आगरा पहुचा था तो मानो पिता जी का चेहरा आभा से दमक उठा था ।ऐसा हर उस काम पर होता था जो अच्छा हो ,वो चाहे खेलो की टीम मे होना ही , डिबेट मे और अन्य प्रतियोगिताओ मे कालेज ,विश्वविद्यालय या राश्ट्रीय स्तर पर प्रथम आना हो या एन सी सी मे राष्ट्रीय स्तर तक नाम करना हो वो वैसे ही खुश होते थे बिल्कुल बच्चो की तरह और बच्चो को भी प्रोत्साहित करने को कुछ देना उनकी आदत थी । उनके रसगुल्लो के किस्से भी सभी जानने वालो से सुने जा सकते है । 
आज ही के दिन उन्होने बनारस मे शरीर त्याग दिया । कुल तीन चार दिन पेट मे दर्द हुआ , जांचो से कुछ पता नही चला और उस दिन बस बाथरूम गए और फिर चले ही गए । मैने आगरा मे अपने साथी डाक्टर लोगो से शाम को ही चर्चा किया था और ये तय हुआ था की किसी तरह उनको आगरा तक ले आऊं औए फिर भी जरूरत हुई तो एम्स चाले जायेंगे ।दूसरे दिन मुझे बनारस के लिए निकलना था की रात 1बजे बनारस से फ़ोन आया और कहने को कुछ नही था ।पूरे परिवार को गाडी मे बैठा कर सुबह 3 बजे खुद चला कर निकला और दोपहर मे 1बजे तक बी एच यू पहुच गये हम लोग पर बडी बेटी नॉएडा मे नौकरी करने लगी थी इसलिए उसे नही ले जा पाये और उसका मजबूरी वाला रोना आजतक भी विचलित करता है ।
पिता जी अक्सर कहते थे आधा पेट खाना और काशी मे बसना वही प्राण तजना ।
शायद उनकी इच्छा पूरी हुई ।
पिता जी आप ने पूरे परिवार को उस मझधार से निकाल कर यहा तक पहुचा दिया पर हमारी पीढी के भी सभी ने किशिश किया है की आपकी ही तरह अगली पीढी को सही रास्ता दिखाये और आगे बढाये और अभी तक तो सब वैसा ही हो रहा है ।ईश्वर करे सभी आने वाली पीढ़िया रास्ता सही रखे चाहे धन और सुख सुविधा कम भी हो पर सम्मान बना रहे ।
( बाकी बहुत कुछ मेरी आत्मकथा मे होगा )

मैचूरेस्ट

मैसाचुएट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (एम् आई टी ) बोस्टन  जहा के लोगों को 24 नोबेल पुरष्कार मिल चुका है ।
हॉवर्ड यूनिवर्सिटी के बाद यहाँ भी जाने का मौका मिला । इसकी एक बिल्डिंग की पूरी छत खुल जाती है ।
स्टूडेंट सेंटर में मुंबई की रहने वाली एक छात्रा से भी मुलाकात हुई ।
विस्तार से बाद में ।

डेटन के ड़ा राकेश गुप्ता

आगरा के रहने वाले डॉ राकेश गुप्ता जो की डेटन अमेरिका में सर्जन है और उनकी पत्नी जो सचमुच भारतीय नारी की प्रतिमूति है मुझे कोलम्बस से अपने घर ले गए ।
आज मुझे लेकर वापस छोड़ने आये और साथ में कोलम्बस में आयोजित एक भारतीय दावत में भी ले गए जहाँ विशुद्ध भारतीय बहुत स्वादिष्ट वेज और नॉन वेज भोजन था और लोगो से मिल कर बहुत अच्छा लगा ।
उससे पहले भाभी जी ने सुबह से लग कर मेरे लिए अपने हाथ से खाना बना कर दिया ।
सचमुच ये दो दिन बहुत अच्छे बीते और हमेशा याद रहे रंहेंगे ।

एन सी सी

सेनाध्यक्ष जनरल बेबूर और एन सी सी के डाइरेक्टर जर्नल बी एम् भट्टाचार्य के साथ मैं और दूसरे प्रदेशो के सीनियर अंडर ऑफिसर ।इनमे से कई ब्रिगेडियर और मेजर जर्नल तक पहुंचे ।जर्नल बेबूर के पीछे मेरे मित्र ए के आर त्रिपाठी है जिन्होंने लखनऊ से ब्रिगेडियर के पद से अवकाश ले लिया था पांच साल पहले ।

बॉस्टन अमेरिका

बोस्टन की कुछ तस्वीरें जहा उस समय भी पारा दिन में 2 से 3 तक और रात में माइनस 2 हो गया था और इस ठण्ड में फेरी से समुद्र बे का भ्रमण । जबर्दस्त अनुभव था ।
ये फोटो एक चाइनीस बच्ची जिसे मैंने बेटी बनाया और उसने बताया कि उसके पापा भी मेरी उम्र के है ने अपने कैमरे से खींच कर भेजा है जिसने मुझे बीजिंग आने का निमंत्रण भी दिया है । 
बोस्टन का बाकी ब्यौरा अगली पोस्ट में ।

बताशे वाला बाबा और इंजीनियर साहब

मेरी लिखी कहानी 

बताशे वाला बाबा 
( जीवन के झरोखे से एक कहानी )

रविवार का दिन और जाड़े की सुबह नाश्ता हो चुका था ।अखबार अभी पिताजी के कब्जे में था ।माँ नाश्ते से निपटी ही थी कि खाने की तैयारी में लग गयी थी । उधर ये फरमाइश भी की पानी गर्म हो तो सब नहाए वर्ना धूप का इंतजार करें । सूरज अभी जवान नही हुआ था पंर पूरब वाले पेड़ की डालियों और पत्तियों में से झांक रहा था और कुछ गर्मी का सा एहसास करवा रहा था । 
सब अलसाये से बैठे कुछ इधर उधर की चर्चा में व्यस्त थे कि
दरवाजे की कुंडी खटकी , क्योकि 80 के आसपास घण्टी किसी किसी के यहाँ बजती थी , अधिकतर घरों में कुंडी ही खटकती थी ।
दरवाजा खोला तो सामने मिस्टर कार ( नाम थोड़ा बदल दिया है ) खड़े थे । 
थोड़ा परेशान लग रहे थे । बोला अंदर आइये तो जल्दबाजी में थे और बोले कि कुछ परेशान हूँ और कही जाने की जल्दी है । आप को लेने आया हूँ क्योकि जहाँ जाना है सुरक्षित स्थान नही लगता । जल्दी से तैयार हो जाइए और चाय पानी कुछ नही , बस चलिए । 
फिर चाय पानी के लिए मैने नहीं बल्कि मेरे पिता ने पूछा तो टालने की गरज से बोले कि बस आकर पीते है । अभी कुछ जल्दी है ।
मैं भी जल्दी से तैयार होकर उनकी बिल्कुल नई ली गयी फिएट कार में बैठ गया । तब उन्होंने बताया कि खेरागढ़ इलाके में एक गांव में चलना है , कुछ जरूरी काम है । वहाँ एक बहुत पहुंचे फकीर रहते है और सब कुछ उनका बताया हुआ सही निकलता है ।
मैंने उत्सुकता से पूछा आप का अच्छा कारोबार है फिर आप को क्या जानने की जरूरत पड़ गयी ।
मिस्टर कार ने टालना चाहा बस इतना कह कर की बताऊंगा और दूसरी बाते शुरू कर दिया ।
बातो बातो ने खेरागढ़ इलाके का वो इलाका आ गया तो कई जगह उतर उतर कर वहाँ के लोगो से कार जी कुछ पूछते और फिर आगे बढ़ते जाते और अंततः एक सुनसान जगह पर रुके और मुझे भी उतरने का इशारा किया ।
पास ही एक खेत मे एक झोपड़ी में पहुचे तो देखा वहां एक दाढ़ी वाला व्यक्ति बैठा था और दो गांव के लोग बैठे उसकी कुछ किस्सेबाजी सुन रहे थे । 
कार जी ने उसका पैर छुवा और जमीन पर ही पालथी मार कर बैठ गए । गोर चिट्टे और अमीर से दिखने वाले शख्स को देखकर वो लोग कुछ असहज हुए ये साफ दिख रहा था ।
दाढ़ी वाले ने थोड़ा हिम्मत जुटा कर पूछा बोलो बच्चा कैसे आये ? किसने भेजा यहाँ ,या यहाँ के बारे में बताया ? कार विनम्र होते हुए और कुछ दयनीय से बनकर बोले बाबा बस एक सवाल था कि मेरा काम बनेगा या नही बनेगा ? 
उस तथाकथित बाबा ने लोटे में पानी भरा और उसमे बताशे डालने लगा ।
मैं उसका खेल समझ गया पंर कार की श्रध्दा के सामने कुछ नही बोलने का फैसला किया । ये भी समझ मे आ गया कि ये थोक में पहले से बताशे लेकर रखता है । आखिर यही उसकी दुकानदारी का हथियार जो है ।
वही हुआ जो विज्ञान के अनुसार होता है कि कुछ देर बाद पानी पूरा गाढ़ा मीठा हो जाने डाला जाने वाला बताशा तैरने लगा ।
बाबा बोला बच्चा तेरा काम हो जाएगा । कार ने कुछ पैसे उसके पैर के पास रख दिया जो उस समय के हिसाब से काफी था । और हम फिर गाड़ी में बैठे आगरा शहर की तरफ चल पड़े ।
अब मिस्टर कार का परिचय भी जानना जरूरी है । ये अमरीका से एक नही बल्कि डबल इंजीनियरिंग पास कर के कुछ साल पहले आगरा आये थे और पंखे के कुछ हिस्से बनाने की फैक्ट्री शुरू कर दिया था । काम बहुत अच्छा चल रहा था । इनका काम मेरे एक करीबी जानने वाले के कारण जमा और ऊँचाई पर पहुचा था । कुछ समय पहले ये एक दिन मेरे घर मेरे उस जानने वाले के साथ ही आये और चाय पीते हुए मेरे पिता की मौजूदगी में मुझे अपने साथ काम करने का आमंत्रण दिया । काफी बातचीत के बाद उनका प्रस्ताव मैने स्वीकार कर लिया ।
काफी जोर देकर मैने उनसे पूछा कि ऐसा क्या मामला है कि एक निहायत गंवार और जाहिल के पास जाना पड़ा ? 
तब उन्होंने बताया कि जब वो अमरीका में थे तो वहाँ की आमदनी वही लगा दिया था और अब कुछ काम बढ़ाना चाहते है तो उन्हें पैसे की जरूरत है । पता नही उनका पैसा मिलेगा या नही और जहाँ पैसा लगा है कही वो बेईमान तो नही हो जाएंगे । लंबे समय से भारत मे रहकर उनकी ये मान्यता हो गयी थी कि कोई काम अपने आप और नियम से नही होता , कानून कुछ नही होता ,सब सिफारिश और घूस से ही होता हौ ,क्योकि यही तो देखा इन सालों में उन्होंने भारत आने के बाद ।
जब उन्होंने ये बात अपने किसी स्थानीय रिश्तेदार को बताई तो उसी ने इस बाबा के पास जाने की राय दिया ।
तब मैंने पूछा कि वैसे जहाँ आप ने पैसा लगाया है वहा से आप को कुछ कागज तो दिया गया होगा और कोई तरीका बताया गया होगा कि पैसा अगर वापस चाहिए तो कैसे मिलेगा ।
वो बोले कि हां एक पेपर है उसी में एक जग दस्तखत कर वहां भेजना है ।
मैंने पूछा कि क्या आप ने भेजा तो बोले कि वही भेज दूंगा तो मेरे पास तो कुछ रहेगा नही और वो कम्पनी मुकर गए तो पैसे मर जाएंगे । 
मैंने कहा कि उसकी फोटो रख लीजिए और जैसे वहाँ से कहा गया उसी तरह भेज कर देखिये वर्ना अमरीका हो आइयेगा क्योकि पैसा अधिक है पंर पहले उनके हिसाब से कर के देख लेना चाहिए । तो बोले कि अच्छा अभी फोटोकॉपी करवा लेते है और भेज देते है पंर कुछ गड़बड़ हुई तो आप की मेरे साथ अमरीका चलना । 
मैने कहा कि कुछ घुमाए और दिखाए तो चला चलूंगा हफ्ता दस दिन को पंर ऐसी जरूरत शायद पड़ेगी नही ।
दूसरे दिन उन्होंने वही किया पंर रोज परेशान रहते और पैसे मर जाने की शंका व्यक्त करते तो उस तथाकथित बाबा को याद कर आश्वस्त भी करते ख़ुद को । 
एक बार मैंने बताशे की कहानी और उसके विज्ञान पर बात करते हुए और ये कहने पर की आप अमरीका से इतनी पढ़ाई कर के आये है और इन बातो पंर कैसे विश्वास करते है तो कुछ झुंझला गए । मैने ही बात बदल दिया ।
कुछ दिन बाद मैं घर मे बैठा था कि कुंडी खटकी और कार जी सामने थे मिठाई का डिब्बा हाथ मे लिए हुए और खुशी से उनका चेहरा दमक रहा था ।
कुछ पूछते उससे पहले उन्होंने खुद मेरे पिताजी का पैर छूते हुए खुशी का कारण बताया कि मेरी बात सही साबित हुई और सिर्फ उनका पैसा ही नहीं आ गया बल्कि उसका पूरा इतने साल का हिसाब भी आया है और पूछा कि हिसाब में कोई दिक्कत हो तो वो सूचित करें । वो बोले जा रहे थे मेरे दिमाग मे एक  तरफ तो उनके अमरीका से डबल इंजीनियरिंग पढ़ने पर शंका हो रही थी तो दूसरी तरफ उस गंवार के सामने उनका परेशान हाल जमीन पर बैठने का दृश्य घूम रहा था ।
पर वताशे वाला सही निकल ही गया ।

कमरा तभी मिलेगा

जिंदगी_के_झरोखे_से -
रामगोपाल जी कहेंगे तभी कमरा मिलेगा
(Role of a villain, I. e., a leader) 
आप बीती..  (By Chandra Prakash Rai Sir) 

यह तब की बात है जब हमारी उत्तर प्रदेश में सरकार थी ।मेरी पत्नी लगातार बहुत बीमार थी और प्राइवेट इलाज की हैसियत नही थी तो आल इंडिया मेडिकल इन्स्टिट्यूट दिल्ली के लगातार चक्कर लग रहे थे , उसी समय कई बार डाक्टर रुकने और अगले दिन फिर आने को या असर देखने को बोलते थे । अपनी सरकार थी तो फ़ोन कर दिया की यू पी भवन मे कमरा मिल जाये क्योकी होटल बहुत महंगा होता है और दिल्ली के लिहाज से यू पी भवन सस्ता पड़ता था पर उधर से कमरे के लिए मना कर दिया जाता ।2/ 3बार ऐसा होने पर अगले बार मैं भवन ही पहुच गया और देखा की कई कमरे खाली थे और लोगो को मिल रहे थे ।तब मैं मैनेजर के पास गया और बताया भी की मेरी ये परिस्थिती है और इसके कारण आना पड़ रहा है दिल्ली । उन्होने जवाब दिया की रामगोपाल जी से कहलवा दीजिये तभी कमरा मिलेगा । मैने पूछा भी की रामगोपाल जी न तो इस विभाग के मंत्री है और न कमरे तय करना उनका काम है तो उनकी इजाजत क्यो जरूरी है ।तब उसने असमर्थता व्यक्त कर दिया की आप की जरूरत और परिस्थिती मैं समझ रहा हूँ और दूसरे को न मिले पर आप को कमरा मिलना चाहिये पर मैं मजबूर हूँ बिना उनके कहे कमरा नही दे सकता ।
वही से मैने रामगोपाल जी को फ़ोन मिलाया की मेरी पत्नी की तबियत बहुत खराब है और उनके इलाज के लिए यहा अक्सर आना होता है और कई बार मजबूरी मे रुकना होता है पर भवन वाले खाली होने पर भी कमरा नही दे रहे और कह रहे है की जब तक आप नही कहोगे मुझे कमरा नही देंगे ।
रामगोपाल जी बोले मुझसे क्या मतलब,तो मैने कहा की यही बैठा हूँ यही बात आप इनसे कह दो मैं फ़ोन दे रहा हूँ । पर रामगोपाल ने ये कह कर की मैं कुछ क्यो कहूँ फ़ोन काट दिया और फिर फ़ोन उठाया ही नही ।
और फिर हम सुबह उठ कर 5 बजे निकलते और दिखा कर वापस लौटते और यही क्रम चलता रहा पर जब तक रामगोपाल की चली मुझे इलाज के लिए भी कमरा नही मिला मेरी पत्नी के मर जाने तक ।
कितने महान लोग नेता बन गए है और दल उन्हे पिछ्ले 5 बार से राज्य सभा भेज रहा है ।
(मैने पहले उनके नाम के साथ जी लगाया ये मेरा संस्कार है पर आखिर मे दो बार नही लगाया क्यो वो इसके लायक नही है ? 
डा लोहिया ने अन्दोलन चलाया था और राजनारायण जी इत्यादि ने सर्किट हाऊस और गेस्ट हाउस के ताले तोड़े थे और जेल गए थे की सारे गेस्ट हाउस जनता के पैसे से बने है इसलिए जनता की सम्पत्ति है और कोइ भी उसका शुल्क देकर रुक सकता है और तब यह नियम बनाना पडा सरकार को वर्ना विपक्षी नेताओ को कमरा नही मिलता था ।
पर नकली लोहियावादीयो ने लोहिया के उस आन्दोलन और उनकी सारी मंशा पर खूब थूका और लगातार थूका ।

ऑबर्न यूनि

यादो से --

इस ऑबर्न यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ़ अल्बामा बर्मिंघम दो जगह मेरा ऐडमिशन हुआ था 1982 -83 में स्कॉलरशिप के साथ पी एच डी के लिये पर मैं नहीं आ पाया था अपने कारणों से ।
वर्ना आज जिंदगी की दिशा कुछ और होती क्योंकि अमरीका में योग्यता की कीमत है । 
और मैं अपने साथ लगातार हुए राजनीतिक छल से भी बच गया होता ।

जब बिदा किया बेतिया

आज से ठीक तीन साल पहले वो भी 9 मई का ही दिन था । एक पिता के लिए कितना सुखद पर कितना मुश्किल और बेटियों के लिए और भी ज्यादा मुश्किल ।उस घर को छोड़ने की तैयारी जहा पैदा होने से लेकर इतना सफर तय किया था और उस पिता से विदा होना जो अब माँ और पिता दोनो था , जिसके डांट और प्यार के झूले में झूलते झूलते इतनी बड़ी हो गयी थी कि किसी का घर बसाने और महकाने लायक हो गयी थी ,
कितना मुश्किल होता है पिता का और माँ का अपनी वेटियो को विदा करना पंर प्रकृति के नियम का बंधन जो है ।
कितने दिनों पहले से एक तरफ तो शादी की सारी तैयारियाँ कर रहा होता है पिता और दूसरी तरफ खुद को मजबूत रखने की असफल कोशिश भी , 
जब जब बेटियों पंर नज़र जाती है मन और आंखे भीग जाती है और गला साफ करने की कोशिश कर खुद को कस कर बांधे रखने की कोशिश , 
खुद की आंखों में तैर आयी पानी की बूंद छुपाने की कोशश ,कितना संघर्ष होता है एक आदमी की शख्सियत में ,एक पिता के दिल और दिमाग मे ।
और 
फिर विदा हो जाती है बेटियाँ , छोड़ जाती है पीछे गहरा सन्नाटा , उदासी और अथाह खालीपन ।
पर 
किसी कोने में जी भर हिचक कर रोने के बाद फिर आंसू पोछ लेता है पिता और फिर खुद को समेट कर निकल पड़ता है कर्तव्य मार्ग पर ।
बेटियाँ भी कुछ इसी राह पर होती है , आँसू और यादो को दबाती है ,भींच लेती है सब कुछ अपने अंदर और पहुंच जाती है बिलकुल अनजान माहौल में खुद को ढाल कर उसे सजाने और संवारने ।
बेटियों के दिल को कोई नही समझ सकता है पर समझ जाती है माँ और वो बन जाती है उनका सम्बल ,उनकी सलाहकार , 
पर इन बेटियों की तो माँ ही नही । 
पर सब ठीक से सम्हाल लिया मेरी बेटियों ने ,खुद को भी और अपने नए घर और नए दायित्वों को भी  ।
हा आज वही 9 मई है बस तीन साल पहले की ।
मेरी बेटियों और उनके हमसफ़र को ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद की जीवन मे हमेशा प्रेम से रहते हुए खुशियों का ,तरक्कीशुदा जीवन जिये ।
आप सब से भी इन बच्चो के लिए आशीष और शुभकामनाओं की अपेक्षा करता हूँ ।

ज़िंदगी का अजीब पन्ना

#ज़िंदगी_के_झरोखे_से  —

यह ज़िंदगी का बहुत अजीब सा पन्ना है । 

शादी के कुछ साल बाद मेरी पत्नी को अलसरेटिव कोलाइटिस हो गया जिसके कारण लेटरीन में  बहुत खून निकलता था । आगरा के मेडिकल कालेज सभी विभाग के सभी प्रोफ़ेसर और अन्य डाक्टर लोगो को भी दिखाया । वो कमज़ोर होती जा रही थी और हर मेडिकल विद्वान अपनी तरह बीमारी समझता रहा और इलाज करता रहा 
अन्ततः दिल्ली एम्स गया तब वहाँ जाँच में पता चला की बीमारी कुछ और है और इलाज पता नही क्या क्या होता रहा और इस चक्कर में बीमारी की स्टेज बढ़ गयी थी और उस बीमारी की भी सिर्फ़ एक दवा थी वो सूट करे तो ठीक वरना 
ख़ैर दवा सूट कर गयी पर फिर भी कभी कभी बीमारी उभर जाती और उसके लिए आए दिन दिल्ली जाना होता । सुबह जल्दी उठ कर ट्रेन पकड़ कर दिल्ली जाते और इनको इनके आइ ए एस भाई जो केंद्र सरकार में आ गए थे उनके घर छोड़ कर बस पकड़ एम्स जाता कार्ड लगाने और फिर वापस आकार इनको लेकर जाता और फिर शाम की ट्रेन से आगरा वापसी । आगे चल कर नयी दवाई आ गयी और वो प्रभावी साबित हुयी ।
पर अचानक कैंसर हो गया , जहां जहाँ से राय ले सकता था राय लेकर इलाज करवाया टाटा के डाक्टर से । जो तकलीफ़ें होती थी हुयी और लगा की सब ठीक हो गया पर पाँच साल बाद अचानक पैर कमज़ोर होने लगे । जाँच हुयी तो पता चला की कैंसर दुबारा हो गया और इस बार रीड़ में हो गयी । इलाज करने वाले डाक्टर ने कहा की ये अच्छा नही हुआ । उन्होंने कहा कि इलाज का अब कोई फ़ायदा नही अब केवल सेवा करिए । पर मेरी ज़िद पर फिर इलाज शुरू हुआ पर कुछ होना ही नही था । पैरलेसिस हो गया और सब कुछ बिस्तर पर शुरू हो गया । बहुत तकलीफ़ झेल रही थी । एक नर्स रखा मैंने लेकिन मेरी इंजीनियर बेटी छुट्टी लेकर आयी और दोनो बहनो ने नर्स हटा दिया की हम लोग ख़ुद करेंगे । माँ ने हम लोगों की लैटरीन साफ़ किया तो हम क्यो नही कर सकते । सब बच्चे सेवा में लग गए । दिन बीतने के साथ खाने में दिक्कत होने लगी तो कोशिश होती की जो अच्छा लगे किसी तरह खिला दे ।एक दिन बोली डाल बुखारा खाना है , जिस होटेल में उन्होंने पहले खाया था उसी के मैनेजर को फ़ोन किया की भेज देंगे क्या ? उनको स्थिति पता था उन्होंने भेजा और काफ़ी भेजा , पर मुश्किल से चार चम्मच खाया । एक दिन बोली की साउथ इंडीयन खाना हैं , मैं पैदल ही चला गया उतनी दूर सागर रत्ना तक और जितनी चीजें मिली सब उठा लाया । ऐसे ही दिन बीत रहे थे । 
कैसा होगा ये वक्त जब आप को भी पता हो की अब हमसफ़र को जाना हैं और वो भी जान गया हो की उसका वक्त पूरा हो गया । दिन का ऐसा इंतज़ार ईश्वर किसी को न करवाए । यह मानसिकता और भाव एक एक पल कितना मुश्किल होता है । 
इसी में शादी का २५ साल आ गया । मैंने डाक्टर से कहा की मैं ये दिन मनाना चाहता हूँ , उन्होंने मना किया की कभी भी कुछ भी हो सकता है इसलिए मैं तो हाँ नही कह सकता । जब पत्नी से कहा तो उन्होंने भी इंकार कर दिया की सर पर बाल नही , चेहरा कैसा हो गया है ,जगह जगह चमड़ी उखड़ रही है और मैं २० मिनट भी बैठ नही पाती इसलिए बिलकुल नही । पर मैं जिद कर बैठा की जब जीवित है तो कोई ख़ुशी हाथ से क्यो जाने दे । 
घर के सामने किसी साथी के कारण बहुत सस्ते में होली डे इन होटल  इसका आयोजन करने को तैयार हो गया । दोनो तरफ़ के परिवारों को सूचित कर दिया की समय कम है इसलिए जो मिलना चाहता है आ जाए ।कुल ख़ास ख़ास लोगों को आमंत्रित किया और बेटियों ने माँ को तैयार किया पर ख़ुद यूँ ही साधारण कपड़े में चल दीं । बेटा केक आर्डर कर आया और भव्य पार्टी हुयी पूरी तैयारी से ।जो होता है हुआ और फिर मैंने जीवन में पहली बार गाना गाया जिसे गायक ने पूरा किया “ जब कोई बात बिगड़ जाए जब कोई मुश्किल पड़ जाए तुम देना साथ मेरा “ शायद गलती हो गयी क्योंकि ये भी रो पड़ी और सामने बैठे काफ़ी लोग भी आँख पोछते दिखे । 
जो २० मिनट नही बैठ पाती थी उस दिन ४/५ घंटे बैठी और गयी थी व्हील चेयर पर बैठ कर पर वापस पैर पर चल कर आयी । फिर सुबह ४/५ बजे तक बाते करती रही । लगा की बिलकुल ठीक हो गयी । दूसरे दिन सुबह भी वाकर पकड़ कर चाय पीने आ गयी लेकिन दो दिन बाद फिर बिस्तर पर चली गयी । 
११ दिसंबर को ये कार्यक्रम हुआ था और वो दुनिया से १० फ़रवरी को । मुझे याद है की इनके बड़े भाई जो डाक्टर है वो और सांसद एस पी सिंह बघेल के साथ बाहर लान में बैठा बात कर रहा था तब तक उस वक्त जो नौकर था बाहर आया की वो बुला रही है की मेरे पति को बुला कर लाओ . थोड़ी ही देर में उन्होंने फिर यही दोहराया । एस पी सिंह थोड़ी में आने को कह कर चले गए थे तो हम दोनो अंदर गए । उन्होंने का कहा सब लोग इकट्ठे हो जाओ । सब आ गए । मेरी बेटियाँ कोई धार्मिक किताब पढ़ रही थी अलग बग़ल बैठ कर और उनकी माँ उनको एक प्लेट में रख कर अनाज छुला रही थी और मुँह में गंगा जल डाल रही थी , भतीजा जो एम एस कर रहा था ओक्सीजन सिलेंडर लेने भागा । ड़ा भी आ गए । साँस लेने में दिक्कत हो रही थी । कोई इंजेक्शन भी लगाया पर वो एक बार सबको देखने के बाद मेरी तरह आकर टिक गयी एकटक देखते हुए और उतनी तकलीफ़ के बावजूद मुश्किल से कोशिश किया मुस्कुरा कर मुझे पता नही क्या दिखाने का और आँख बंद कर लिया । मेरा बेटा जिसका तुरंत बाद बोर्ड का इम्तिहान था मैं उसके लिए परेशान था पर वो लपक कर मेरे पास आ गया और मेरे ऊपर हाथ रख कर बोला कुछ नही हुआ कुछ नही हुआ । मेरी बेटी जो कल शाम से पूरी रात और अभी तक महा मृत्युंजय का जाप कर रही थी वो सहसा विश्वास नही कर पा रही थी और किसी ज्योतिषी ने ६८ साल उम्र बताया था और अभी तो 47/48 ही हुई थी उसका बताया भी ग़लत होना उनको समझ में नही आ रहा था । 
जबकि कई दिनो से मैं तीनो बच्चों को राम कृष्ण बुद्ध महावीर तमाम के बारे में बता कर मानसिक रूप से इस दिन के लिए तैयार कर रहा था की जो आता है वो जाता भी है बस ईश्वर जितने दिन के लिए भेजते है उतना ही जीवन है इत्यादी ।
पर कोई अपना अपने के इस दिन की कल्पना भी नही कर पाता है तो स्वीकार कैसे करते । 
कितनी मुश्किल ज़िंदगी रही होगी ये की सब जान कर इंतज़ार करना और बच्चों से अभिनय करना की ख़ुद मेरा वजन कम ही नही हो गया बल्कि चेहरा गम्भीर बीमार होने की चुग़ली करने लगा था । कितना मुश्किल से उसके बाद मैंने दोनो भूमिका निभाया की बच्चे भटके नही बल्कि सब सही रास्ते पर अपनी ज़िंदगी बनाने में कामयाब रहे । 
विस्तार से आत्मकथा में बाक़ी सब ।

विद्यचरन शुक्ला

#जिंदगी_के_झरोखे_से 

उम्र मे बड़े पर मुझे अपना मित्र मानने वाले विद्याचरण शुक्ल जो 1957 मे पहली बार सांसद बने तो करीब 60 साल तक राजनीती के आसमान पर छाये रहे ।जिनके पिता मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री थे तो बड़े भाई भी कई बार मुख्यमंत्री रहे, जो भारत सरकार के करीब हर मंत्रालय के मंत्री रहे ।
उम्र मे बड़े थे पर जब पहला परिचय हुआ और दिल्ली मे राष्ट्रपति भवन परिसर वाले घर से मुलाकातो का सिलसिला चल निकला तो मेरा परिचय वह अपने मित्र के रूप मे करवाते थे । जब मिलते तो खूब बाते होती थी । 
कभी भी किसी भी काम के लिए चिट्ठी लिखने या जरूरत पर कई फ़ोन भी करना पडे तो उनको कोई हिचक नही थी । 
एक बार जब वो जनपथ पर सोनिया गांधी के सामने वाले घर मे मिलने गया ,वो केन्द्र मे मंत्री थी किसी ने जो वहाँ से निकल रहे थे मुझे उनके घर मे जाते देख लिया तो मेरा नाम लेकर अंदर आ गए और मुझसे मिलने पर अपना कुछ काम बताया । परिचित थे तो आदतन मैने तुरंत अंदर जाकर विद्या भैया से उनके बारे मे बताया  , बिना देरी के उन्होने तुरंत फ़ोन मिला दिया और पूरी मजबूती से उस काम के लिए कह दिया और काम हो भी गया 24 घंटे मे ही ,ये अलग बात है की जिनका काम वो हुआ था वो उन्होने पहचानना भी बंद कर दिया था ।
उनको मैने जब भी देखा तो अगर टीवी देखने की इच्छा हुई तो कुछ खास घटनाओ के समय को छोडकर ज्यादातर टीवी पर डिस्कवरी चेनल देखते हुये देखा ।
योग करना उनकी जीवन चर्या का अंग था । एक बार किसी योगी से मिलने मथुरा के पास कही आये तो फ़ोन किया की आप की क्षेत्र मे आ रहा हूँ , घर आऊँगा चाय पीने या भोजन का समय हो गया तो भोजन करूँगा ।
इनके परिवार की एक शादी पड़ गई आगरा मे और वो भी मेरे मित्र आयकर अधिकारी की बेटी से तो खुद किन्ही कारणो से नही आ पाये पर श्यामा चरण जी और बाकी सभी आये थे । उन्होने फ़ोन किया इस शादी के बारे मे ,अपनी तरफ से निमन्त्रण दिया और बताया की बेटियाँ जा रही है मिल लीजियेगा और कोई जरूरत हो या कही जाना चाहे वो लोग तो आप देख लीजियेगा ।
अफसोस आतंकवादियो ने उनको हम लोगो से छीन लिया ।
उनकी कल 2 अगस्त को जयंती है । 
उनकी यादो को नमन ।

राज नारायण जी नेहा जन्म

यादो से -
#जिन्दगी_के_झरोखे_से ---

कितने साथियो को याद है कि--
#वाजपेयी और #मुशर्रफ की आगरा #वार्ता जब पूरी तरह फ़ेल हो गयी थी और बडा इवेंट बन कर रह गयी थी 
उस समय मुझे राजनाथ सिंह सरकार ने गिरफ्तार किया था और शाम को छोड़ना भी पडा । फिर सभी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सभी मीडिया जिन्होंने पूरी दुनिया में मेरे मार्च और भाषण को लाइव दिखाया था और वही मुशर्रफ ने देखा था की ये पूरी दुनिया देख रही है , उन सभी ने मुग़ल होटेल जो मीडिया सेंटर था वहाँ मुझे बुला कर फिर सभी ने मेरा इंटर्व्यू किया था । 
ऐसे सेना के परिवार जिनका मानना है की उनके पति भाई या बेटे 1965 और 1971के युद्धबंदी के रूप मे पकिस्तान मे बंद है उनको छोड़ने तथा कारगिल के लिए माफी मांगने के लिए मैने उन परिवारो तरह शहीदो के परिवारो के साथ अभियान चलाया था और 
जो मुशर्रफ सरकार की किसी बात पर नही बोला उसे मेरे मुद्दे पर बोलना पडा क्योकी पूरी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रिय मीडिया ने मेरा साथ दिया ।
तब मुशर्रफ ने बोला और आमंत्रित भी किया उन परिवारो को कि वो पकिस्तान आकर जेलो मे अपने परिजन को पहचान ले और अगर है तो वो छोड देंगे और परिवार गए भी ।
वैसे तो हम देशद्रोही है और जो कही नही दिखते इन मामलो मे वो राष्ट्रवादी है ।

मुशारफ़ यात्रा

यादो से -
#जिन्दगी_के_झरोखे_से ---

कितने साथियो को याद है कि--
#वाजपेयी और #मुशर्रफ की आगरा #वार्ता जब पूरी तरह फ़ेल हो गयी थी और बडा इवेंट बन कर रह गयी थी 
उस समय मुझे राजनाथ सिंह सरकार ने गिरफ्तार किया था और शाम को छोड़ना भी पडा । फिर सभी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सभी मीडिया जिन्होंने पूरी दुनिया में मेरे मार्च और भाषण को लाइव दिखाया था और वही मुशर्रफ ने देखा था की ये पूरी दुनिया देख रही है , उन सभी ने मुग़ल होटेल जो मीडिया सेंटर था वहाँ मुझे बुला कर फिर सभी ने मेरा इंटर्व्यू किया था । 
ऐसे सेना के परिवार जिनका मानना है की उनके पति भाई या बेटे 1965 और 1971के युद्धबंदी के रूप मे पकिस्तान मे बंद है उनको छोड़ने तथा कारगिल के लिए माफी मांगने के लिए मैने उन परिवारो तरह शहीदो के परिवारो के साथ अभियान चलाया था और 
जो मुशर्रफ सरकार की किसी बात पर नही बोला उसे मेरे मुद्दे पर बोलना पडा क्योकी पूरी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रिय मीडिया ने मेरा साथ दिया ।
तब मुशर्रफ ने बोला और आमंत्रित भी किया उन परिवारो को कि वो पकिस्तान आकर जेलो मे अपने परिजन को पहचान ले और अगर है तो वो छोड देंगे और परिवार गए भी ।
वैसे तो हम देशद्रोही है और जो कही नही दिखते इन मामलो मे वो राष्ट्रवादी है ।

मैनपुरी रैली

यादों से :

काश ये गठबंधन बचा रह जाता ?

हम भी थे इस 1992 की ऐतिहासिक पहली नेताजी और काशीराम जी की संयुक्त रैली में । पंर पहचानना मुश्किल है ।क्या हमें कोई पहचान सकता है ?
1992 में पैदा हुए या जो उस वक्त घुटने चलते थे वे पूछते है आप कौन और आप का क्या योगदान ?

पहले मंच इतने छोटे और सादा होते थे । सामने बड़ा घेरा भी नहीं होता था पर भीड़ खूब होती थी जो कार्यक्रम ख़त्म होते ही मंच के पास आ जाति थी 
और 
नेता को अपनी भीड़ से ना बदबू आती थी और ना उसके घेरे में परेशानी होती थी 

और 
पैसा नहीं होने के बावजूद कार्यकर्ता के भरोसे चुनाव जीत लिया जाता था ।

सी पी राय जल्दी आओ

#जिंदगी_के_झरोखे_से -

#सी_पी_राय_जल्दी_जाओ_नही_तो_मेरे_भाई_को_मार_देंगे 

उस दिन एक बड़े नेता से काफी देर से बात हो रही थी पार्टी के मामलो और कार्यक्रमो को लेकर । लैंड लाइन का जमाना था । अभी फ़ोन रख कर चंद कदम ही चला था कि फिर फ़ोन की घंटी बज गई । वापस लौटा और फ़ोन उठाया तो उधर उसी नेता की बहुत घबराहट वाली आवाज सुनायी पड़ी - "सी पी राय जल्दी --- जावो नही तो वो लोग मेरे भाई को मार देंगे "। मैने बीच मे टोका लेकिन उधर से सुना नही गया और उनकी वही घबराहट वाली बात जारी रही -"मैं आप से देर से बात कर रहा था उधर ---( छोटे भाई की पत्नी ) लगातार फ़ोन मिला रही थी ।ज्योही आप से बात बंद हुई उसका फ़ोन आ गया । वो तो अच्छा हुआ की उसने ऊपर से देख लिया उसी समय वर्ना पता ही नही चलता की कौन ले गया और क्या हो गया ।5/6 दारोगा आये और नीचे वो बैठा था और आज और कोई नही था । दारोगाओ ने उसे उठा कर बोरे की तरह गाडी मे फेंका और लेकर भाग गये । आप जल्दी जाओ नही तो अनर्थ हो जायेगा "।
मैने कहा कि आप इतने बड़े है घबराइये मत कुछ नही होगा । मैं जो यहा से कर सकता हूँ कर के तुरन्त निकल जाऊंगा ।
वो बोले आप जितनी तेज चल सकते हो निकलो और पहुचो और मैं बाकी सबको कह दे रहा हूँ की सब लोग आप से बात करे की क्या करना है "।
मैने अपनी पत्नी से कहा कि जल्दी से कुछ कपडे और आवश्यक चीजे एक अटैची या बैग मे रख दीजिये पता नही जेल जाना पडे या कितने दिन रुकना पडे और कारण भी बता दिया ।
इसके बाद सबसे पहले मैने उस जिले के एस पी को फ़ोन मिलाया तो मेरा नाम सुन कर उसने बात नही करना चाहा और उधर से बहाना बना दिया गया पर मैने पेशबंदी के तहत उनके पी आर ओ को को ये बता दिया की मैं खुद उस जिले के लिए तुरंत निकल रहा हूँ और अखबार वालो को तथा काफी नेताओ को भी पहुचने को कह दिया है कि एकत्र हो आप की हरकत के खिलाफ और सब जगह तार करने के लिए भी भेज दिया है ।
इस बीच उस जिले क्या आसपास के जिलो से भी ज्योही फ़ोन खाली होता फ़ोन आ जाता ।मैने उस जिले वालो को कहा की संख्या मत देखो बस हल्ला करते हुये जहा उन्हे पुलिस ने रखा है वहा पहुचे ,मैं भी आ रहा हूँ और बाकी जिलो को कहा की भीड एकत्र कर मेरे अगले फ़ोन का इन्तजार करे ।
फिर उस जिले की डी एम को फ़ोन किया तो वो फ़ोन पर आ गये और उन्होने कहा की उनको कुछ पता नही मैं एस पी से बात करू । मैने उन्हे बताया की वो फ़ोन पर बात करने को तैय्यार नही तो मैं वही पहुच रहा हूँ और आज कुछ ज्यादा हो जायेगा उसकी जवाबदेही तो आप की ही होगी ।
इसी बीच मुझे याद आया की उस क्षेत्र के आई जी तो वो हो गये है जो मुझे एक दिन मिले थे संसद मे और अपना कार्ड दे गये थे की कभी सेवा का मौका दूँ । 
हुआ ये था की चंद्रशेखर जी उस वक्त प्रधानमंत्री थी और मैं उनसे मिलने संसद गया हुआ था किसी वजह से, वर्ना तो उनके घर मे ही  बेरोक टोक आवागमन था हम लोगो का ।
संसद के स्वागत कक्ष मे कुछ और साथी मिल गये जो अंदर जाना चाहते थे पर किसी सांसद से उनकी बात नही हो पा रही थी । तो मैने प्रधानमंत्री के कार्यालय मे फ़ोन कर उन सभी का पास बनवा दिया । ये आई जी साहब भी किसी से मिलने के लिए अंदर जाना चाहते थे पर उनसे सम्पर्क नही हो पा रहा था । इतने लोगो का पास बनवाते देख और ये देख की वहा सभी मुझे पहचानते है ,उन्होने अपना परिचय दिया और अपनी परेशानी बताया , उनका पास बनवा कर मैं उन्हे प्रधानमंत्री के कार्यालय मे ले गया और वहा चाय पिलवा कर ही उनको जिससे मिलने जाना था वहा जाने दिया । जाते जाते वो अपना कार्ड दे गये थे की कभी सेवा का मौका दूँ , देश के प्रधानमंत्री के कार्यालय की चाय से वो गदगद थे ।
मेरी याददाश्त काम कर गई और मैने पिछ्ली बार की ट्रांसफर लिष्ट मे पढा था कि वो इसी परिक्षेत्र के आई जी हो गये है ।
मैने तत्काल उन्हे फ़ोन मिलाया और उस तरह से उस गिरफ्तारी पर नाराजगी व्यक्त करते हुये ये भी बताया की मैं इस फ़ोन के बाद तुरंत वहा पहुच रहा हूँ तथा जो भी हो जाये इस बार आरपार की लडाई होगी । अगर ये सत्ता आग ही लगवाना और लोगो की जिन्दगी से ही खेलना चाहती है तो वही सही ।
आई जी ने मुझसे कहा की बस 5 मिनट दे दूँ फिर घर से निकलू ।
वही हुआ 5/7 मिनट मे ही आई जी का फ़ोन आ गया कि आप मत निकलिए उन लोगो ने मूर्खता किया है और मैने तुरंत सम्मान से छोड देने और उनकी कोई गाडी वहा न हो तो खुद घर पहुचाने के लिये कह दिया है और आप को फ़ोन करने के बाद डी जी पी और गृह सचिव को भी फ़ोन करूँगा अभी इस बारे मे ।
तब तक जो गिरफ्तार हुये थे उनकी पत्नी का फ़ोन आ गया की भाई साहब आप अभी तक चले नही ? मैने उनसे कहा कि मैने काम कर दिया है फिर भी अगर 15 मिनट मे छूटने की सूचना नही आये तो आप बताना । उन्होने तर्क करने की और आशंका व्यक्त करने की कोशिश की पर मैने उन्हे आश्वस्त किया । ये फ़ोन रखा ही था की उस बड़े नेता का फ़ोन आ गया की किसी ने उन्हे बताया है फ़ोन पर की ऊपर से कोई फ़ोन आया था और अब छोड रहे है । 
तभी उनका फ़ोन कट गया और फिर गिरफ्तार की पत्नी का फ़ोन आया की भाईसाहब आप का बहुत एहसास है ये जो हम कभी नही भूलेंगे,वो छूट गये ।
फिर बड़े नेता का भी दुबारा फ़ोन आ गया कि छोड दिया । पर वो जानना चाहते थे की मैने किया क्या की इस जालिम सरकार मे भी सुन लिया गया ।
मैने सिर्फ इतना कहा की आप बहुत बड़े है घबराना आप को शोभा नही देता और मैने कुछ भी नही किया बस आप के नाम से ही सब हो गया ।
वो नेता बोले की बताना नही चाहते हो ,हमे पढा रहे हो । हम जानते थे कि आप कुछ भी कर सकते हो इसिलिए बस आप को फ़ोन किया और बाकी सबसे कहा की आप के सम्पर्क मे रहे ।
मैने कहा की मैं क्या हूँ आप का अदना सा सिपाही और प्रणाम कह कर फ़ोन रख ही रहा था की फिर पूछा गया की आप ने किया क्या और मैने अनसुना कर प्रणाम कर फ़ोन रख दिया ।
जिन्दगी के झरोखे मे भी पता नही क्या क्या होता है ,जिसमे से कुछ आप को सुख देते है ,बहुत से दुख देते है और बहुत से घृणा पैदा करते है मन मे तो कुछ एहसास करवाते है की सी पी राय तुम औव्वल दर्जे के मूर्ख रहे जिंदगी भर और आज भी हो ।

नेता जी और मेरा घर

पुरानी यादो से ---
ये फोटो मेरे घर की और जब कार्यकर्ता इतने करीब होता था नेता के तब मेरे निवास पर जमा मेरे लोग जो हाथ के इशारे से जहा थे वही चुपचाप जमीन पर ही बैठ जाते थे और बिना समय की पाबंदी के कार्यकर्ता अपनी बात सीधे कहता था और फिर नेताजी का सम्बोधन और ये हर दौरे मे होता था |
मेरी कोशिश हर दौरे में होती थी की कार्यकर्ता के साथ साथ विभिन्न वर्गों से मुलाकात हो और जिनके घर कोई सुख दुःख हुआ हो उस कार्यकर्ता के घर नेताजी को जरूर ले जाऊँ और ये होता भी जरूर था |

जगजीवन राम

यादो से --विश्वविद्यालय के 1978 के दीक्षांत समारोह मेँ उप प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम से जब मुझे चार पुरष्कार और तीन चल वैजन्ती मिली थी , यह भी जीवन था हमारा

यथार्थ के आसपास का लोकार्पण

#जिन्दगी_के_झरोखे_से--
जब मेरी काव्य पुस्तक  :यथार्थ के आसपास: का लोकार्पण किया था #मुलायम_सिंह_यादव जी ने --
वो 11 नवम्बर 2012 का दिन था जब मुलायम सिंह यादव जी लखनऊ से केवल मेरी काव्य पुस्तक #यथार्थ_के_आसपास का लोकार्पण करने के लिए आगरा आये थे और उन्होने करीब 3 घंटे का समय लोकार्पण कार्यक्रम को दिया और फिर डेढ़ घन्टा मेरे घर पर भोजन तथा मेरे परिवार से बातचीत को ।
इस समारोह में मुलायम सिंह यादव ने जी ने ऐसा भाषण दिया की लोग आश्चर्यचकित रह गए ,यहाँ कोई राजनैतिक नेता नहीं बल्कि  एक साहित्यप्रेमी बोल रहा था और उस दिन वो भावनाओ मे बह कर दिल से बोल रहे थे , तभी तो ऐसी बाते कर गए जो कोई नेता नही कहता है और 45 मिनट के भाषण मे 3/4 बार भाऊक भी हो गए जिसमे आंखे भीग गई थी । 
उन्होने भाषण प्रारंभ करते हुये मंच और उपस्थित लोगो को संबोधित करने के बाद बोले की आज सी पी राय ने अपने इस कार्यक्रम मे मुझे बुला का मेरा सम्मान बढाया है । हो सकता है की आप लोगो को नही पता हो पर मैं अच्छी तरह जानता हूँ की सी पी राय का देश के बड़े बड़े लोगो से बहुत अच्छे सम्बंध है और वो चाहते तो किसी भी बड़े से बड़े आदमी से अपनी पुस्तक का लोकार्पण करवा सकते थे पर उन्होने मुझे बुला कर मुझे सम्मानित किया है । आज यहा मैं देख रहा हूँ की पद्मश्री प्राप्त साहित्यकार से लेकर कुलपति ,इतने प्रधानाचार्य ,प्रोफेसर,सभी बड़े डाक्टर , वकील , कवि , साहित्यकार , शहर के सभी जाने माने लोग मौजूद है और इतनी बडी संख्या मे है की हाल छोटा पड़ गया और काफी ज्यादा लोग बाहर ही रह गए ।सी पी राय का जो सम्मान समाज मे है और शिक्षा तथा साहित्य मे है वो इन्हे राजनीती मे नही मिल पाया । मैं मानता हूँ की इन्होने मेरे लिए और पार्टी के बहुत कुछ किया पर आज आप सभी के सामने मैं स्वीकार करता हूँ की मैने इनके साथ न्याय नही किया पर अब आप सबके सामने कहना चाहता हूँ की अब सी पी राय को सूद समेत सम्मान और स्थान राजनीती मे भी दिलवाऊंगा । 
इसके बाद वो भावना मे बह गए और बताने लगे कि आप लोग नही जानते होंगे की इन्होने दल और मेरे लिए क्या क्या किया है और फिर मेरे द्वारा किये गए काम और योगदान गिनवाने लगे कि कैसे बुरे वक्त मे क्या क्या किया ,क्या क्या योगदान दिया ,कैसे  भीड इकट्ठी कर लिया करते थे और कैसे मेरी सभाए और तमाम कार्यक्रम सफल बना देते थे ,फिर अचानक मेरी पत्नी को याद किया की वो आज दुनिया मे नही है और आप लोग जानते ही होंगे कि वो मुझे राखी बांधती थी ।ऐसी ही तमाम बातो के बाद वो मेरी किताब की कविताओ पर आ गए और चूंकि किताब पढ कर आये थे तो कई कविताओ का जिक्र कर उसकी प्रशंसा किया और ये भी कहा कि इस किताब मे मुझसे और पार्टी से शिकायत भी इशारे मे कर दी गई है ।
भाषण मे तीन बार वो भाऊक हो गए ।
कोई नेता कभी अपने किसी कार्यकर्ता के योगदान की चर्चा नही करता और ऐसे कार्यो की तो बिल्कुल नही जिससे ये पता चाले की अरे ये सब काम नेता के नही बल्की इस कार्यकर्ता की सोच के या योगदान के थे ।
पर भावना मे बह कर उन्होने वो सब कह दिया और ये भी स्वीकार कर लिया की तब तक उन्होने मुझे धोखा दिया था और ये वादा भी की अब ऐस नही होगा बल्की मुझे मेरा सब हक सूद सहित वो अब दिलवायेंगे ।
कार्यक्रम से वापस जाने के बाद महीनो तक जो भी उनसे मिलता उसके मेरे इस कार्यक्रम के बारे मे बताते और कहते की इतना भव्य कार्यक्रम उन्होने कभी नही देखा था । उनसे मिलने गई एक बडी राष्ट्रीय कवयित्री से उन्होने कहा की आप भी वैसा कार्यक्रम कभी करो । 
ये अलग बात है की कुछ दिन मे जब वादा निभाने और न्याय करने का सवाल आया तो पहले की ही तरह मुलायम सिंह यादव जी सब भूल गए और 2012, 2014 तथा 2016 तीन मौके आये पर वो पिछ्ले इतने सालो की तरह इन सालो मे भी भूले ही रहे ।
कार्यक्रम को हिंदुस्तान समूह के प्रधान संपादक शशिशेखर जी ने संबोधित की और वो तो बहुत अच्छे वक्ता है ही की जहा बोलते है छा जाते है पर उस दिन उन्होने मेरे साथ 70 के दशक के रिश्तो का कुछ ज्यादा ही निर्वाह कर दिया जो मन को भिगो गया । 
सरकार मे मंत्री अरिदमन सिंह , कुलपति ड़ा वी के सिंह , अंतरराष्ट्रीय ख्याति के होम्योपैथी डाक्टर डा पारीख ने भी संबोधित किया ।
हिन्दी संस्थान के निदेशक ड़ा हरिमोहन शर्मा जी ने पुस्तक की समीक्षा करते हुए गागर में सागर भर दिया और मेरी कविताओ को अर्थ दे दिया । 
स्वतंत्रता सेनानी और खुद भी कवयित्री रानी सरोज गौरहारी जी ने भी आशीर्वाद दिया तो सबसे बड़ा आशीर्वाद मंच पर मेरी माँ का था ,और कार्यक्रम का संचालन नाट्यकर्मी ,इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और आगरा विवि मे रूसी भाषा विभाग के प्रोफेसर जितेन्द्र रघुवंशी ने किया था ।
मेरा भी आत्मपरिचय और पुस्तक परिचय का प्रारम्भ मे ही उद्बोधन हुआ ।
कार्यक्रम से पहले मुलायम सिंह यादव का उपस्थित सभी महत्वपुर्ण लोगो ने स्वागत किया था ।
समरोह में पद्मश्री लाल बहादुर सिंह चौहान , शारदा विश्वविद्यालय के कुलपति ,आगरा के बडी संख्या मे प्रोफ़ेसर , कालेजो के प्राचार्य , शिक्षक , सभी बड़े  डाक्टर ,वकील , कवि  लेखक ,व्यापारी , उद्योगपति , समाजसेवी बड़ी संख्या में मौजूद थे । लोगो का स्नेह था की केवल फ़ोन पर मेसेज से आग्रह कर देने पर भी ये सभी सैकड़ो लोग पधारे  । 
तीनो बच्चे ख़ुशी बांटने को कार्यक्रम मे मौजूद थे ।
कार्यक्रम के बाद मुलायम सिंह यादव जी घर आये और उन्होने पहले ही कह दिया था प्रशासन से भी और मुझसे भी कि घर मे किसी को को नही आने देना है , मैं परिवार से मिलने आ रहा हूँ ।
घर भोजन किया ,बच्चो से बातचीत किया और फिर वापस लखनऊ चाले गए ।
इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया ने लाइव कवरेज के साथ दिल्ली से लेकर पूरे उत्तर प्रदेश में जिस तरह बड़ा कवरेज दिया वो भी उनका मेरे साथ स्नेह था ,सहारा और इटीवी ने लाइव प्रसारण किया था इस कार्यक्रम का शायद मेरी मित्रता के कारण वर्ना पुस्तक लोकार्पण का लाइव प्रसारण कौन करता है ।

राजीव गांधी ज़िंदाबाद और मुलायम सिंह ज़िंदाबाद

#जिन्दगी_के_झरोखे_से-
जब वो #राजीव_गांधी_जिन्दाबाद_बोलते_हुए_आये 
और #मुलायम_सिंह_जिन्दाबाद_करते_हुये_निकले
---एक ऐसा किस्सा जो न कभी देखा और न सुना होगा --
ये 1993 के विधान सभा चुनाव की बात है ।मैं समाजवादी पार्टी का महामंत्री और प्रवक्ता था ।आगरा मे जातिगत कारणो से पार्टी का कोई बहुत मजबूत आधार नही था पर मेरी अति सक्रियता और सतत संघर्ष से पार्टी कुछ ज्यादा ही नजर आती थी सड़क से समाचारो तक और चूंकि आगरा तीन मध्यप्रदेश और राजस्थान से भी जुड़ा है और आगरा मंडल ही नही इटावा तक के मीडिया का मुख्य केन्द्र है तथा आरएसएस का भी पच्चिमी उत्तर प्रदेश का मुख्यालय है और इस बड़े क्षेत्र का शिक्षा और चिकत्सा का तथा  बुद्धिजीवियो का भी केन्द्र रहा है और  मुलायम सिंह यादव जी की शिक्षा भी यही से हुई है तो उनकी भी आगरा मे ज्यादा रुचि रही और एक टोटका भी शायद उनके दिमाग मे लगातार रहा कि आगरा मे मैने पार्टी का एक तीन दिवसीय कार्यक्रम रखा और उसके बाद ही पार्टी की सरकार बन गई जो 2017 से पहले भी हुआ तो आगरा पार्टी की सक्रियता और प्रचार का केन्द्र था ।
चौ चरण सिंह के समय लोक दल को छोड दे जिसमे वो तीन विधान सभा सीट जीत जाते थे वर्ना 1977 से पहले जब पुरानी समाजवादी पार्टी जीतती थी कुछ सीटे, बाह से पहले स्वतंत्र पार्टी और बाद मे लोकदल से रिपुदमन सिंह जीतने लगे तो शहर से बालोजी अग्रवाल सोशलिश्ट पार्टी से जीते थे और 1977 मे भी शहर की तीनो सीट कांग्रेस ही जीत गई थी और बाकी जनता पार्टी जीती थी ।
1993 चुनाव से पूर्व जब मुलायम सिंह यादव के भाई रामगोपल यादव को राज्यसभा के टिकेट दिया गया तो चंद्रशेखर जी से जुड़े विधायको के पार्टी छोड देने के कारण बडा संकट आ गया था उस समय मैने जनता दल से दो वोट मैनेज किये थे बिना एक भी पैसा खर्च किये और बाद मे एतमादपुर के विधायक को पार्टी मे शामिल भी कर लिया ( इस चुनाव का किस्सा अलग से लिखूंगा ) ।  
खैर जो मूल किस्सा है जिसके लिए ये एपिसोड लिख रहा हूँ । 
जैसा मैने प्रारंभ मे ही लिखा की पूरी तरह जाति पर आधारित राजनीती के कारण आगरा मे पार्टी मजबूत नही था और मैंने कुछ छात्रो और नौजवानो को जोड़ कर पार्टी चलाना शुरू किया था और लगातार इस कोशिश मे रहता था की कुछ मजबूत लोगो को जोडू, कुछ लोग जुड़े तो कुछ वादा करते रहे पर एन चुनाव मे धोखा दे गए जिनसे हिसाब भी निपटाया मैने मौका पडने पर ।
विधान सभा चुनाव घोसित हो गया था और सभी टिकेट की जोड़ तोड मे लगे थे और चुनकी काशिराम से समझौता हो गया था जिनकी बसपा भी उस चुनाव से पहले तक केवल 11/12 विधायक की पार्टी होती थी और काशिराम भी हमारे ही अप्रत्यक्ष सहोयोग से 1991मे रद्द हुये इटावा जिले का चुनाव दुबारा होने पर इटावा से ही पहली बार सांसद बने थे । पर दोनो दलो के मिल जाने की चुनाव मजबूत हो गया था और 65/35% के फार्मूले पर टिकेट का वितरण होना था । आगरा कैंट की सीट पर मेरी भी निगाह थी क्योकी इस समझौते के कारण समीकरण जीतने लायक हो गए थे पर संसदीय बोर्ड की बैठक मे अध्यक्ष रामसरन दास जी ने ज्यो ही कहा की इस सीट पर सी पी राय को फाइनल कर दिया जाये इसमे कुछ और सोचने की जरूरत ही नही है तो बैठक मे बस इतने से काम के लिए आये रामगोपाल यादव ने जबरदस्त विरोध किया कि उनकी जाती के कितने वोट है वहाँ की टिकेट दिया जाये और मेरा टिकेट रुकवा कर बैठक से चले गए और बोर्ड ने ये मुद्दा मुलायम सिंह यादव के ऊपर छोड दिया । और बाद मे जो भी हुआ मुलायम सिंह यादव ने मुझसे कहा की चुनाव लड़ेंगे तो आप एक सीट पर फंस जायेंगे और वैसे आप इतनी सारी सीट पर जाते है और आप के भाषण की मांग भी रहती है तो छोड दीजिये चुनाव के बाद आप को मैं दिल्ली भेजूंगा आप वहाँ ज्यादा काम आयेंगे ।मैने विरोध भी किया कि आप ने तो 1989मे भी यही कहा था हरियाणा भवन मे संसदीय बोर्ड की बैठक मे की मेरा चुनाव देखिये और मैं मुख्यमंत्री बन जाऊंगा तो विधायक क्या होता है तो बोले की अब वैसा नही होगा मैं जुबान देता हूँ और मैं मांन गया और लग गया अच्छे प्रत्याशी ढूढने मे ।
#उस_दिन मैं आगरा की कलक्ट्री मे था एतमादपुर से चन्द्र भान मौर्य का परचा दाखिल होना था । तभी देख की कांग्रेस के चार बार के विधायक और कैबिनेट स्तर पर कृषी मंत्री रहे डा कृश्न वीर कौशल काफी लोगो के साथ राजीव गांधी जिन्दाबाद का नारा लगाते कांग्रेस के झंडे के साथ कलक्ट्री मे प्रवेश कर रहे थे ।वो पिछला दो चुनाव हार चुके थे और मुझे अच्छी तरह पता था की इस बार इनका टिकेट कट रहा है और कांग्रेस के दिग्गजो मे से एक को एक और ने किसी तरह पटा लिया है और टिकेट उन्ही को मिलेगा ।
बस मेरा दिमाग चल गया ।मैने डा कौशल को नमस्कार किया और उनके साथ साथ सीढिया चढ़ने लगा क्योकी उनका परचा ऊपर के कक्ष मे दाखिल होना था । मैने उनसे कहा की ये पक्का है की आप को टिकेट नही मिल रहा है बल्की फला को मिल रहा है तो बाद मे नाम वापस लेंगे ।आप चाहे तो मैं आप को टिकेट दे दूंगा । उन्होने बस इतना पूछा की क्या बाद मे बेज्जती तो नही होगी ।मैने कहा की मैने कह दिया तो समझ लीजिये हो गया आप कल मेरे साथ चलिये बी फॉर्म भी दिलवा दूंगा और मुलायम सिंह यादव जी से मिलवा भी दूंगा ।फिर क्या था पुराना परचा जेब मे रख नया तुरंत खरीदा गया और समाजवादी पार्टी के नाम का परचा भरा गया ।
आये तो डा साहब और उनके लोग थे राजीव गांधी का नारा लगाते हुये और कांग्रेस का झन्डा लिए हुये पर जब नीचे उतरे तो वही भीड मुलायम सिंह यादव का नारा लगाते हुये और सपा का झन्डा लिए हुये और पूरी कलक्ट्री तथा मीडिया इस भूतों न भविष्य्ते इस घटना पर हत्प्रभ था , और मेरे बारे मे क्या चर्चाये हुई उसके बाद शहर ,राजनीती और मीडिया मे ये समझा जा सकता है ।
टिकेट की लडाई , चुनाव , मेरी सभाए और मेरे भाषण के कैसेट की बिक्री और प्रदेश भर से उसकी मांग इत्यादि पर अगले एपिसोड मे लिखूंगा ।

ये कौन से राय है

#जिन्दगी_के_झरोखे_से--

#ये_कौन_से_वाले_राय_है ? 

( जिस सवाल ने पूरी जिंदगी पीछा नही छोडा और दीवार बना रहा किये का हक पाने मे भी )

1991का चुनाव हो चुका था और पार्टी सत्ता से बेदखल ही नही हुई थी बल्की बुरी तरह चुनाव हार चुकी थी ।
यद्दपि प्रदेश का चुनाव उस वक्त देखने के कारण मैं मुलायम सिंह यादव जी को बता चुका था कि 40 विधान सभा और 5 लोक सभा मुश्किल लग रही है और उनका कहना था कि सभी अधिकारी और सभी खुफिया एजेंसियां कम से कम 125 दे रही है ।
हुआ ये की 1989 मे पूरे महीने मुलायम सिंह यादव का चुनाव देखा था जब उन्होने हरियाणा भवन मे होने वाले संसदीय बोर्ड मे जिसमे मेरे पक्ष मे टिकेट को लेकर बहुमत था मेरा टिकेट यह कह कर कटवा दिया था कि मैं तो देश मे प्रचार के लिए जाऊंगा तो मेरा चुनाव कौन देखेगा ।मैं सी पी राय को टिकेट देने के खिलाफ नही हूँ पर वो मेरा चुनाव देखे और मैं मुख्यमंत्री हो जाऊंगा तो विधायक क्या होता है उससे ज्यादा उनको बना दूंगा और मीटिंग से निकल कर सबसे पहले जॉर्ज फर्नांडीज ने मुझे ये बताया और मैं समझ गया की खेल हो गया फिर भी प्रयास जारी रखा पर उनको ये टिकेट एक कांग्रेस से निस्कासित बदनाम व्यक्ति को देना था क्योकी इनका मानना था की बदनाम ही जीत सकता है जबकी विश्वनाथ प्रताप सिंह की लहर का चुनाव था और जो भी खड़ा होता उस सीट पर वही जीतता ।चौ देवीलाल जी मिले उन्होने भी यही कहा कि जिद मत कर वही मुख्यमंत्री होगा फिर के पता की राज्यसभा मे भेज दे या मंत्री बना दे एम एल सी बना कर ।
और मुझे इटावा मे आकर कैम्प करना पडा ।
जिला पंचायत के गेस्ट हाउस का एक नंबर कमरा रहने को मिल गया पर चाय तक पीने को दूर जाना पडता था और खाने स्टेशन के पास ।मुलायम सिंह यादव खुद सिचाई विभाग के गेस्ट हाउस का एक सूट अपना घर बना कर रहते थे क्योकी उनका बस गाँव मे ही एक साधरण सा घर था उस वक्त तक । बाद मे मुलायम सिंह यादव जी ने इन्तजाम कर दिया की उनके छोटे भाई राजपाल यादव मेरा इन्तजाम देखेंगे और भतीजे रनवीर मेरे साथ रहा करेंगे क्षेत्र के दौरे मे ।
उस वक्त इटावा शहर मे एक घर मे ऊपर की मंजिल पर राजपाल यादव और शिवपाल यादव दोनो एक साथ छोटे छोटे हिस्से मे रहते थे ।
राजपाल यादव ने ये तय किया की मेरा दोनो समय का खाना उनके और शिवपाल यादव की संयुक्त रसोई मे होगा दोनो समय पर और दोनो की पत्नियाँ अपने हाथ से बना कर दोनो समय खाना खिलाने लगी ,उस वक्त तक किसी के पास नौकर नही था ।
एक ऐसा दिन भी आया की मुलायम सिंह यादव सुबह 6 बजे बहुत नाराज होकर बोले की आप इटावा छोड दीजिये और जनेश्वर जी के चुनाव को देखिये इलाहबाद जाकर ।कारण ये था की मैं कही भी चला जाता और थोडे लोग भी होते तो भाषण करने लगता जबकी उस वक्त तक स्थिति ये थी कि जब तक 15/20 राइफल इकट्ठा न हो जाये मुलायम सिंह यादव खुद भी प्रचार मे नही निकलते थे क्योकी सामने दर्शन सिंह यादव थे जो बहुत मजबूत थे उस वक्त तक जब तक मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमंत्री बन कर उनको भाग कर दिल्ली मे रहने को मजबूर नही कर दिया  पुलिस और सत्ता के सहयोग से ।
ये अलग बात है की बाद मे उनको पार्टी मे लाकर राज्यसभा भी दिया और दर्शन सिंह जी मेरे तो पहले ही दोस्त बन गये थे एक मुलाकात मे और ये शिकायत करते हुये की राय साहब मैं सोचता की ऐसा कौन आ गया जो मेरे घर मे घुस कर मुझे चुनौती दे रहा है और उन जगहो का नाम भी गिनाया जहा मैने उनके खिलाफ आग उगला था ।
मुलायम सिंह यादव ने कहा की आप को पता है की आप जहा यू ही चले जाते हो भट्ठे मे झोंक दिये जाओगे हड्डियां भी नही मिलेंगी की आप के परिवार को लौटा सकूं ।
आप अभी इलाहबाद निकल जाओ ।
मैने जवाब दिया की आप ने जो कहा था बोर्ड की बैठक मे वो याद रखो और मैं कही नही जाऊंगा ।किसी की औकात नही मुझे मारने की ।मेरी मौत ईश्वर ने जैसे तय किया होगा वैसे होगी उसकी चिंता आप मत करो ।
और मैं चुनाव तक वही रहा मुलायम सिंह यादव जी जीत भी गये और मुख्यमंत्री भी बन गये ।
पर मुझसे मुलाकात फिर तब हुई जब सरकार जाने का दिन आ गया और नये चुनाव की घोषणा हो गई ।
इस चुनाव मे मुलायम सिंह यादव ने मुझे लखनऊ रह कर प्रदेश की चुनाव व्यव्स्था देखने का काम सौपा । तब तक गेस्ट हाउस मे रुकने पर रोक नही थी इसलिए मैं स्टेट गेस्ट हाउस मे रुक गया और मेरे बगल वाले कमरे मे अटल बिहारी वाजपेयी जी रुके थे जो लोक सभा चुनाव लड़ रहे थे । हम दोनो के कमरे की बालकनी एक ही थी ( ये किस्सा बाद मे ) वैसे वही गलती किया मैने जो  1977 मे आज़मगढ़ के उप चुनाव मे  इन्दिरा गाँधी जी से मिलने के बाद किया था ।
इसी बीच किसी काम से मैं दिल्ली गया ,किसी काम क्या उस वक्त हमारी सरकार मे केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री सुब्रमण्यम स्वामी के यहा से कुछ सामान लाना था (ये किस्सा भी बाद ने ,और न लिखू तो कोई याद दिला दे क्योकी इसमे एक सच का दर्शन होगा ) ।
दिल्ली से लौटते हुये मैं आगरा नही रुका बल्की इटावा रुका और खाना खाने राजपाल यादव और शिवपाल यादव के घर रुक गया । तभी वहा मुलायम सिंह यादव भी आ गये क्योकी किसी बच्चे की उंगली जल गई थी ।
हम दोनो खाने बैठे और उन दोनो की पत्नियाँ खाना लगा रही थी और ताजी रोटियां परोस रही थी । मुलायम सिंह यादव ने मुझसे पूछा की आप प्रदेश का चुनाव देख रहे है क्या लग रहा है ? मैने कहा की 40 विधानसभा और 5 लोक सभा हो जाये तो काफी है ।वो बोले की सभी अधिकारियो और खुफिया की रिपोर्ट तो कम से कम 125 की है ।
मैने कहा की 225 हो जाये तो मुझे खुशी होगी ।
उन्होने मेरा दिल्ली का काम पूछा और आगे का कार्यक्रम फिर मैं लखनऊ आ गया और वो अपने गन्तव्य को ।
चुनाव परिणाम आया जिसमे चन्द्रशेखर जी सहित हम केवल 4 लोक सभा चुनाव जीत पाये और 30 से भी कम विधायक ।
(बाकी चुनाव के बाद का किस्सा अगले एपिसोड मे )
एक दिन मुलायम सिंह यादव का फ़ोन आया की वो आगरा आ रहे है । आगरा मे राजस्थान के पुराने समाजवादी नेता पंडित रामकिशन जो 1977 मे भरतपुर से सांसद भी रह चुके थे उनके परिवार की बेटी की शादी थी ।
आगरा के बॉर्डर पर हम केवल 9/10 लोग अगवानी करने वाले थे जिसमे एक पूर्व मंत्री थी और भट्ठो का मालिक थे तथा उनके पास जीप थी और दूसरा मै जिसके पास अपनी कार थी और मेरे साथ 6/7 लडके ।
मुलायम सिंह यादव ने मुझे अपनी गाडी मे बुला लिया और मेरी गाडी एक कार्यकर्ता चलाने लगा ।शादी का कार्यक्रम खत्म कर हम लोग वापस उनको इटावा जाने के लिए जब छोड़ने वापस आने लगे तो मुलायम सिंह यादव के साथ बिहार के एक नेता भी आये थे हरेन्द्र नाथ प्रसाद और आते वक्त से इस वक्त तक वो मेरी और मुलायम सिंह यादव जी की लगातार चर्चाये सुन कर कुछ विचलित थे ।कुछ दूर चलते ही उन्होने मुलायम सिंह यादव से पूछा की साहब एक बात पूछना है । मुलायम सिंह यादव ने उनकी तरफ देखा की क्या तो बोले की ये जो राय साहब है ये हमारे बिहार वाले दारोगा प्रसाद राय ( जो यादव थे और कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे थे ) वाले राय है या कल्पनाथ राय वाले राय है (जो भूमिहार थे और इन्दिरा गाँधी के बहुत प्रिय और केन्द्र मे मंत्री ) ? कि आप इनपर इतना भरोसा जता रहे है ।
मुलायम सिंह यादव को शायद ऐसे सवाल की उम्मीद नही थी तो थोडा अचकचाये ,थोडा रुके और बोले कि ये कल्पनाथ राय वाले राय है पर नेताजी यानी राज नारायण जी के बहुत करीबी रहे है और प्योर सोशलिस्ट है और पूरे भरोसे के ।
मैने महसूस किया था उस वक्त की हरेन्द्र बाबू असली जाति  सुन कर अभी भी आश्वस्त नही हो पाये थे ये अलग बात की बाद मे मेरे प्रशंसक हो गये थे ।
कितने खट्टे मीठे अनुभव से भरी है मेरी जिन्दगी भी ।

१९८९ देवीलाल जी मेरा टिकट , मुलायम सिंह का चुनाव

#जिन्दगी_के_झरोखे_से

पहले #हरियाणा के #मुख्यमंत्री और फिर #देश के #उप_प्रधानमंत्री चौ #देवीलाल का भी मुझे बहुत स्नेह प्राप्त था ,उनके हरियाणा भवन या राष्ट्रपति भवन के गेट नम्बर ३६ के अंदर उनके घर जाना होता था तो घर के पीछे के लॉन में मिलते थे बातें पूछते और कुछ खिला कर ही जाने देते ।
उप प्रधान-मंत्री के रूप मे उन्होने मेरे घर का कार्यक्रम बनाया , जनता दल क्या पूर्ण विपक्ष का एक सबसे बडा स्तम्भ और धुरी बन गए थे उस वक्त वो और देश के सारे नेता उनकी तरफ देखने लगे थे, वही प्रेरणा थे , वही फैसलाकुन होते थे और उन्ही की सहयता पर सब आश्रित हो गए थे ।
वो तो मुझे 1989 का चुनाव भी लड़वाना चाहते थे और संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष के नाते उनका फैसला आखिरी होता और बोर्ड के सदस्यो मे से बहुमत मेरे पक्ष मे था ।
पर हरियाणा भवन मे बोर्ड की बैठक मे  मुलायम सिंह यादव जी ने ये कह दिया की मैं देश मे प्रचार करूँगा तो सी पी राय मेरा चुनाव देखेंगे और जब मैं मुख्यमंत्री हो जाऊंगा तो फिर एम एल ए और एम पी क्या होता है उनका ऐसा स्थान हो जायेगा । बोर्ड की बैठक से आकर पहले जॉर्ज फर्नांडीज साहब ने कहा की जब होने वाला सी एम आप को अपना चुनाव इंचार्ज बनाना चाहता है तो चुनाव मत लडो उसका काम देखो ।फिर विश्वनाथ प्रताप सिंह और अन्य भी निकल कर यही बोले ।
एक दिन सुबह 4 बजे अशोका होटल दिल्ली मे भी कुछ ऐसा ही हुआ और फिर दिल्ली एयरपोर्ट के वी आई पी लाऊन्ज मे ।
वो सब किस्से फिर कभी ।
मैं मुलायम सिंह यादव जी के पूरे चुनाव मे जान की बाजी लगाकर जुटा रहा कि एक दिन वो बहुत गुस्से मे बोले की यहा से इलाहबाद जनेश्वर जी के यहा चले जाओ वर्ना आप की यहा हड्डियां भी नही मिलेंगी भट्टे मे झोंक दिये जावोगे जैसा दुस्साहस आप कर रहे हो ।
मेरा जवाब क्या था वो जाने देते है 
पर मैं रिजल्ट तक वही डटा रहा ।
बल्की मुलायम सिंह यादव जी अपने क्षेत्र के दौरे मे मुझे साथ रखते और अपने से पहले मेरा भाषण करवाते थे ।जो क्रम 1993 के बद तक के चुनावो मे भी चलता रहा की उनकी सभावो मे उनसे पहले मेरा भाषण होने लगा सब जगह ।
और बाद मे या आज तक क्या हुआ वो लिखने की जरूरत इसलिए नही की सब जानते है ।

रामगोपाल यादव का चुनाव

#जिंदगी_के_झरोखे_से-'
#रामगोपाल_यादव_का_पहला_राज्यसभा_चुनाव

ये 1992 की बात है । मैं मुलायम सिंह यादव के घर गया था उनके बुलाने पर । तब वो 5 विक्रमादित्य मार्ग पर अकेले रहते थे और नीचे कोने मे छोटे से कमरे मे जगजीवन बैठता था जो तब तक टाईपिष्ट , खजांची ,व्यक्तिगत टेलिफोन ओपरेटर सहित सब बन चुका था और नीचे पायजामा तथा ऊपर कमीज पहनता था ।
बाहर गेट पर छोटी सी गुमटी बनी थी जिसमे सुरक्षा बैठती थी ।
मेरे लिए कोई रोक टोक नही थी कही भी जाने की ।
गेट पर राम अवतार शाक्य विधायक मिला जो अंदर से आ रहा था और उसकी आंखो मे आँसू थे । मुझे देख कर रुक गया ।मैने पूछा कि क्या हो गया तो बोला की मुलायम सिंह यादव ने डांट कर भगा दिया जबकी वो कुछ जरूरी बात करने आया था और आज पार्टी बुरी दशा मे है फिर भी ये बेइज्जती तो कोई पार्टी मे क्यो रहे ? मैने उसकी पूरी बात सुना और फिर बाहर ही उसे रोक दिया की वो मुझसे बिना मिले नही जायेगा ।मेरी आदत थी ये सबको जोडना । 
मैं अंदर गया ।मुलायम सिंह यादव तनाव मे टहल रहे थे । मैने पूछा कि क्या हो गया ? वो बोले की चंद्रशेखर जी के 4 विधायक पार्टी छोड गये और उन्होने अपने भाई को राज्य सभा उम्मीदवार घोसित कर दिया है अब क्या राजनीति करेंगे और क्या मुह दिखाएँगे ।
मैने कहा की पार्टी चंद्रशेखर जी के लोगो ने छोडा है और गुस्सा आप अपनो पर उतार रहे है इसका क्या मतलब है ।तो बोले की मूड ठीक नही फिर भी लोग चले आ रहे है ।मैने कहा उनको क्या पता ,आप गेट पर बोर्ड लगवा दीजिये मूड़ ठीक नही ।
तो चुप हो गए । मैने कहा की राम अवतार शाक्य को मैने रोक दिया है बाहर पहले उसे बुलाइए और अच्छी तरह बात करिए फिर बात करते है ।
उन्होने उसे बुलाया ,खेद व्यक्त किया और मिठाई खिला कर विदा किया ।फिर हम दोनो ड्राइंग रूम में बैठ गये ।
मैने कहा हमारे पास 25/26 विधायक बचे है , यदि मैं 2 विधायक का इन्तजाम कर दूँ तो क्या आप और बाकी लोग मिल कर 2/4 का इन्तजाम नही कर सकते ?  वो बोले की आप कैसे करेंगे ? बहुत पैसा मांगेंगे लोग और हम कहा से देंगे ? 1989 की सरकार मे उन्होने लूट नही किया था । मैने कहा की एक भी पैसा मेरे लोगो को नही देना होगा ।मैने कहा की अकसर आखिरी व्यक्ति 30 के आसपास वोट पर जीत जाता है । वो बोले की कोई निर्दलीय पूंजीपति खड़ा हो गया तो नही होगा ।
तब मैने कहा की काशीराम जी फला तारीख को कानपुर आ रहे है आप भी चले जाईये और यूँ ही उनके रूंम मे चाय पीने चले जाईयेगा सर्किट हाउस में ।
उन्होने कहा की काशीराम ने बयान दिया है कि वो चुनाव मे हिस्सा नही लेंगे ।
मैने कहा की बयानो का क्या अर्थ आप जाईये तो और मिल गया तो सीधे 11/ 12 वोट मिल जायेंगे ।
फिर हम लोगो ने चाय पिया और वही हुआ ।मुलायम सिंह जी की काशीराम की बात हो गई और वही 1993 मे दो दलो के समझौते की बुनियाद बनी ।
इस बीच जीवन मे पहली बार मैने गाडी के शीशो पर काली फिल्म लगवाया जो चुनाव के बाद हटा दिया ।
जनता दल के विधायक चन्द्रभान मौर्य और ओम प्रकाश दिवाकर को काली शीशे वाली गाडी मे ले जाकर मैने मुलायम सिंह यादव से मिलवाया और फिर कुछ और लोगो को भी ।
और अन्ततः रामगोपाल यादव अच्छे वोट से जीत गये ।
मुझे वो दृश्य भी याद है जब चुनाव जीतने के बाद सब लोग विधान सभा से राज भवन कालोनी के दफ्तर तक पैदल गये थे और मैं मुलायम सिंह यादव के साथ गाडी मे ।
पार्टी ऑफिस मे छोटा सा तखत लान मे रखा था उस पर मुलायम सिंह यादव ,राम सरन दास सहित हम कुछ लोग बैठ गये और बाकी सभी सामने नीचे लान मे जमीन पर और रामगोपाल जी सबसे पीछे ।
मैने उस कार्यक्रम का संचालन कर रहा था ।मैने मुलायम सिंह यादव से धीरे से कहा की रामगोपाल को मंच पर बुला ले आज उनका दिन है तो उन्होने मुझे धीरे से डपट  दिया की वही बैठने दो ,दिमाग खराब मत करो और मैं चुप हो गया ।
इससे पहले बैकग्राउंड ये है कि एक दिन दिल्ली के अशोका होटल मे चाय पीते हुए मुलायम सिंह यादव ने अचानक कहा की सी पी राय क्या आप को पता है कि रामगोपाल के बेटे भूखे मर रहे है ?
मैने कहा की वो तो डिग्री कालेज मे टीचर है और गाँव मे खेतो भी है तो भूखे कैसे मर रहे है ? फिर उन्होने ना पचने वाले तर्क दिये और मैं बात समझ गया और कह भी दिया कि भाई साहब आप उन्हें राज्य सभा देना चाहते है तो देगे ही पर उसके लिए ये सब बाते करने की क्या जरुरत है ।
मुझे अगली बार दे दीजियेगा । जो मौका कभी नही आया 
और रामगोपाल ने जिदंगी भर पता नही किस बात की मुझसे दुश्मनी निभाया की फिर कुछ मिलने ही नही दिया जो मेरा हक था और जिससे पार्टी का भी भला  ही  होता ।

संगम यात्रा

#जिन्दगी_झरोखे_से --

जब सुबह जगा कर एडीएम साहब #संगम ले गए थे --

उस दिन सुबह संगम के दृश्य । न जाने कितनी बार आया था #इलाहबाद पर उस दिन सुबह उठ कर उगते हुए सूर्य की किरणों के साथ संगम जाना और वहा दो नदियो या कहे की दो संस्कृतीयो और दो बहनो गंगा और यमुना का मिलन देखना सचमुच बहुत सुखद अनुभूति रही ।
एक दिन पहले कलक्टर साहब से बात हुई थी तो बोले की संगम गए है या नही और नही कहते ही उन्होने फरमान सुना दिया की सुबह तैयार रहियेगा फला एडिएम साहब संगम प्रेमी है वो  आप को ले जायेंगे । मैं सोचने लगा कि कहा मेरे मुह से नही निकल गया , क्या सचमुच इतनी सुबह आ जायेंगे एडीएम साहब , ना आये तो अच्छा । पर वही हुआ सुबह ही करीब 4,45 पर एडीएम साहब ने सर्किट हाऊस जो कलक्टर साहब जो मेरे मित्र थे उन्होने ही बुक करवाया था के मेरे कमरे का दरवाजा खटखटा दिया और फिर उनके साथ गाडी पर संगम जाना ही पडा ( किसी मुसीबत की तरह जो मेरे चेहरे पर साफ दिख रही है फोटो मे , पर वहा पहुच कर थोडी देर बाद एहसास हुआ की सचमुच मैं आज के पहले एक बहुत अच्छे अनुभव और मनोरम दृश्य से वंचित था ) जहा एक शायद सरकारी वोट तैयार थी और ए डी एम साहब के कोई नीचे वाले कोई कर्मचारी पहले से ही पहुच कर तैयारी किये हुये थे ।
खैर --
प्रयाग का संगम 
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सूरज उग रहा था और उनकी किरणे गंगा और जमुना के हरे और सफ़ेद पानी को सुनहरा बना रही थी ।क्या मनोहारी दृश्य था और इतनी सुबह की आस्था का सैलाब उमड़ा हुआ था ।ना जाने कितनी नावो में भरे हुए लोग इस ठिठुरती ठण्ड की परवाह किये बिना आये हुए थे की बिलकुल संगम स्थल पर ही आचमन लेंगे या डुबकी लगाएंगे ताकि ,जो भी उनकी मनोकामना या इच्छा हो । बहुत बड़ी संख्या में चिड़ियों को झुण्ड भी चारो तरफ कलरव कर रहा था ।मैं पूछ नहीं पाया की ये चिड़ियाँ  यहाँ स्थायी रूप से मौजूद रहती है या जाड़े में सूदूर बर्फीले इलाके से साइबेरिया इत्यादि से आई हुयी है इस वक्त ।ये जानकारी कोई दे सके तो आभार व्यक्त करूँगा ।
मुझे उस दिन पहली बार पता लगा की संगम के किनारे का किला अकबर ने बनवाया था ।कही नहीं वर्णन आ पाया होगा मेरे अध्ययन में ।अब जानना पड़ेगा की अकबर ने संगम को किला बनवाने को क्यों चुना और हर बात में विवाद ढूँढने वाले लोग  इसमें कोई विवाद नहीं ढूढ़ पाये क्या ।इस पर बाद में अध्ययन करने पर लिखूंगा ।
मेरे दो संस्कृतियो पर बहस छिड़ सकती है क्योकि दोनों  एक ही इलाके में है और मिलन के बाद तो बस गंगा बचती है और विलीन हो जाती है उसमे यमुना , सरस्वती कहां से निकलती है और कब विलीन हो जाती है रहस्य ही बना हुआ है ।
हां तो संस्कृति पर बहस की बात मैंने जान बूझ कर छेड़ा है । यद्यपि यमुना का हरा जल कुछ साफ़ दीखता है यहाँ पता नहीं कैसे जबकि इसके पीछे यमुना पूरी तरह गन्दी दिखती है लेकिन इस हरे रंग के किनारे की संस्कृति कुछ अलग है और उसका खुलकर वर्णन कर दूंगा तो विवाद बढ़ जायेगा । पर इस दो संस्कृति का मेरा आशय और अनुभव भी क्या है कभी लिखूंगा जरूर ताकि मेरी समझ भी साफ़ हो सके । हो सकता मैं जो समझ रहा हूँ उसमे कुछ पेंच हो या मेरे ही मन में किन्ही लोगो या घटनाओ के कारण कुछ खराश हो ।
गंगा का पानी सफ़ेद और कुछ मटमैला दीखता है संगम पर पर गंगा का किनारा पकडे हुए संस्कृति मटमैली नहीं दिखती ।
बताया गया की संगम पर गंगा और यमुना में भी एक युद्ध चलता रहता है । मैं कहूँगा की दो बहनो की आपसी अठखेली होती है या छेड़छाड़ । पर संस्कृति की बड़प्पन की लड़ाई भी हो सकती है ।
कभी गंगा यमुना को पीछे धकेल देती है तो कभी यमुना गंगा को, पर ये पता नहीं चलता की इस लड़ाई में सरस्वती की भूमिका क्या रहती है , तटस्थ एम्पायर या रेफरी की या बस मजा लेते हुए तीसरे व्यक्ति की ।
पर ये सच्चाई तो कबूल करना ही पड़ेगा की अंत में जीत जाती है गंगा और विलीन हो जाता है उसमे सब कुछ , अस्तित्व , संस्कृति , रंग , स्वाद और दोनों नदिया और फिर हथिनी की चाल से गौर्वान्वित चलने लगती है और गंगा भी विलीन हो जाने के लिए अपने से भी बड़े अस्तित्व में ताकि जीवन , मरण और फिर जीवन का चक्र पूरा हो सके ।
फिर समुद्र से भाप बन कर उड़ता है नया जीवन और नई तरह के जीवन बरस पड़ते है उससे जो फिर कही ताल तलैया , तो अलग अलग क्षेत्र में कोई गंगा , कोई यमुना , कोई राप्ती और कोई सरयू जैसा जीवन पाकर चलती रहे ताकि जीवो का जीवन चलता रहे ।
शायद मैं दर्शन से दर्शन की तरफ चला गया ।पर मुझे याद नहीं की इससे पहले उगता हुआ सूरज कब देखा था ।शायद जब कन्याकुमारी गया था नेता जी के साथ ।
इस सब दृश्य के बीच मोटर बोट मंथर गति से नदियो का सीना चीरती हुयी चली जा रही थी और वहां ले जाने वाले साथी वहां के बारे में , ऐतिहासिकता के बारे में और पुण्य के बारे में वर्णन करते जा रहे थे ।उन्होने आज बताया की यदि संगम नहीं आये तो सब तीर्थ बेकार है तो मन में बरबस आ गया की मैं तो कभी किसी मंदिर ही नहीं गया तीर्थ तो बड़ी बात है ,और तब तो यहाँ आकर भी मैं पुण्य का भागी नहीं बन पाया । वैसे ही शीत प्रकृति के कारण डुबकी लगाने का मतलब कुछ दिनों डॉ0 मित्रो की सेवा में रहना हो जाता पर दृश्य सचमुच ऐसा की मैं लिखे बिना नहीं रह सकता था । शायद ऐसे दृश्य ही लोगों को अपनी तरफ खींचते है और यही खिंचाव आस्था बन जाती है । अब तो साधन हो गए पर जब साधन नहीं रहे होंगे तब जो विलीन हो जाते होंगे इन दृश्यों के आगोश में वो स्वर्ग में जाने वाले और ईश्वर के बुलावे वाले वर्ग में शामिल हो जाते होंगे और जो वापस चले जाते होंगे घर वो ईश्वर की और संगम की कृपा से बच जाने वाले वर्ग में शामिल हो जाते होंगे और इसकी विषद व्याख्या अपने अपने जजमानों को सुनाने वालो की भी काफी तादात होती ही है ।
पर पुण्य मिले या न मिले क्योकि अभी तक कोई प्रमाणिक दस्तवेज और अध्ययन नहीं है जो साबित कर सके की पुण्य क्या है और किस किस को मिला तो क्यों और कैसे मिला और संगम में गहरी डुबकी मार कर भी जिन्हें नहीं मिला क्यों नहीं मिला ।
संगम पर ही जिंदगी जीने वाले मछुवारे ,नाव चलाने वाले और रोज नित्यकर्म से लेकर यही नहाने वाले तो पुण्य से मालामाल हो गए होंगे तो उनके जीवन में क्या विशेष है ये अध्ययन का विषय हो सकता है और शायद शोध से कुछ जानकारी मिले । फिर भी करोडो की आस्था का केंद्र है संगम तभी तो इतने कष्ट सह कर करोडो लोग यहाँ कल्पवास करते है और डुबकी लगाते है । आस्थाएं शायद लोगो को अतिरिक्त ताकत देती और भरपूर ऊर्जा भी ।
जी हां पुण्य मिले या न मिले पर उसी संगम के दर्शन कर लिए आज मैंने भी इतनी सुबह जाकर और इस सुबह जाने की मानसिकता और दबाव में पूरी रात नहीं सोकर तो इस कष्ट के लिए कुछ तो मिलेगा ही ।
पर ये सुबह का दृश्य की किसी भी मायने में कन्याकुमारी के सुबह के दृश्य से पीछे नहीं है और इसे सैलानियो को आकर्षित करने के लिए प्रचारित किया जा सकता था । उस दिन मुझे एहसास हुआ की मेरा प्रदेश किस कदर सुस्त ,दिशाहीन और संकल्पहीन है की राजस्थान अपनी रेट की मार्केटिंग कर लेता है ,कश्मीर , शिमला और अन्य अपनी बर्फ और ठंड, तमिलनाडु कन्याकुमारी का सूर्योदय जो ज्यादातर दिखता ही नही बादलो के कारण इसलिए कह रहा हूँ की जब मैं गया था मुलायम सिंह यादव के दौर मे  कन्याकुमारी तब रात भर जगा बैठा रहा बाल्कनी मे की कही सोता न रह जाउँ और सुबह बस हो गई बादलो मे छुपी हुई ,केरल से लेकर महाराष्ट्र तक समुद्र का किनारा ,तो चेरापूंजी अपनी बारिश और हरियाली ,भूटान सिक्किम मेघालय अरुणाचल अपने पहाड़ और दृश्य तो अमरीका तो बस यू ही किसी भी चीज पर मोटा टिकेट लगा कमा रहा है तो क्या चीज नही है उत्तर प्रदेश मे , साथ ही बिहार और मध्यप्रदेश इत्यादि मे भी , बस सैलानियो के लिए सुरक्षा का भाव अपराधियो और शोहदो से और पुलिस की लूट तथा कमाई के लिए परेशान करने वाली प्रवृति से , और अभाव है मार्केटिंग के लिए भाव , समर्पण ,इरादा और व्यव्स्था की ।
ले दे कर एक ताज महल, या बनारस का घाट भी कुछ लोगो को आकर्षित करता है ।
चलिये इस मुद्दे पर विस्तार से फिर कभी ।
बोलो गंगा मैया की जय (क्योकि जय केवल विजेता और शक्तिशाली की ही बोलने की परम्परा है तो मैं भी इस परम्परा को क्यों तोडू )।