गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

पहाड़ की नागिन की तरह इठलाती हुई सड़के

पहाड़ की नागिन की तरह इठलाती हुई सड़के कितनी रोमांचित करती है , कभी नीचे तो लगातार नीचे और कभी सीधी चढाई, एक तरफ ऊंचा पहाड़ तो दूसरी तरफ खाई ।
देखते है की बस वो रहा जहा जाना है पर कितना घुमाव होता है उतनी सी दूरी मे और कितने ऊंचा नीचा रास्ता होता है , बिल्कुल जिन्दगी की तरह । बहुत विरले होते है जो मुह मे सोने की चम्मच लेकर पैदा होते है , बाकी तो सभी की जिदगियाँ पहाड़ की चढाई जैसी ही होती है घुमावदार और थोडा सा चलने मे हंफ़ा देने वाली और ज्यादा समय लेने वाली । राजनीती मे तो ये कुछ ज्यादा ही होता है ।
पहाड़ के आज के सफर मे मुझे कुछ यूँ लगा की ये आज की व्यव्स्था और राजनीती जैसा है , एक तरफ गहरी खाई जो अधिकतर जनता के हिस्से मे आती है और दूसरी तरफ ऊंचा सीधा पहाड़ जिस पर चढा ही नही जा सकता है । खाई मे अगर मौत या तकलीफे है तो पहाड़ भी तो अनुत्पादक है और बेजान रूखा सा ।
कभी कभी लगता है की हम क्या देखने आते है इतना चल कर वो पहाड़ जिनकी हरियाली हमारे कर्मो से खत्म होती जा रही है ,या फिर कभी कभी गिर गयी बर्फ और चूँकि फिल्मो मे किसी हीरो हीरोइन को बर्फ का गोला एक दूसरे पर फेंकते देखा तो हम भी फेंक लेते है ,जैसे मेरी छोटी सी नतिनी इशान्वी मेरे ऊपर फेंक कर बहुत खुश हो रही थी ।
एक सिल्ली बर्फ को घिसवा कर ऐसा खेल अपनी छत पर भी खेला जा सकता है , पर फिर पहाड़ तो पहाड़ है और बात उसके नाम मे होती है कभी मसूरी , कभी शिमला तो कभी कश्मीर ।
मुझे पता नही क्यो पहाड़ो मे विचरण करना और थकना बिल्कुल पसंद नही है , पहाड़ ही क्यों समुद्र के बीच पर भी ।
मुझे अच्छा लगता है वह स्थान जहा से पहाड़ियां दिखती हो बर्फ से आच्छादित , या वह कमरे की खिडकी जिससे बस समुद्र को निहार सकूँ , अच्छा तो मुझे हरिद्वार का वो गेस्ट हाउस भी लगता है जो बिल्कुल बेराज पर बना है और उसकी बालकनी मे बैठ कर बेराज से कल कल की आवाज के साथ बहते पानी की आवाज और दूर तक के नदी का एहसास और उसके पार जंगल और पहाड़ की खामोशी ।
मुझे अच्छा लगता बस ये सब निहारना और खो जाना खुद मे या फिर कलम पकड़ कर रच देना कुछ । 
मुझे लगता है की प्रकृती निहारने की चीज है नापने की नही ।
आज भी गया मैं प्रकृती को निहारने पर गाड़ियो की भीड , चिल्ल पो , भीड का सैलाब इन सबने ग्रस लिया है प्रकृती को 
अब खोजूंगा कोई और जगह जहा ये शोर न हो ।
2006 मे ही तो आये थे जब हम सब थे ,उनके भगवान के पास जाने के पहले और रुके थे आई ए एस अकादमी के सामने वाले उस गेस्ट हाउस मे जो एकलौता जैसे झूल रहा हो पहाड़ से नीचे और उसके बाहर बना चबूतरा कितनी खूबसूरत जगह थी जहा धूप खिलती थी तो चमक उठता था सामने बर्फ से ढका पहाड़ । 
तब हमने तय किया था की यहा फिर आयेंगे पर फिर एक साल भर शायद हुआ था और साथी बिछड़ गया और शिमला हो ,कुफरी हो या मसूरी का वो गेस्ट हाउस या हरिद्वार की नदी के बेराज का वो खूबसूरत गेस्ट हाउस हमारी बाट ही जोह रहे है तब से।
अब तो डर लगने लगा है किसी भी ऐसे स्थांन पर किसी से भी ये कहने मे कि यहा फिर आयेंगे ।
पर

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