सोमवार, 19 अगस्त 2019

त्योहार और व्यहार

जी हां
त्यौहार अब भी होते है
और पहले भी होते थे
अब गरीब है
तो
बस लोगो को को मनाते देख लेता है
या थोडा बहुत मना भी लेता है
मध्यम वर्ग है तो दिखावे के लिए
बजट बिगाड कर भी मनाता है
उच्च वर्ग है तो कहने ही क्या
किसी पद पर है
तो वो नही मनाता
लोग मनाते है उसका त्यौहार
और
लोगो के सामनो से
भर जाता है घर बार
जिनसे काम है
उनके अलावा
कोई किसी से नहीं मिलता
अब किसी भी त्यौहार में
थोक के मेसेज है न
मन गया त्यौहार
और
मान लिया गया उसे ही मिलना
लोगो का और शुभकामनाओ का
त्यौहार पहले भी होते थे
जो पैसे से नहीं
भावनाओ से मनाये जाते थे
गरीब हो या अमीर
सब खुद इन्तजाम करते थे
त्यौहार मनाने का
इतना फर्क था
की
अमीर के काम नौकर कर देते थे
पर बी अकी सब एक समान थे
होली हो तो रंग सबके पास था
और पिचकारी भी
चाहे पीतल की ,लोहे की
नहीं तो बांस को काट कर बनायीं
गरीब की खुद की
फूहड़ता नहीं
बल्कि सबको सबसे मिलने वाले
आनंद का त्यौहार था होली
गाँव में टी झुण्ड बना कर निकलते थे सब
उम्र के हिसाब से
अपनी अपनी भाभियों से होली खेलने
गुझिया बनाने में पूरा परिवार जुटता था
बच्चे भरते और मोड़ते या काटते थे
माँ बेलती थी तो पिता
बैठ कर सेंकते  थे गुझिया
बेईमानी की भी गुंजाइश थी
किसी किसी गुझिया में
ज्यादा मावा भर कर खुद खा लेने की
और
सेव झाड़ना सेंकना
कई दिनों तक चलता था त्यौहार
दीपावली में पतली डंडिया
जो आप्तौर पर नरगट
या अरहर की होती थी
तीन तीन को इस तरह बांधना
की उस पर दिया रख सके
और दरवाजे के सामने उन्हें सजाना
शहर में पहले तो छोटे छोटे दिए
और बाद में मोम्बत्तिया आया गयी
तब भी कई दिन पहले से
मिठाई जैसी चीजे
अपने ज्ञान और हैसियत के हिसाब से
कई दिनों तक तैयारी होती थी
पर
जो तब था और आज नहीं है
वो था समूह में मनाना या समाज में
तब फोन और मोबाइल नहीं थे
तो लोग मोबाइल रहते थे
खूब मिलते थे एक दूसरे से
त्यौहार में एक परिवार आकर मिला गया
तो इसका मतलब ये नहीं
की मिलन पूरा हो गया
अगले दिन ये पूरा परिवार
उनके घर जाता था
और चलता था कई दिनों तक ये क्रम
और फिर पूरा होता था त्यौहार
जी हां त्यौहार एक परिवार नहीं
पूरा समाज मनाता था
एक दूसरे के साथ 
जो कही खो गया
लील लिया नये ज़माने ने
और आर्थिक दिखावा
हीन भावना पैदा कर देता है आज
बहुतो में
देखा होगा आपने भी
जब आप बहां रहे होते है
सफ़ेद या काला धन
तो बहुत सी उदास आँखे
उसे बस टुकुर टुकुर
देख रही होती है
जो पहले के सादे त्योहारों में
नहीं होता था
और
तब केवल त्यौहार नहीं
सच्चा व्यवहार भी होता था

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