शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

प्रोफेसर साहब

प्रोफेसर साहब --


प्रोफेसर साहब मेडिकल कालेज के नामी गिरामी प्रोफेसर थे । नाम बडा था ज्ञान भी था ही पर ? जाने देते है ।
जब मेनचेस्टर कहे जाने जिले के मेडिकल कालेज मे प्रोफेसर थे तो उनका  लडका भी वही छात्र हो गया था पता नही अपनी मेहनत से या पिता की जुगाड से । बेटे के साथ एक बहुत कुशाग्र छात्र भी पढता था जो तीन साल तक लगातर प्रथम आता रहा । चौथे साल मे प्रोफेसर साहब का माथा ठनका की उनके रहते हुये कोई और छात्र कैसे टॉपर हो सकता है, बस लग गये और चौथे तथा अंतिम साल मे बेटे को टाप करवा ही दिया ।
समय ने करवट लिया और प्रेम के स्मारक वाले शहर के मेडिकल कालेज मे प्रोफेसर साहब हेड बन कर आ गये और जिस अपने छात्र को उन्होने टॉप नही करने दिया था वो भी अध्यापक बन कर उसी कालेज मे आ गया ।थोडे दिन मे प्रोफेसर साहब का दूसरा बेटा इसी कालेज मे दाखिल हो गया । उसकी परीक्षा का अवसर आया तो जिसका नंबर घटा कर पीछे किया था उनसे ही सिफारिश किया अपने दूसरे बेटे को प्रथम स्थान पर पहुचाने की ।
प्रोफेसर साहब ने अपने दोनो बेटो को अमेरिका भेज दिया और खुद लग गये पैसा बटोरने मे । पैसा दांत से पकडते थे प्रोफेसर साहब और शहर मे सबसे ज्यादा फीस वसूलते थे ,कोई रहम नही । कोई बहुत गरीब और जरूरतमंद हो तो गिड़गिड़ा कर मर जाये पर मजाल क्या कि प्रोफेसर साहब का दिल पिघल जाये ।
प्रोफेसर साहब अब बूढे हो चले थे तो सोचा चले कुछ दिन दोनो बेटो के घर अमरीका मे बिताये और मन लग गया तो भारत का घर इत्यादि बेच कर पति पत्नी वही बच्चो के पास रह जायेंगे । बड़े अरमानो और जोश से टिकेट करवा कर अमरीका बड़े बेटे के घर पहुचे । कुछ दिन तो सब ठीक चला पर फिर बेटे से खटपट होने लगी छोटी बड़ी बात पर और बात यहा तक पहुची की बेटा उनके मुह पर ही बोल देता कि क्यो बिला वजह जिन्दा हो ? क्या बक बक करते हो ?  शाम तक मर क्यो नही जाते ।
और एक दिन बेटे ने घर से जाने का फरमान सुना दिया तब छोटे बेटे को फ़ोन किया पर वो लेने ही नही आया और रुखी से बात कर फोन काट दिया । छोटे बेटे से बोले कि टिकेट होने तक अपने घर ले चलो और फिर बस हवाई अड्डे तक छोड देना, पर वो नही आया ।निराश ,उदास,अपमानित  प्रोफेसर साहब भारत अपने घर लौट आये ।

पत्नी गम्भीर बीमार हो गई तो वही काम आया जिसके नंबर कम कर अपने बेटे को टॉप करवाया था । उन्होने पत्नी का ऑप्रेशन किया । कुछ ही दिन मे प्रोफेसर साहब गम्भीर रूप से बीमार हो गये तो उसी डाकटर साहब ने उन्हे अस्पताल मे भर्ती किया और लगातार उनकी देखभाल किया । पर लगता है कि बीमारी से ज्यादा मन की टूटन ने प्रोफेसर साहब को जख्मी कर दिया था अंदर तक और वो एक दिन उदासी चेहरे पर ओढ़े हुये चल बसे ।
सवाल आया कि दो बेटे है उन्हे खबर कर दिया जाये और उनके इन्तजार मे शरीर को संरक्षित कर रख दिया जाये । बेटो को खबर की गई पर दोनो ने ही आने से इंकार कर दिया कि एक मर गये आदमी को बस आग लगाने को वो अमरीका से नही आ सकते । अन्ततः प्रोफेसर साहब के नौकर ने उनका अंतिम संस्कार किया और उस वक्त मुट्ठी भर केवल वो लोग वहाँ मौजूद थे जो उनके कुछ नही लगते थे पर जिनको पढाया था या जो साथ मे शिक्षक थे और जिन्हे ये एहसास था कि नही गये तो लोग क्या कहेंगे ।
प्रोफेसर साहब का दांत से पकडा पैसा अपने भविष्य की बाट जोह रहा है और वो बड़ी सी कोठी प्रोफेसर साहब की पत्नी के अंतिम दिनो का सहयोगी बन वीरानी मे टुकुर टुकुर देखती रहती है और अपने नये मालिक के साथ फिर से गुलजार होने का इन्तजार कर रही है । नौकर ने बेटे का कर्तव्य निभा दिया और संस्कार कर दिया पर वो बेटा तो नही हो पायेगा अधिकार मे और इसिलिए उसने अपनी रोजी रोटी के लिये दूसरा ठिकाना ढूढना शुरू कर दिया है ।
कुछ दिन मे लोग भूल जाना चाहेंगे प्रोफेसर साहब को पर उनके किस्से सबक बन कर काफी दिनो तक फिजा मे तैरते रहेँगे ।
(अभी अभी लिखी एक कहानी । हम सब के आसपास ना जाने कितने प्रोफेसर साहब है और उनके बेटे भी )