शुक्रवार, 9 दिसंबर 2022

हर चुनाव संदेश देकर जाता है -

हर चुनाव संदेश देकर जाता है -

कल ही गुजरात और हिमालय के साथ विभिन्न प्रदेशो के चुनाव परिनाम आये और एक दिन पहले दिल्ली नगर निगम के परिनाम भी देश ने देखा । ये चुनाव राजनीतिक समीक्षको के लिये अध्ययन का विषय है तो दलो के लिये आत्मचिंतन का ।
गुजरात मे लगातार फिर भाजपा जीती है और पहले के रिकॉर्ड तोड कर जीती है पर उसके लिये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को दिल्ली छोडकर वही दिन रात एक करना पड़ा और किसी स्थानीय नेता की तरह रोज कई सभाए करनी पडी , अपने सम्मान का हवाला देना पड़ा ,लंबे लंबे रोड मार्च निकालने पड़े तो चुनाव के दिन को भी प्रचार के लिये उपयोग किया गया मीडिया के सहयोग से ।महाराष्ट्र की योजनाओ को गुजरात ले जाकर उसका फायदा उठाया गया तो विरोधी दल मतदान के दूसरे दिन 5 बजे के बाद 16 या 18 लाख अधिक मतदान होने से लेकर तरह तरह के आरोप भी लगा रहे है ।ई वी एम तो हर हारे हुये चुनाव का मुद्दा है ही ।जब भाजपा विपक्ष मे थी तब वो सवाल उठाती थी और उसके खिलाफ किताब तक लिख दी गयी थी तो अब अन्य दल उसपर शंका खडी करते है । फिर भी एक सच तो स्वीकार करना ही पडेगा कि मोदी जी और शाह साहब ने अपने प्रदेश की जीत और हार को खुद से जोड़कर खुद को दाव पर लगा दिया और किसी स्थानीय नेता की तरह दिन रात एंटी इनकम्बेंसी के खिलाफ एक कर दिया और उनकी मेहनत का परिनाम आया ।यद्द्पि दूसरा खेमा आप को मिले 13% वोट और वोवैसी की भूमिका को रेखान्कित करता है कि एक तरफ कांग्रेस और इनके वोट जोड़ दिया जाये तो दृश्य कुछ और होता और फिर बट्वारा नही होने पर कांग्रस बाजी पलट देती तथा जनता मे ये भाव जगता की कांग्रेस सरकार बनायेगी फ्लोटिंग वोट उधर जाता पर सच ये भी तो है की कांग्रेस आधे मन से लडती दिखी तथा मुख्य आकर्षण राहुल और प्रियंका ने दूरी बनाये रखा तो मे कांग्रेस अगंभीर दिखी । पर मीमांसा इस बात की भी करनी होगी की चाहे जो भी था लेकिन भाजपा की सिर्फ सीट नही बढी पर पहले से 4 % वोट भी बढा और इसका पूरा श्रेय मोदी जी की मेहनत और रणनीति को तो देना ही होगा क्योकी एक खबर ये भी छाई रही की आरएसएस ने इस चुनाव से दूरी बनाये रखा ।
हिमाचल का यूँ तो अमेरिका की तरह इतिहास रहा है सरकार बदलने का पर इस बार मोदी जी का ये नारा की बदलाव के भाव को अब बदले अगर केन्द्र का लाभ लेना हो, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा का वहा पूरे समय कैम्प करना और मंत्रियो के फौज के साथ आक्रमक अभियान चलाना इस प्रदेश के पहाड की सर्दी के भाजपा को गर्मी का एहसास करवा गया ।दूसरी तरफ कांग्रेस ने यहां प्रियंका गांधी को उतार दिया जिन्होने उत्तर प्रदेश के अनुभव से सबक लेकर यहाँ के लिये रणनीति बनाया और स्थानीय मुद्दो के साथ पेंशन को मुद्दा बना कर एक बड़े वर्ग को अपने साथ जोडा । उत्तर प्रदेश मे बुरी हार का सामना करने वाली प्रियंका ने यहा अपने कौशल से चुनावी मशीन बन गयी भाजपा के कल पुर्जे ढीले कर दिये और गुजरात की शर्मनाक हार का शिकार और दिल्ली मे भी पिछे खडी कांग्रेस को थोडी सांस लेने की जगह दे दिया ।
दिल्ली के म्युनिस्पल चुनाव सिर्फ इसलिये चर्चा मे रहते है कि वो देश की राजधानी मे है और वहा भाजपा काबिज थी । दिल्ली के परिनाम पर बड़ी बहस नही है क्योकी वो मुफ्त मे मिलने वाली चीजो का परिनाम है पर केजरीवाल की टोपी मे एक कलगी तो और लग ही गयी जहा गुजरात के मत प्रतिशत ने आप को राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता की तरफ पहुचा दिया ।
उत्तर के तीन उप चुनाव पर भी राजनीतिक दलो और समीक्षको की निगाह थी । मैनपुरी मे डिम्पल को उतार कर अखिलेश यादव ने कुछ सवाल खडे किये थे पर मुलायम सिंह यादव के निधन के तुरंत बाद होने वाला ये चुनाव शायद उन्हे आश्वस्त कर रहा था की मुलायम सिंह जी के प्रति लोगो का जुडाव और निधन के बाद की संवेदना काम आ जायेगी दूसरी तरफ इस चुनाव मे सबसे बड़ी कमजोरी शिवपाल सिंह यादव से दूरी थी जो उन्होने शिवपाल सिंह के घर जाकर पाट दिया और चुनाव जिताने की बड़ी जिम्मेदारी भी उन्ही के कन्धे पर डाल दिया । पिछ्ली आजमगढ़ और रामपुर न जाने की गलती को सुधार कर खुद पूरे प्रदेश की समाजवादी पार्टी के साथ मैनपुरी मे डेरा ही नही डाल दिया बल्कि गाँव गाँव और घर घर पहुचने तथा सभी जातियो को जोडने और हर सभा मे नेता जी कि याद दिला कर उनके प्रति जिले के जुडाव और सहानुभूति का भी भरपूर उपयोग किया ।शिवपाल सिंह यादव का साथ काम आया और अकेले उनके क्षेत्र से एक लाख से ज्यादा वोट की लीड मिली तथा मनोवैज्ञानिक वातावरण ऐसा बना कि मुख्यमंत्री योगी और उनकी पूरी फौज इस माहौल के आसपास भी नही पहुच पायी ।
दूसरी तरफ खतौली मे भाजपा का मजबूत मतदाता त्यागी समाज भाजपा के खिलाफ चला गया जिससे वहा भाजपा हार गयी ।जबकि रामपुर मे सत्ता और प्रशासन ने वही किया जो लोकसभा उप चुनाव मे किया था और जहा चुनाव आयोग अपील करता है कि वोट बढाये वही तंत्र ने दोनो बार 32/33 % तक ही वोट पडने दिया और हालत ये हो गयी कि वहा का मामला सर्वोच्च न्यायालय मे चला गया ।
लेकिन ऐसी स्थिति चाहे जो भी करे लोकतंत्र और संविधान पर कुठाराघात है और इसके बारे मे सभी दलो को मिल कर और संसद के द्वारा एक कानूनी बाध्यता वाली आचार संहिता तय करनी ही होगी अथवा सर्वोच्च न्यायालय तथा चुनाव आयोग को कड़ा निर्णय लेना होगा ।
जहा नवीन पटनायक ने उड़ीसा मे अपना कब्जा बरकार रखा वही गहलौत और भूपेश बघेल ने भी असर बनाये रखा पर बिहार मे भाजपा की जीत व्यापक गठबंधन के लिये सीख देकर गयी है कि जातिगत चीजो के प्रति अति आग्रह बुरा भी साबित हो सकता है ।
कुल मिलाकर ये चुनाव सभी दलो और नेताओ को अपने अपने सबक देकर गया है ।भाजपा को सबक है की राजनीतिक दल को दल ही रहने दे इन्सानो और कार्यकर्ताओ वाला दल जिसके पास दिल भी हो ,भावनाए भी और सरोकार भी वरना बहुत दिनो तक सिर्फ जुमलो , वादो और मीडिया की पीठ पर चढ़ कर नही दौड़ा जा सकता है तथा हर व्यक्ति का एक निश्चित समय होता है और फिर उसका आकर्षण क्षीण होने लगता है तथा अति व्यक्ति केन्द्रित संगठन अन्त मे खोखला हो जाता है और उनसे लोगो को सबक मिलता है कि भारत की राजनीति 365 दिन की राजनीति है तथा युद्ध मैदान सज़ा हो तो वो छोटा या बडा नही होता बल्कि एक चुनौती होता है और कुछ सिखाता है ,जीत भले न दे पर कुछ बुनियाद बनाता है वो चाहे हैदराबाद का म्युनिस्पल चुनाव ही क्यो न हो और मोदी जी से सीखा जा सकता है की अपना घर अपने साथ नही तो देश क्यो साथ होगा और उसके लिये वहा खुद कार्यकर्ता बन कर दिन रात एक कर देने मे कैसा गुरेज ।
कांग्रेस को तो काफी सबक लेने होगे क्योकी वो आज तक विपक्ष की धार और रणनीति से दूर है और लम्बी सत्ता के खुमार से बाहर ही नही आ पा रही है ।दल को बंद कमरे का दल बना कर उतने मे ही और आपस मे ही जूझते रहना तथा सेल्फ गोल करते रहना इसकी पहचान बन चुकी है ।खासकर राहुल और प्रियंक को उत्तर प्रदेश के लिये वही रवैया अपनाना ही होगा जो मोदी जी ने गुजरात के लिये अपनाया और अपने पुराने तौर तरीको मे व्यापक परिवर्तन करना ही होगा । यदि आप के पास कही लोग नही है तो भाजपा के पास भी काफी जगह लोग नही थी पर उसने बाहर से लोगो को स्वीकार किया और मुख्यमंत्री तक भी बनाने से गुरेज नही किया और तब जहा नही थी वहा भी मजबूत हो गयी ।
उत्तर प्रदेश मे फिलहाल समाजवादी पार्टी ही दूसरी पार्टी है पर पिछले चुनाव मे सीधे आमने सामने का चुनाव हो जाने और उसी आधार पर वोट पडने के बावजूद वो सरकार के खिलाफ की जनता को खुद से नही जोड़ पायी और उसके लिये अखिलेश यादव की अपनी कमजोरिया , आत्ममुग्धता , अति आत्मविश्वास इत्यादि कई कारक जिम्मेदार है और अब जल्दी उसे उतना अच्छा चुनाव मिलता नही दिख रहा है बशर्ते वो खुद मे व्यापक बदलाव न ला दे और व्यापकता न अपना ले ।उसे अपने खास लोगो को भी सिखाना होगा की उनका अहंकार या बुरी भाषा और व्यक्तिगत आक्रमकता पार्टी को नुक्सान करती है ।कुल मिला कर परीश्रम , समर्पण ,विनम्रता ,जन के लिये सहजता और स्वीकार्यता ही लोकतंत्र का हथियार है ।

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