जिंदगी में कितने मौके आते है जब पहाड़ की चढ़ाई लगती है जिंदगी तो कभी पहाड़ सा बोझ लगती है जिंदगी , कभी खाई दिखलाई पड़ती है जिंदगी के अगले कदम पर तो कभी इतनी बड़ी नदी की तैर कर पार करना मुश्किल लगता है और तैरना हो
ही नही आता हो तब तिनके का सहारा भी आकर्षित करता है । वैसे नरेश सक्सेना ने तो अपनी कविता में लिख दिया की " पुल पार होने से पुल पार होता नदी पार नही होती , नदी पार नही होती नदी में धसे बिना " । पर कई जिंदगियां नदी में धसी ही रह जाती है । पुल भी उनके लिए मृगतृष्णा होता है जिसपर पैर रखने की कोशिश में नदी में समा जाते है और कई बार तो कुछ लोगो को नदी नही नाले नसीब होते है जिसमे होती है सिर्फ कीचड़ या दलदल ।कीचड़ हुई और किसी ने बचा लिया तो नहा धोकर साफ होकर फिर इंसान से दिखने लगते है पर दलदल हुआ तो अस्तित्व ही विलीन हो जाता है उसमे ।
तो मैं बात तो झरोखे की कर रहा था । हा जिंदगी में भी कितने झरोखे होते है रंग बिरंगे और बदरंग भी । इन झरोखो में ही न जाने कितने पात्र नजर आते है ।कुछ युधिष्ठिर तो कुछ धृतराष्ट्र , कुछ कृष्ण तो कुछ भीष्म और कर्ण भी , कुछ द्रोण तो कुछ विदुर, कुछ दुर्योधन तो कुछ गंधारी , कोई द्रौपदी तो कोई अभिमन्यु भी ।।
जिदंगी के महाभारत में सबसे ज्यादा निरीह तो अभिमन्यु दिखता है जो सीख ही नही पाया चक्रव्यूह के सब दरवाजे तोड़ पाना और फिर भी वक्त ने उसे उसी चक्रव्यूह में फंसा दिया।वो अंतिम चक्र तक पहुंच जाना तो जानता है और अंतिम चक्र पार करना नहीं जानता , फैसलाकुन युद्ध जीतना नहीं जानता, अन्तिम लक्ष्य हासिल करना नहीं जानता है । जिनको वो अपना मानता है वहीं उसका शिकार करने को घात लगाकर खड़े मिलते है जिंदगी के हर चक्र में ।
जी हा ये किस्सा भी एक अभिमन्यु का ही है जो थोड़ा बड़ा होते ही लड़ने लगा अपने बचपन को जीने के लिए अपनो से , अपनी जिंदगी के लिए अपनो से और अपनो ने भरपूर प्रताड़ित भी किया और मनचाहा थोपा भी । फिर शुरू हो गई जंग जिंदगी की तो लड़ाई दो मोर्चो पर शुरू हो गई एक अपनो से जो जिंदगी की लड़ाई के तरीके और लक्ष्य के खिलाफ थे और गैरो से जो प्रयोग तो कर लेना चाहते थे और चुरा लेना चाहते थे अपना वक्त , धन और पुरुषार्थ और बदले में सिर्फ धोखा देना ही था मन में । वो अभिमन्यु तो लड़ रहा था जिनसे उनको जानता था की उनसे लड़ना है मारना है या मरना है पर ये अभिमन्यु तो लड़ नही रहा था बल्कि अपना मान कर पूर्ण समर्पण से योगदान कर रहा था की अपने तरक्की करे और हर मुसीबत उनसे दूर रहे । छल उस अभिमन्यु के साथ हुआ पर वो सामने खड़े घोषित दुश्मनों ने किया लेकिन मेरी पुस्तक के पात्र अभिमन्यु के साथ तो हर तरह का छल तथाकथित अपनो ने किया ।
उस महाभारत में शरशैया पर पड़े भीष्म शायद अतीत में झांक कर तौल रहे थे सही और गलत और अंतिम उपदेश दे रहे थे पर इस महाभारत में तो अभिमन्यु घायल पड़ा है मन और आत्मा से और बस याद कर रहा है उस काले अध्याय को जिसने उसको घायल कर दिया है बुरी तरह की फिर से उठने लायक भी नहीं छोड़ा है ।
इस पुस्तक में अभिमन्यु की जिदंगी के बस कुछ अध्याय है बाकी आगे की पुस्तकों में आते रहेंगे । ये लिख इसलिए दिया गया की आगे शायद अन्य किसी को अभिमन्यु बनाने से बचा सके ।
राजनीति के बारे में कहा जाता है की ये धोखे का कारोबार है पर अभिमन्यु ऐसा नहीं जानता था ।समझौते भी नही करना जानता था अभिमन्यु और धंस गया राजनीति की कीचड़ में और वो भी धोखे को ही राजनीति समझने वालो के चंगुल में । कितना मुस्किल होता है किसी को बड़ा बना कर उसके लिए समर्पित हो जाना और कितना आसान होता है अपना बना कर हर पल उसकी हत्या करते रहना ।
कितना आसान था अभिमन्यु के लिए किसी भी और काम में सफल हो जाना या उतनी मेहनत और पूंजी से कोई भी कारोबार खड़ा कर लेना ? उसके साथ के लोगो ने क्या क्या सफलताएं नही हासिल कर लिया बहुत कम प्रयास से पर राजनीति के धोखे ही किस्मत में लिखे हो और इतने बड़े कलाकारों से पाला पड़ जाए जो लगातार बहुत अपना बने रहे हो बड़ा भाई बन कर और दिल में लगातार साजिश रही हो और जातिवादी घृणा तो कोई कर भी क्या सकता था ।
जी मै अभिमन्यु हूं और आजतक आखिरी चक्र से बाहर नहीं निकल पाया हूं और रोज हर वक्त प्रहार झेल रहा हूं परायों से ज्यादा अपनो के बाणों का , पीठ पर तीर और तलवार का , धोखे का और छल का । फिर भी चला जा रहा हूं लगातार चक्रयुह की गोल परिधि में । न मेरा अंत हो रहा है और न राह मिल रही है चक्रव्यूह से बाहर जाने की और विजय तो बस दिवास्वप्न है ।
जिंदगी के झरोखे में से बस एक पात्र अभिमन्यु के इर्द गिर्द ही घूमेगी ये झरोखे की ये कहानी ।कहानी चाहे अभिमन्यु की है पर इस झरोखें में दिखलाई तो सब पड़ेगा ,देश काल ,घटनाएं और इस महाभारत के सारे पात्र ,उनका चरित्र । मैं नहीं कह सकता हूं कि यह झरोखे की कहानी संपूर्णता से प्रकाश डालती है इनमें सम्मिलित कहानी के पात्रों और समय पर ,पर राजनीति में प्रवेश के इच्छुक लोगों को आगाह भी कर सकती है ये कहानी और घटनाएं तथा पात्र मार्गदर्शन भी कर सकते है ।
राजनीति शामिल होने के इच्छुक या शामिल हो गए दोनों के लिए प्रकाश स्तंभ का काम कर सकती है ये पुस्तक । यदि आप की जाति की संख्या और कीमत है राजनीति में और कुछ मामलों में धर्म की भी तथा आप उस आबादी के बीच रहते है तभी आप राजनीति करिए वरना बस शौक के लिए कर रहे हो तो ठीक वरना समय की बर्बादी है ।यदि आप ठेके तथा दलाली के लिए राजनीती में आए है तो हर दल और हर नेता के यहां खास बन सकते है और पैसा कमा भी सकते है नेता को उसका भाग देकर लेकिन यदि ये सब आप को अनैतिक लगता है तो आप राजनीति के लिए बेकार है । हुस्न की भी बड़ी भूमिका है राजनीति क्या सब जगह और ये शॉर्ट कट है आगे बढ़ने का । यदि आप हा में हा मिला सकते है तथा आप का कोई स्वतंत्र विचार नहीं है तन कार्यकर्ता बन जाइए पर यदि आप भी कुछ सोच और समझ लेते है तो आप अयोग्य है । मौन रहना और बस पक्ष के हाथ उठा देना भी एक बड़ी योग्यता है साथ की अच्छी चापलूसी और विरोधियों की चुगली भी बड़े नेताओं को आनंदित करती है । खबरदार अगर आप को सच बोलने और ईमानदार रहने की बीमारी है तो राजनीति आपके लिए नहीं है । कही आप सिर्फ दिखावा करने के बजाय किसी सिद्धांत को चिमटे से भी छू मत लेना वरना नेता आप को चिमटे से भी नहीं छुएगा । नैतिकता इत्यादि राजनीति के बाद चाय के साथ सुड़कते के शब्द है ।
क्या आप अपने नेता और पार्टी से जबरदस्त छल कर सकते है तो फिर सफलताओं का पहाड़ आप के सामने होगा और सत्ता बदलती रहे पर आप सत्ता के स्थाई भाव बने रह सकते है ।
ये क्या मैं तो उपदेश देने लगा अनैतिकता का पर क्या करू काफी लोगों को बचा लेने की इच्छा के कारण ये सब लिख दिया है ।
इस पुस्तक में कोई प्रारंभ से बाद के काल का ध्यान बिल्कुल नहीं रखा गया है बल्कि जब जो टीस उठी कलम ने उसे कागज पर रच दिया । इसलिए पहले कि घटनाएं बाद में और बाद की घटनाएं पहले हो सकती है । जैसी है उसे स्वीकार किया जाए । ये झरोखे से झांक ताक का प्रारंभ है अंत किस संस्करण में होगा कह नहीं सकता । मैं कुछ एपिसोड " जिंदगी के झरोखे से " तथा कुछ एपिसोड " एक और अभिमन्यु " के नाम से लिखता रहा हूं पर पुस्तक का नाम हो सकता है कि कुछ और हो । जो भी हो उसे ही स्वीकार करिए ।
आइए इस अभिमन्यु के साथ समय के प्रवाह का आनंद लीजिए और महसूस करिए संघर्ष और काबिलियत के द्वंद को ।
समर्पित है ये उन सभी जाने पहचाने और अज्ञात हो किसी झरोखे में विलीन हो गए सभी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जो उठे और चले बड़े जोश में पर पता नहीं कहा कहा किस गर्दा गुबार ने उनको कही पीछे छोड़ दिया या ढक लिया अपनी क्रूर सच्चाई के नीचे ।
मैंने जीवन में उम्मीद कभी नहीं छोड़ी। उजाले की आस में अंधेरों से लड़ता रहा। बार- बार हताश हुआ लेकिन अपने भीतर बसी उम्मीद के उजाले ने कभी हारने नहीं दिया। साधारणतया लोग समझते हैं कि दिन हुआ, सूरज उगा तो उजाला हुआ मगर ऐसा होता नहीं । हमारे समाज में तो हमेशा रात का ही राज है। अंधेरा ही अंधेरा है। ऐसे अंधेरे से लड़ना आधी रात में सूरज उगाने का सपना देखने जैसा है। मैं लड़ता रहा हूँ, लड़ता रहूंगा।
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