मंगलवार, 24 सितंबर 2024

एक देश एक चुनाव क्या व्यवहारिक हैं ?

एक देश एक चुनाव की व्यंहारिकता पर बहस 

पिछले दिनों भारत सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रावत कोवीद की अध्यक्षता में एक देश एक चुनाव की सभावना पर विचार करने , उसकी सभाबनाए देखने और उसके लिए सुझाव देने को एक समिति का गठन किया । समित के गठन के समय ही कुछ विवाद उठ खड़े हुए । पूर्व राष्ट्रपति का किसी समित का अध्यक्ष बनना लोगो को उचित नही लगा तो समिति के कुछ सदस्यों पर भी लोगो को एतराज था । कांग्रेस के लोकसभा में नेता अधीर रंजन चौधरी ने समिति में रहने से इंकार कर दिया तो राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता को समिति में  नहीं रखने पर भी सवाल उठा । 191 दिन काम करने के बाद इस समिति ने अपनी 18000 पन्नो से ज्यादा की रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौप दिया और फिर केंद्रीय मंत्रिमंडल इस रिपोर्ट की स्वीकार करने की घोषणा कर। दिया । समिति ने लोकसभा और विधान सभाओं का चुनाव 2029 में एक साथ करवाने की सिफारिश किया है तथा उसके लिए सुझाव दिया है की जिन राज्यों में 2029 से पहले चुनाव होना हो उनका कार्यकाल 2029 तक बढ़ा दिया  जाए तथा जिन राज्यों में 2029 के बाद चुनाव होना हो उनका कार्यकाल घटा दिया जाए । साथ ही अपनी ही अनुशंसा में खुद एक देश एक चुनाव की भावना के विपरीत राय दिया है की लोकसभा और विधानसभा चुनाव के बाद 100 दिन में स्थानीय निकायों का चुनाव करा लिया जाए । सवाल यही उठ खड़ा हुआ की फिर इसे एक  देश एक चुनाव कैसे माना जाए । रिपोर्ट को मंत्रिमंडल द्वारा स्वीकार किया जाने के साथ ही  एक देश एक चुनाव पर राजनैतिक और संवैधानिक बहस भी शुरू हो गई तथा इसके अच्छे बुरे और व्यवहारिक या अव्यवहारिक होने पर बहस शुरू हो गई है । 

आजादी के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में पहले चार लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे। बाद में कई मौकों पर लोकसभा  समय से पहले भंग होने और कई मौकों पर विधानसभाओं के समय से पहले भंग होने के कारण, लोकसभा और विभिन्न राज्य विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे ।एक  साथ चुनाव कराने का विचार अतीत में भारत के चुनाव आयोग 1983 और विधि आयोग  द्वारा रखा गया था पर इंदिरा जी ने उस पर ध्यान देना उचित नहीं समझा । आजादी के बाद केवल सरकार भंग होना ही कारण नही था बल्कि भाषा के आधार पर और अन्य कारणों से राज्यो का बटवारा हो रहा था ,नए राज्य बन रहे थे इसलिए भी अलग अलग समय चुनाव होने लगे थे ।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक देश एक चुनाव की बात करना शुरू किया । इसके पक्ष में तर्क दिया गया की एक साथ चुनाव कराने पर खर्च कम हो जायेगा और अनुमान लगाया गया की करीब 4000 करोड़ रुपया बाख जायेगा | इसके जवाब में विरोध करने वालो का कहना है की एक तो ये पैसा जनता के टैक्स से आता है और भारत के चुनाव का ख्जर्च्ग दुनिया में सबसे कम है दूसर राजनीतिक दल जप ५०/६० हजार करोड़ खर्च करते है उसका क्या होगा तथा सरकारे जो तमाम फिजूलखर्ची करती है वो बचाने का प्रयास क्यों नहीं करती है | एक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त का कहना है की सारे चुनाव यदि एक साथ कराये जायेंगे तो तईं से चार गुना वोटिंग मशीन तथा वी वी पेट मशीन की जरूरत पड़ेगी जिनको बनाने में भी बहुत समय लगेगा तथा काफी पैसा खर्च होगा |  दूसरी तरह के विद्वानों का कहना है की नेता लोग चुनाव के बाद ५ साल तक तो जनता का हाल पूछते ही नहीं हैं | बार बार चुनाव होने पर उनको आना पड़ता है और वाडे याद रखने पड़ते है तथा चुनाव के चक्कर में कुच्ग वादे पूरे भी करने पड़ते है | एक सोच ये भी है की चुनाव देश की अर्थव्यवस्था को गति देता है ,नेताओं तथा डालो का पैसा बाजार में चलन में आता है तथा हर तरह का काम करने वालो की आमदनी होती है | 

एक तर्क ये दिया जाता है की बार बार चुनाव से विकास कार्य रुक जाता है और बार बार आचार संहिता लगाने से नए निर्णय नहीं हो पाते है तथा विकास कार्य रुक जाता है | विद्वान लोग इसका जवाब देते है की पहले तो पहले से चल रहे विकास कार्य  चलते रहते है उनपर कोई रोक नहीं होती है ,हा नए निर्णय लेने पर रोक होती है तथा चुनाव से जुड़े अधिकारियो के ट्रांसफर ;पर रोक होती है लेकिन वो भी चुनाव आयोग की इजाजत से हो जाते है और एक सवाल ये उठता है की जो फैसले चार साल १० महीने में नहीं लिए गए उनके लिए सरकार के अंतिम दो तीन महीने का इंतजार ही क्यों किया जा रहा था | समिति ने सुझाव दिया है की यदि किसी करण से कोई सरकार गिर जाति है और लोकसभा या विधानसभा भंग हो जाती है तो उसका चुनाव अगले पांच साल के लिए नही बल्कि सिर्फ बचे कार्यकाल के लिए ही कराया जाए तो इससे तो ५ साल सरकार की अवधारणा भी ख़त्म होगी और थोड़े समय के लिए होने वाले चुनाव में भी पूरा पैसा खर्च होगा तथा मशीनरी लगेगी तब भी उद्देश्य बेकार हो जाएगा | 

विरोध करने वालो का कहना है की भारत के संविधान में एक संघीय ढांचा स्वीकार किया गया है पर यदि इस समिति की रिपोर्ट को स्वीकार किया जाता है तो संघीय ढांचा भी रटूटता है तथा संविधान के मूल ढाँचे पर भी आक्रमण होता है | ये रिपोर्ट लागू करने के लिए कई संविधान संशोधन करने होंगे जो पहले तो वर्तमान सरकार की लोकसभा और राज्यसभा में संख्या  को देखते हुए असम्भव है | दूसरा यदि संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन के लिए देखा जाए तो आधे राज्यों की सहमति भी चाहिए और यदि कोई ऐसा रास्ता निकालने का प्रयास होता है की राज्यों के बिना केंद्र ही विधान सभाओ के बारे में फैसला कर ले तो वो संविधान के मूल ढांचे पर हमला हॉग और फिर वो मुद्दा सर्वोच्च न्यायालय के सामने जरूर जायेगा | इसी तरह से स्थानीय निकायों का चुनाव पूरी तरह राज्य के क्षेत्र में आता है उसका भी अतिक्रमण होगा | 

सबसे बड़ा सवाल तो अभी उठा खडा हुआ है की अभी कश्मीर का १० साल बाद चुनाव करवाया जा रहा है और वो भी उसे बिना पूर्ण राज्य का दर्जा दिए हुए | आलोचक कह रहे है की किसी केंद्र शासित क्षेत्र को राज्य बनते तो देखा गया है लोकतंत्र के लिए पर किसी राज्य को केंद्र शासित क्षेत्र बनते पहली बार देखा गया है और उसमें भी लद्दाख का लोकतान्त्रिक अधिकार चीन लिया गया है || हरियाणा का चुनाव घोसित कर दिया गया है पर अगले महीने ही होने वाला महाराष्ट्र तथा झारखण्ड का चुनाव साथ नहीं करवाया गया है | जो सरकार चार प्रदेश का चुनाव साथ नहीं करवा सकती कैसे विश्वास किया जाये की वो एक साथ चुनाव के लिए गंभीर है और चुनाव आयोग ने जो तर्क दिया है की मौसम तथा महाराष्ट्र के त्यौहार के करण साथ चुनाव नहीं करवाया गया तो मौसम तो भारत के अलग अलग क्षेत्र में हमेशा ही अलग रहेगा और त्यौहार भी अलग अलग क्षेत्र में अलग अलग समय पर होते ही रहेंगे | 

एक बड़ा आरोप ये है की एक देश एक चुनाव सत्ता का केन्द्रीयकरण करने को है जिसमे जनता राष्ट्रीय स्तर के नेताओं और दलों में ही चुनाव करेगी और क्षेत्रीय दल घटे में रहेंगे तथा अमरीका की राष्ट्रपति प्रणाली की तरह हो जाएगा की राष्ट्रीय स्तर पर जिन दो नेताओं में मुकाबला होगा देश के मतदाता का ध्रूविकरण उन्ही दो में हो जाएगा | एक अध्ययन से निष्कर्ष निकला है की एक देश एक चुनाव में जीतती दिखने वाली पार्टी तथा नेता के ही जीत जाने के ७० प्रतिशत चांस होंगे और ऐसे में तानाशाही आ जाने की सम्भावना भी बनी रहेगी | जो भी है अब समिति की रिपोर्ट सरकार ने स्वीकार कर लिया है | आगे सत्ता अपने दाव आजमाएगी और एक देश एक चुनाव करवाने की कोशिश करेगी और इसका विरोध करने वाले अपने तर्कों के साथ इस राजनैतिक और संवैधानिक बहस के मैदान में होंगे | इन्तजार करना होगा सभी को की सत्ता का असल इरादा क्या है केवल शगूफा या इसम इ गंभीरता है और संवैधानिक सवालो तथा शंकाओं का समाधान वो क्या तथा किस तरह से सामने लाती है और इससे सशंकित लोग सड़क से संसद तक ,जनता की अदालत से सर्वोच्च न्यायलय तक किन तर्कों और हथियारो से मुकाबला करते है | 


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