समाजवादी राजनीति के पुरोधा डॉ॰ राममनोहर लोहिया के भाषा संबंधी समस्त चिंतन और आंदोलन का लक्ष्य भारतीय सार्वजनिक जीवन से अंगरेजी के वर्चस्व को हटाना था। लोहिया को अंगरेजी भाषा मात्र से कोई आपत्ति नहीं थी। अंगरेजी के विपुल साहित्य के भी वह विरोधी नहीं थे, बल्कि विचार और शोध की भाषा के रूप में वह अंगरेजी का सम्मान करते थे। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में महात्मा गांधी के बाद सबसे ज्यादा काम राममनोहर लोहिया ने किया। वे सगुण समाजवाद के पक्षधर थे। उन्होंने लोकसभा में कहा था-
- अंग्रेजी को खत्म कर दिया जाए। मैं चाहता हूं कि अंग्रेजी का सार्वजनिक प्रयोग बंद हो, लोकभाषा के बिना लोकराज्य असंभव है। कुछ भी हो अंग्रेजी हटनी ही चाहिये, उसकी जगह कौन सी भाषाएं आती है, यह प्रश्न नहीं है। इस वक्त खाली यह सवाल है, अंग्रजी खत्म हो और उसकी जगह देश की दूसरी भाषाएं आएं। हिन्दी और किसी भाषा के साथ आपके मन में जो आए सो करें, लेकिन अंग्रेजी तो हटना ही चाहिए और वह भी जल्दी। अंग्रेज गये तो अंग्रेजी चली जानी चाहिये।
१९५० में जब भारतीय संविधान लागू हुआ तब उसमें भी यह व्यवस्था दी गई थी कि 1965 तक सुविधा के हिसाब से अंग्रेजी का इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन उसके बाद हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया जाएगा। इससे पहले कि संवैधानिक समयसीमा पूरी होती, डॉ राममनोहर लोहिया ने 1957 में अंग्रेजी हटाओ मुहिम को सक्रिय आंदोलन में बदल दिया। वे पूरे भारत में इस आंदोलन का प्रचार करने लगे। 1962-63 में जनसंघ भी इस आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हो गया। लेकिन इस दौरान दक्षिण भारत के राज्यों (विशेषकर तमिलनाडु में) आंदोलन का विरोध होने लगा। तमिलनाडु में अन्नादुरई के नेतृत्व में डीएमके पार्टी ने हिंदी विरोधी आंदोलन को और तेज कर दिया। इसके बाद कुछ शहरों में आंदोलन का हिंसक रूप भी देखने को मिला। कई जगह दुकानों के ऊपर लिखे अंग्रेजी के साइनबोर्ड तोड़े जाने लगे। उधर 1965 की समयसीमा नजदीक होने की वजह से तमिलनाडु में भी हिंदी विरोधी आंदोलन काफी आक्रामक हो गया। यहां दर्जनों छात्रों ने आत्मदाह कर ली। इस आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने 1963 में संसद में राजभाषा कानून पारित करवाया। इसमें प्रावधान किया गया कि 1965 के बाद भी हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी का इस्तेमाल राजकाज में किया जा सकता है।
‘अंग्रेजी हटाओ’ आंदोलन को उन दिनों यह कहकर खारिज करने की कोशिश की गई कि अगर अंग्रेजी की जगह हिंदी आयेगी तो हिन्दी का वर्चस्ववाद कायम होगा और तटीय भाषाएँ हाशिए पर चली जायेंगी। सत्ताधारियों ने हिन्दी को साम्राज्यवादी भाषा के के रूप में पेश कर हिन्दी बनाम अन्य भारतीय भाषाओं (बांग्ला, तेलुगू , तमिल, गुजराती, मलयालम) का विवाद छेड़ इसे राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए खतरा बता दिया। इसे देश जोड़क भाषा नहीं, देश तोड़क भाषा बना दिया। लोहिया ने इस बात का खंडन करते हुए कहा कि स्वाधीनता आंदोलन में हिन्दी ने देश जोड़क भाषा का काम किया है। देश में एकता स्थापित की है, आगे भी इस भाषा में संभावना है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि यदि हिंदी को राजकाज, प्रशासन, कोर्ट-कचहरी की भाषा नहीं बनाना चाहते तो इसकी जगह अन्य किसी भी भारतीय भाषा को बना दिया जाए। जरूरी हो तो हिन्दी को भी शामिल कर लिया जाए। लेकिन भारत की मातृभाषा की जगह अंग्रेजी का वर्चस्ववाद नहीं चलना चाहिए। [1]
लोहिया जब 'अंगरेजी हटाने' की बात करते थे, तो उसका मतलब 'हिंदी लाना' नहीं था। बल्कि अंगरेजी हटाने के नारे के पीछे लोहिया की एक खास समझदारी थी। लोहिया भारतीय जनता पर थोपी गई अंगरेजी के स्थान पर भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठा दिलाने के पक्षधर थे। 19 सितंबर 1962 को हैदराबाद में लोहिया ने कहा था,
- अंगरेजी हटाओ का मतलब हिंदी लाओ नहीं होता। अंगरेजी हटाओ का मतलब होता है, तमिल या बांग्ला और इसी तरह अपनी-अपनी भाषाओं की प्रतिष्ठा।
उनके लिए स्वभाषा राजनीति का मुद्दा नहीं बल्कि अपने स्वाभिमान का प्रश्न और लाखों–करोडों को हीन ग्रंथि से उबरकर आत्मविश्वास से भर देने का स्वप्न था–
- मैं चाहूंगा कि हिंदुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएं नहीं, बल्कि गर्व करें। इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके मां बाप अगर शरीर से नहीं तो आत्मा से अंग्रेज रहे हैं।
दक्षिण (मुख्यत: तमिलनाडु) के हिंदी-विरोधी उग्र आंदोलनों के दौर में लोहिया पूरे दक्षिण भारत में अंगरेजी के खिलाफ तथा हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के पक्ष में आंदोलन कर रहे थे। हिंदी के प्रति झुकाव की वजह से दुर्भाग्य से दक्षिण भारत के कुछ लोगों को लोहिया उत्तर और ब्राह्मण संस्कृति के प्रतिनिधि के रूप में दिखाई देते थे। दक्षिण भारत में उनके ‘अंगरेजी हटाओ’ के नारे का मतलब ‘हिंदी लाओ’ लिया जाता था। इस वजह से लोहिया को दक्षिण भारत में सभाएं करने में कई बार काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। सन १९६१ में मद्रास और कोयंबटूर में सभाओं के दौरान उन पर पत्थर तक फेंके गए। ऐसी घटनाओं के बीच हैदाराबाद लोहिया और सोशलिस्ट पार्टी की गतिविधियों का केंद्र बना रहा। ‘अंगरेजी हटाओ’ आंदोलन की कई महत्त्वपूर्ण बैठकें हैदराबाद में हुई।
तमिलनाडु की द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टी ने इस आन्दोलन के विरुद्ध 'हिन्दी हटाओ' का आन्दोलन चलाया जो एक सीमा तक अलगाववादी आन्दोलन का रूप ले लिया। नेहरू ने सन १९६३ में संविधान संशोधन करके हिन्दी के साथ अंग्रेजी को भी अनिश्चित काल तक भारत की सह-राजभाषा का दर्जा दे दिया। सन १९६५ में अंग्रेजी पूरी तरह हटने वाली थी वह 'स्थायी' बना दी गयी। १९६७ के नवम्बर माह में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रनेता देवव्रत मजूमदार के नेतृत्व में 'अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन' किया गया था जिसका असर पूरे देश पर पड़ा। उस समय इंजीनियरिंग के छात्र देवव्रत मजूमदार बीएचयू छात्रसंघ के अध्यक्ष थे। २८ नवम्बर १९६७ को मजूमदार के आह्वान पर बनारस में राजभाषा संशोधन विधेयक के विरोध में पूर्ण हड़ताल हुई। सभी व्यापारिक प्रतिष्ठान और बाजार बंद रहे और गलियों-चौराहों पर मशाल जुलूस निकले।[ विकिपीडिया ]
अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन विस्तार लेता जा रहा था और चारो तरफ फ़ैलने लगा था | उस दौर में अधिकतर स्थानों छात्र संघ चुनावो में समाजवादी पार्टी के संगठन समाजवादी युवजन सभा का कब्ज़ा हो गया था | आगरा में भी सबसे बड़े कालेज आगरा कालेज में समाजवादी युवजन सभा का अध्यक्ष था | चारो तरफ नारे लग रहे थे " अंग्रेजी में काम न होगा ,फिर से देश गुलाम न होगा '' ए बी सी डी हाय हाय " अंग्रेजी में लिखे हुए नाम पट्टिकाएं काले रंग से पातीं जा रही थी | गाड़ी स्कूटर मोटरसाइकिल जो बहुत कम थे उन पर अंग्रेजी में लिखा हुआ पोता जा रहा था |
उस दिन हमारे डिग्री कालेज के छात्रो का जुलुस इंटर कालेज को बंद करवा कर हमारे स्कूल में पंहुचा तो तुरंत छुट्टी की घोषणा कर छुट्टी कर दी गयी | वो नारे लगाने में मुझे भी मजा आने लगा और घर जाने के बजाय बस्ता टाँगे हुए मैं भी जुलुस के साथ चल पड़ा | रास्ते में सैंटजोन्स कालेज की छुट्टी करवाता हुआ जुलुस राजामंडी की तरफ बढा ,उधर से आगरा कालेज का जुलुस आ गया था | इसी बीच कुछ छात्रो ने स्टेशन पर ट्रेन पर लिखे पर रंग पोतना चाहा तो पुलिस ने खदेड़ लिया तो उन लोगो ने ट्रेन पर पथराव कर दिया और राजामंडी बाजार की तरफ भाग आये इस भगदड़ में कुछ अफवाह फैली तो बाजार के शटर गिराने लगे दूकानदार लोग और पुलिस को लगा की छात्रो ने बाजार में कुछ कर दिया है | फिर क्या था लाठीचार्ज शुरू हो गया | मैंने शोर्ट कट जो राजामंडी आने के लिए इस्तेमाल होता था हमाड रे घर की तरफ से वो पटरी का किनारा पकड लिया पर मुझे पता नहीं था की उधर कुछ छात्र कांड कर आये थे और उसी से अफरा तफरी मची थी | एक सिपाही ने मुझे दौड़ा लिया | मैं स्कूल की यूनिफार्म नीली शर्ट और खाकी नेकर में था और बस्ता भी था तो मैंने उससे कहा की मैं तो स्कूल में पढता हूँ तो वो बोला की की स्कूल में पढ़ते हो तो आर बी एस स्कूल तो उधर है फिर इधर क्या कर रहे हो और मैंने तुम्हे नारा लगाते देखा था | फिर मैंने भागना चाहा पर तब तक उसकी दो लाठी मुझे पड गयी थी और ये पुलिस की लाठी का पहला स्वाद था | घर पंहुचा तो पिता जी ने पुछा की स्कूल की तो छुट्टी हो गयी थी तो कहा चले गए थे | मैंने बता दिया की जुलुस में गया था तो बहुत डाट पड़ी और जब मैंने बताया की पीठ में चोट लगी है तो उसपर हल्दी लगाईं गयी और ये लेक्चर मिकला की आन्दोलन तो सही बात के लिए हो रहा है औरे डा लोहिया की बात सरकार को मान लेना चाहिए पर तुम्हारी उम्र अभी आन्दोलन में जाने की नहीं है |
आन्दोलनों जो होता रहा है वही इस आन्दोलन का भी हुआ | पर जब बड़ा हुआ तो समझ में आया की ऐसे तमाम आन्दोलन में जा जाने कितना पढाई का नुक्सान हुआ ,काफी सम्पत्तियों का नुक्सान हुआ ,न जाने कितने छात्र जेलों में गए ,उनकी जिन्दगिया बर्बाद हुयी पर हुआ क्या | डा लोहिया जैसे सिद्धांतवादी और इमानदार बाकी लोग साबित नहीं हुए | अंग्रेजी के खिलाफ आन्दोलन करने वाले अधिकांश लोग और राजनीतिक दल तथा संगठन बाद में उसी अंग्रेजी का प्रयोग कर रहे है और अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल तथा कालेज में पढ़ा रहे है | अक्सर देखा जाता है की हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी वाले ज्यादा सफल हो जाते है | कम्यूटर के खिलाफ आन्दोलन करने वाले सभी उसी का प्रयोग कर रहे है | मैं पलट कर देखता हुआ तो अधिकांश आन्दोलन का चरित्र ऐसा ही निकला | क्या छात्र हो या अन्य सभी का सिर्फ प्रयोग कर लिया गया राजनीतिक उद्देश्यो से ?
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