शनिवार, 25 अप्रैल 2015

हिन्दुस्तान में आप जाति को नहीं झुठला सकते है क्योकि इसकी जडें पाताल से भी ज्यादा गहरी है और ये लहू के कतरे कतरे में ही नहीं बल्कि चिंतन और विवेक में परत दर परत पैबस्त है चेतन में भी और अवचेतन में भी । ये शास्वत सत्य बन चुकी है और बिना वजह हम आदिम काल और अनपढ़ता को कोसते है ये तो शिक्षा और आधुनिकता के साथ आक्रामक भी होती जा रही है ।ऐसा लगता है कि सारा ज्ञान जाति व्यवस्था को मजबूत करने के लिये है ।धार्मिक कट्टरता को बहुत पीछे छोड़ दिया है जातिगत कट्टरता ने ।आदिकाल में कर्म आधारित विभाजन कब घृणा ,उंच नीच और सोच आधारित जाति व्यवस्था में तब्दील हो गया ये गहन शोध का विषय है ।आज अगर कर्म के आधार पर फिर जातियों का निर्धारण करना हो तो शायद बहुत कुछ बदल भी जाये और युगांतकारी परिवर्तनकारी साबित हो समाज के लिए पर मानसिक जड़ता और उसकी समंदर के समान गहराई परिवर्तन होने नहीं देगी ।समाज के ठेकेदारों को भी इसे बनाये रखने में ज्यादा सहूलियत है और स्वार्थ भी ।
जातिगत आत्ममुग्धता जब तक नहीं दरकेगी तब तक इसके पतन की सोचना भी फिजूल है ।बस यूँ ही ।
( आज के चिंतन से )

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