शनिवार, 30 मार्च 2024

चुनाव महंगा क्यों

देश आजाद हुआ था तो तय हुआ था की जाति धर्म,ऊंच नीच , औरत, आदमी ,अमीर गरीब सब छोड़कर हर नागरिक बराबर होगा । हर नागरिक का वोट बराबर होगा होगा , हर नागरिक के हक बराबर होंगे , हर नागरिक के लिए अवसर बराबर होंगे वो चाहे नौकरी हो ,व्यापार हो या सत्ता को चुनना या सत्ता में भागीदार होना । तय तो ये था की गरीब से गरीब व्यक्ति भी लोकतंत्र में सिर्फ मतदान नही बल्कि चुनाव लड़ने में भी बराबर का हक रखेगा । 
प्रारंभिक तौर पर ऐसा हुआ भी और साधन विहीन लोग भी चुनाव लडे तथा जीते भी । नेहरू जी के खिलाफ डा राममनोहर लोहिया,आचार्य कृपलानी सहित न जाने कितनी का चुनाव प्रचार जिसमे वो बिना साधन के लड़ रहे थे और इसी तरह अनगिनत लोग चुनाव लड़ते थे और कभी जीते कभी हारे ।
1978 में बहुत चर्चित आजमगढ़ का उप चुनाव जिसमे भारत और उत्तर प्रदेश की पूरी सत्ता की प्रतिष्ठा दाव पर थी और 1977 की जबरदस्त हार के बाद इंदिरा गांधी जी का भविष्य दांव पर था इस चुनाव में भी मैने काम किया था । राम नरेश यादव के मुख्यमंत्री बन जाने से लोकसभा सीट खाली हो गई थी और उसपर जनता पार्टी की तरफ से राम वचन यादव और कांग्रेस की तरफ से मोहसिना किदवई उम्मीदवार थी । आजमगढ छोटा सा शहर था तब ,कोई खास होटल नही था और पी डबल्यू डी को बहुत छोटा सा गेस्ट हाउस था जो सत्ता पक्ष के बड़े पद वाले दिग्गजों के लिए ही कम पड़ गया था और इंदिरा गांधी जी को कोई कमरा नही मिला था तो वो उतने दिन घूम घूम कर प्रचार करती रही और जिस गांव में जो भी घर ठीक लगा वहा रुक गई ।बहुत साधारण बिना खर्च और बिना दिखावे तथा बिना आडंबर वाला चुनाव था और सत्ता को हरा कर इंदिरा जी की गांव गांव की पदयात्रा जीत गई थी । 
1980 में बनारस में जनता पार्टी (एस) के राष्ट्रीय अध्यक्ष राज नारायण जी जिसकी केंद्र में सरकार थी और चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री थे और कांग्रेस के दिग्गज नेता पंडित कमला पति त्रिपाठी जी का चुनाव भी देखा । वो चुनाव भी आपसी सौहार्द वाला और बहुत साधारण चुनाव था ।
आजमगढ़ ने 1984 में बहुत महंगा चुनाव भी  देखा दिग्गज नेता चंद्रजीत यादव ने बेतहाशा पैसा खर्च किया और बहुत गाड़ियां तथा साधन लगाया पर उन्हें केवल 12000 वोट मिला और उनसे ज्यादा 17000 वोट एक निर्दलीय जो साधनविहीन थे उन्हें मिल गया था तथा जीतने वाले और हारने वाले ने साधारण चुनाव लडा था ।यानी पैसा काम नही आया और उसके दिखावे को जनता ने नकार दिया ।
1993 में तक भी ऐसी स्थितियां रही जब उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का गठबंधन हुआ था तो ऐसे कई लोग विधायक हो गए थे जो आर्थिक रूप से कमजोर थे । मुझे याद है की मुख्यमंत्री के कार्यालय में सचिव से मिलने कुछ विधायक आए थे , मैं भी वहां बैठा था । वो चप्पल पहनने के शायद आदी नही थे तो उन्होंने उतार दिया था और वापस जाने के लिए जब लिफ्ट के पास पहुंच गए तो लिफ्ट वाले ने उनके पैर की तरफ इशारा किया तो वो वापस आए अपनी चप्पल पहनने । मुझे याद है 1989 का चुनाव जिसमे मैं मुलायल सिंह यादव जैसे दिग्गज नेता के चुनाव में काम कर रहा था और वो हर गांव में पड़ी चारपाई या तख्त पर भाषण के बाद बैठ जाते तो गांव के लोग मुड़े तुड़े छोटे नोट या सिक्के उनके कुर्ते पर रख देते थे और कुछ सौ रुपए मुश्किल से मिलते थे । मेरे सामने सबसे ज्यादा 6500 रुपया एक बड़ी जाती के गांव में मिला था । बहुत कम साधन यानी आपस में सहयोग की गई जीप और दिल्ली के एक साथी द्वारा दी गई डी एल वाई टैक्सी से चुनाव लड़ लिया गया था । कही न कोई खाने का भंडारा और न चाय ,ये अलग बात है की कोई गांव वाला ही चाय पिला देता था या कुछ खिला देता था ।
इस तरह बहुत से चुनाव इतिहास में दर्ज है जिसमे बहुत गरीब उम्मीदवार ने संपन्न को हरा दिया । कई बड़े पूजीपतियो को हार का मुंह देखना पड़ा ।
फिर चुनाव इतना महंगा कैसे होने लगा  ? कितना महंगा और आम आदमी की पहुंच से दूर ? कब से महंगा हुआ ये  सब सबके सामने है । अब तो चुनाव आयोग ने ही प्रत्याशी का खर्च 70 लाख कर दिया है और पार्टी द्वारा किया जाने वाला खर्च अलग । वर्तमान में कई चुनाव लडे हुए साथियों से जब खर्च पूछा तो चौकाने वाली चीजे सामने आई । समाज में एक बहुत प्रतिष्ठित दंपत्ति ने बड़े शहर से चुनाव लडा जब उनसे बात किया तो तो उन्होंने बताया की दोनो की जमा कुल पूजी 35 लाख खर्च हो गए और चुनाव हार गए यदि 1 करोड़ होता तो चुनाव लडा जा सकता था । बाकी साथियों ने बताया की लोकसभा चुनाव में हार ब्लॉक में कम से कम दो गाड़ी चलाना होता है और एक क्षेत्र में 15 से 18 तक ब्लॉक होते है तो कम से कम 30 से 45 तक गाड़ी का खर्च कम से कम 2 लाख रुपया प्रतिदिन होता है । प्रत्याशी , चुनाव एजेंट तथा अन्य सहयोगियों की भी कम से कम 5 से 10 तक गाड़ी चलती है । हर ब्लॉक पर कम से कम एक कार्यालय चलता है जिसका खर्च 5 से 10 हजार प्रतिदिन होता है । केंद्रीय कार्यालय का खर्च भी 10 हजार प्रतिदिन होता है।।लोगो का प्रतिदिन खाना पीना और चाय पानी का खर्च । लोकसभा क्षेत्र में 50/60 छोटी सभाएं 5/10  हजार प्रति के हिसाब से और 15/20 बड़ी सभाएं ब्लॉक मुख्यालय पर 10/20 हजार प्रति कम से कम और किसी बड़े नेता की एक रैली 5 से 10 लाख तक । इसके अलावा हर गांव में चुनाव से एक दिन पहले 5 से 10 हजार खाना पीना का खर्च और वोट के ठेकेदारों को 500 से 1000 तक प्रति वोट दिलवाने का तथा अंत में 2500 के आसपास बूथ के लिए दिए गए बस्ते में 1000 प्रति बस्ता और वोट की गिनती का खर्च । इसके अलावा हैंड बिल ,पोस्टर पर्चा और बहुत कुछ जैसे सोशल मीडिया , स्थानीय अखबार इत्यादि में विज्ञापन । हिसाब लगाया जा सकता है की प्रत्याशी के स्तर पर कितना खर्च होने लगा है और पार्टी के स्तर पर होने वाला खर्च अलग है ।
जरा देख लेते है की एक सांसद को कुल कितना पैसा मिलता है । सांसद को 1 लाख रुपए तनख्वाह मिलती है तो 60 हजार रूपए कार्यालय भत्ता मिलता है और 70 हजार रूपए क्षेत्र का भत्ता मिलता है । दिल्ली में सभी सांसद दो व्यक्ति रख सकते है जिनके लिए 60 हजार रुपया मिलता है । जो संसद संसद की गतिविधियों में ज्यादा सक्रिय रहना चाहते है वो दोनो व्यक्ति संसद से ही मांग लेते है और संसद से अवकाश प्राप्त लोग उन्हें मिल जाते है जो वहा के कार्यों में मदद करते है तथा वो 60 हजार उन्हें मिल जाता है ।कुछ सांसद अपने किसी व्यक्ति को भी उसमे से एक पद पर नियुक्त कर लेते है । इसी तरह सांसद का क्षेत्र बहुत बड़ा होता है और वहा भी उसे कम से कम एक बहुत जिम्मेदार व्यक्ति जो उसकी अनुपस्थिति में भी उसका काम सम्हाल सके चाहिए होता है । दिल्ली हो तो भी क्षेत्र के लोगो के आने पर उनका खाना चाय ही नही बल्कि कई बार इलाज का खर्च और वापसी का किराया भी देना होता है और क्षेत्र में लोगो को चाय पिलाने ,रात को रूक गया कोई तो उसका खाना , इलाज , सबके शादी ब्याह और गमी में अवश्य जाना तथा हर शादी में कुछ न कुछ लिफाफे में देना ये सब खर्चे होते है सांसद के । बाकी उसको दिल्ली में पानी बिजली और रहने को वरिष्ठ के आधार पर दो कमरे के फ्लैट से लेकर 4 कमरे तक का घर मिलता है फर्नीचर सहित जो दिल्ली में मिलना ही चाहिए । रेलवे पास मिलता है और फोन मिलता है । इसको भी लोग आय में जोड़ लेते है ।
पर असल आय 1 लाख रुपया और जब संसद चलती है तो उतने दिन तथा अन्य बैठकों के दिन भत्ता मिलता है । किसी भी तरह से सांसद की हाथ में आने वाले आय 15 से 18 लाख रुपया साल ही होती है । अधिक से अधिक 1 करोड़ रुपया उसे 5 साल में मिलता है तो वो 5 से 10 करोड़ रुपया खर्च कहा से करता है । अगर ये पैसा पार्टी देती है तो वो इतना पैसा चुनाव में क्यों खर्च करती है ? अगर प्रत्याशी खर्च करता है तो वो क्यों करता है ? यही से शुरू होती है भ्रष्टाचार की कहानी और इसकी शुरुवात हुई जब सांसदों और विधायकों को विकास के लिए फंड मिलने लगा जो 2 करोड़ से शुरू होकर 5 करोड़ पहुंच गया । प्रारंभ में आरोप लगाता था की इस फंड से 5 प्रतिशत सांसद जी को स्वतः मिल जाता है यानी 25 लाख रुपया साल । फिर ये आरोप कुछ मामलों में 50 प्रतिशत तक लगाने लगा खासकर स्कूल या अन्य संस्थाओं की मदद के मामले में । इसमें सच क्या है ये तो या सांसद बता सकते है या उन्हें देने वाले । एक पूर्व जन प्रतिनिधि ने बताया की क्षेत्र के लिए आप जितना पैसा सरकार या किसी संस्था से पास करवा लाते है उसमे भी मिलता है तथा बहुत से नेता ठेका भी अपने किसी के नाम से चलाते है ।
चाहे जैसे भी पैसा आता है और चाहे जैसे भी जाता है पर सवाल ये है की जिस देश में गरीबी के रेखा के नीचे का आलम ये है की 80 करोड़ लोगो को मुफ्त में अनाज देना पड़ रहा है और बेरोजगारी के अभी आए आंकड़े डराने वाले है उस देश में जनता की सेवा की जिम्मेदारी लेने वाले पद का चुनाव इतना महंगा क्यों ? तय तो ये था की गरीब भी चुनाव लड़ेगा तो वो अब इस दृश्य में तो पूरी तरह ओझल हो चुका है तो लोकतंत्र में बराबरी कहा बची ? पूजीवाद का ये नंगा नाच क्यों और महंगे चुनाव के लिए तरह तरह की धन की लूट क्यों ?ये सवाल लोकतंत्र ले माथे पर और भारत के संविधान के माथे पर चिपक गए गए है और मुंह चिढ़ा रहे है । 
अब सवाल ये है की यही चलता रहेगा या इसका कुछ निदान भी खोजा जाएगा ? निदान खोजेगा कौन ? उससे बड़ा सवाल है की जो जनता भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी है और उससे पिंड छुड़ाना चाहती है तथा अपने नेताओ को साफ पाक देखना चाहती है वो खुद इस महंगे चुनाव का हिस्सा क्यों बन जाती है ? क्यों शराब हो या साड़ी , पूरी हो या मुर्गा स्वीकार ही क्यों करती है ? क्यों एक दिन 500 रुपया ले लेती है और 5 साल निराश होकर गाली देती रहती है ? क्यों अपनी सड़क पुलिया , नहर और बिजली के न होने या खराब होने की शिकायत करती है ? 
क्या जनता को और प्रशिक्षित करने की जरूरत है ? तो करेगा कौन ? क्योंकि राजनीतिक दलों को तो ये सूट कर रहा है और उनका काम चल रहा है । साथ ही सवाल है की राजनीतिक दल भी इस महंगे चुनाव के चक्कर में कही पूजीपटियो की कठपुतली तो नही बनते जा रहे है और कही अपने सिद्धांतों तथा विश्वसनीयता से समझौता तो नही कर रहे है ? चुनाव आयोग भी 70 लाख रुपया खर्च करने की छूट ही क्यों दे रहा है ? क्यों नही वो 5 साल में सांसद को होने वाली कुल आमदनी का केवल 5 या 10 प्रतिशत ही खर्च करने की अनुमति देता है ।
क्या एक लोकसभा क्षेत्र में छात्र संघ चुनाव की तरह एक ही मंच पर हर प्रत्याशी को लॉटरी से निकाल कर टाइम नही दिया।जा सकता और सभी प्रत्याशी 10 / 10 मिनट में अपना भाषण दे । ये आयोजन ब्लॉक स्तर पर भी हो सकता है जिसका खर्च सरकार या चुनाव आयोग वहन करे । इसी तरह राजनीतिक दलों के वादे और घोषणाएं बराबर बराबर अखबार और टीवी की आयोग की तरफ से ही जारी की जाए । दल और प्रत्याशी द्वारा किसी भी खर्च पर रोज लगा दी जाए । क्या किसी भी विधायक, सांसद और अन्य पदों पर भी अधिकतम दो बार ही रहने का नियम नही बनाया जाना चाहिए ताकि नए लोगो को मौका मिले और ये नियम पार्टी के अध्यक्ष पद पर भी लागू हो और हारने वाला भी दो बार के बाद चुनाव नही लड़।सके ।
ऐसा कर के तो देखे हो सकता है चुनाव के माथे पर चिपका सवाल मुंह चिढ़ाना बंद कर।दे और भारत का लोकतंत्र और स्वस्थ तथा शक्तिशाली लोकतंत्र बन जाए ।

डा सी पी राय
वरिष्ठ पत्रकार