सोमवार, 4 नवंबर 2013

मेरा कितना दुर्भाग्य है की मैं कवि हूँ ,लेखक हूँ ,कुछ स्वतंत्र चिंतन भी करता हूँ पर एक पार्टी का पदाधिकारी भी हूँ | मैं ये सारे काम स्वतंत्र रूप से करता हूँ जिसका नुक्सान मुझे राजनीती में भी होता है और साहित्य में भी तथा जीवन में भी | पर उससे ज्यादा दुर्भाग्य ये है की लोग मेरी कविता पर कुछ लिखने के बजाय उसमे राजनीती ढूढते है ,मेरे स्वतंत्र विचारो पर चर्चा करने के बजाय उसमे भी राजनीती ढूँढते है और राजनीती पर जब कुछ लिखता हूँ तो उसमे अपनी खुंदक निकाल कर गालियाँ देते है | और जो राजनीती में बड़े है वो भी मेरी कविताओ और स्वतंत्र विचारो से कुपित रहते है | जो साथी है वो चाहते है की मैं अपनी पार्टी के पक्ष में ना लिखू और राजनीती से और अपने पद बाहर हो जाऊं | मैंने एक बड़ा समय ऐसा भी देखा है जब ऐसा वक्त आता है और आप कष्ट में होते है ,आप का कोई वजूद नहीं होता है तो को पडोसी और सारे दोस्त पहचानने से इनकार कर देते है यहाँ तक की जाती बिरादरी औत्र रिश्तेदार भी आप को नहीं पहचानते | लोगो की चिन्ता छोड़ कर अपना काम करे और आगे बढे और ऐसे लोगो को दोस्ती से हटाते जाये बस यही एक रास्ता है मस्त रहने का और आगे बढने का | याद आ गया वो किस्सा की घोड़े पर क्यों बैठे है और घोडा है फिर भी पैदल क्यों चल रहे है | गुडबाय ऐसे तथाकथित दोस्तों |

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