गुरुवार, 30 जून 2011

                                       [ लोकतंत्र में पार्टी बड़ी या सरकार  ]               डॉ ० सी ० पी ० राय                                                                                              [स्वतंत्र राजनैतिक चिन्तक एवं स्तंभकार]                      भारतीय लोकतंत्र में तरह तरह की बहसें चल रही है | इस समय  एक बहस की बहुत जरूरत है कि लोकतंत्र में पार्टी बड़ी है या सरकार ? सरकार पर पार्टी का अंकुश होना चाहिए ,पार्टी को सरकार के लिए नकेल कि तरह काम करना चाहिए ? क्योकि चुनाव पार्टी लड़ती है और फिर अपने में से कुछ लोगो को सरकार चलाने कि जिम्मेदारी देती है | पर जवाब तो पार्टी को ही देना पड़ता है ,अगले चुनाव में जनता के सामने फिर पार्टी को ही जाना होता है | पार्टी लगातार जनता से जुडी होती है जबकि  सरकार अपने दायित्वों के कारण दूर हो जाती है | जनता का रुझान कब क्या है ये पार्टी ज्यादा जानती है जबकि अधिकारियों पर आश्रित सरकार उससे बहुत दूर होती है | या फिर सरकार का पिछलग्गू यानि धकेल संगठन केवल होना चाहिए पार्टी को | पार्टी को सरकार को निर्देश देने का हक़ है या सरकार को पार्टी को निर्देश देने का हक़ है |
                                         कुछ समाजवादी लेखको ने लिखा है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू नहीं चाहते थे कि डॉ लोहिया जो उनके बहुत अच्छे दोस्त भी थे और आजादी कि लड़ाई वाली कांग्रेस में विदेश विभाग के प्रभारी भी थे ,जयप्रकाश नारायण जो आजादी से पहले बड़े समय तक कांग्रेस के महामन्त्री रहे थे और आचार्य नरेन्द्र देव जैसे चिन्तक और नेता आजादी के बाद बनने वाली सरकार से दूर रहे | नेहरू जी बहुत बड़े इन्सान और बड़े नेता थे ,वे बड़े दिल वाले व्यक्ति थे ,वे सभी को शामिल कर देश चलाना चाहते थे | पर बात बनी नहीं क्योकि डॉ लोहिया चाहते थे कि पंडित जी खुद प्रधानमंत्री नहीं बल्कि पार्टी के अध्यक्ष बने रहे  और लोकतंत्र की  मजबूती के लिए पार्टी को निर्देशित करे | इस स्थिति में लोहिया जी भी नेहरू जी के साथ सरकार में नहीं बल्कि पार्टी में काम करना चाहते थे | बात टूट गयी और दोनों के रस्ते अलग हो गए | पर लोहिया जी ने जो  बात कहा था वह बहस तो कभी चली ही नहीं | उस पर चर्चा हो ही नहीं पाई | 
                                            ये अलग बात है कि केरल कि सरकार को सोशलिस्ट पार्टी के संगठन के आदेश पर इसलिए जाना पड़ा क्योकि थानू पिल्लै कि सरकार ने जनता पर गोली चलवा दिया था | ये आजादी कि लड़ाई से निकले नेताओ के आदर्श थे कि अपनी ही सरकार और अपनी ही पुलिस जिस जनता के वोट से चुनी गयी और जिस जनता से तनख्वाह पाती है उनपर लाठी गोली न चलवाए | उसके बाद जब ज्योति बासु को तीसरी ताकतों ने प्रधानमंत्री चुन  दिया तब यह देखने को मिला कि पार्टी ने आदेश दे दिया तो ज्योति बासु जैसे बड़े नेता ने भारत के प्रधानमंत्री जैसा बड़ा पद छोड़ दिया | इसके आलावा शायद कोई मौका नहीं दीखता कि पार्टी सरकार के ऊपर दिखे | वर्त्तमान में जरूर पार्टी सत्ता से बड़ी दिखलाई पड़ती है तो राजनीति शास्त्र और लोकतंत्र के प्रति अज्ञानी लोग इसे लोकतंत्र का सच्चा स्वरुप नहीं बल्कि कठपुतली और न जाने क्या क्या विशेषण से नवाजते है | क्या ये उचित है कि सरकारों को पूजीपतियों कि जमात ,दलाल या कोई और ताकतें संचालित करे ? क्या ये उचित है कि कुछ संगठन जो अपने को केवल गैर सरकारी और सांस्कृतिक संगठन कहते है और जिन लोगो को जनता का विश्वास नहीं हासिल होता है वे सरकार को कठपुतली कि तरह नचायें ? ये बहस बहुत गंभीर है और इसे बुद्धि के उपयोग से और अध्ययन से चलाने कि जरूरत है |
                                                सरकार चलाने वाले अगर खुद मालिक हो जायेंगे या दोनों शक्तियां किसी एक आदमी में समाहित हो जाएँगी तो तानशाह बन जाने का डर ही नहीं बना रहेगा बल्कि ऐसा तमाम देश में हो चुका है | इसीलिए कई खम्भों पर खड़ा किया जाता है लोकतंत्र कि बुनियाद को | फिर भी देखा गया है कि ये खम्भे भी इतिहास में मुख्य शक्ति के तानाशाह बन जाने पर अपने कर्तव्यों पर खरे उतरने में नाकामयाब साबित हुए है | फ़ौज को भी इसीलिए टुकड़ो टुकड़ो में रखा जाता है कि उसका हथियार कभी देशवासियों कि तरफ न मुड़ जाये और उन्ही देशो में फ़ौज सिर्फ अपने कम तक सीमित रहती है  | लेकिन जहा सरकार पर पार्टी के वर्चस्व कि व्यवस्था होती है वहा सरकार का तानाशाह बनना मुश्किल होता है और जनता के प्रति जवाबदेह और हर वक्त जनता से जुडी पार्टी उसे उन रास्तो पर चलने को मजबूर करती रहती है जो जनता को पसंद है या जो जनता के लिए जरूरी वो करने को मजबूर करती रहती है सरकार को | उचित तो यह भी होता है लोकतंत्र में कि जब भी सरकार कोई जन विरोधी कार्य करती नजर आये तो चाहे उसी पार्टी कि सरकार क्यों न हो पार्टी सरकार के खिलाफ जनता के साथ खड़ी नजर आये चाहे आन्दोलन ही क्यों न करना पड़े |
                                                 देश फिर एक ऐसी जगह खड़ा है जहा ये बहस बहुत जरूरी है कि लोकतंत्र उसमे भाग लेने वाले ,उसके लिए सैद्धांतिक आधार पर जनता के सामने जाने वाले दलों के द्वारा चलाया जायेगा या मौका पाकर सरकार में बैठ गए उसी दल के महज कुछ लोगो द्वारा या दोनों के द्वारा अपने अपने दायरे और जिम्मेदारियों के परिपेक्ष में |यह एक राजनीति शास्त्र कि बहस है | यह लोकतंत्र कि मजबूती कि बहस है | यह जनता के प्रति जवाबदेही कि बहस है | इस बहस में वे ही लोग शामिल हो सकते है जिन्हें राजनीति शास्त्र के सिद्धांतों और लोकतंत्र कि परिकल्पनाओं का ज्ञान हो | इसमें वे ही लोग शामिल हो सकते है जिन्हें खुले दिल दिमाग से सोचने कि आदत हो | बहस शुरू हुयी है अब जारी रहेगी जब तक कोई फैसलाकुन निष्कर्ष नहीं निकलता | देश के भविष्य ,लोकतंत्र के भविष्य और लोकतंत्र की संस्थाओं के भविष्य पर लगातार पैनी निगाह रखने वालों की निश्चित ही दिलचस्पी इस बहस में भी होगी और इस बहस के परिणाम में भी और वे भी इस बहस पर निगाह जरूर रखेंगे जो राजनीति में रूचि रखते है |


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