सोमवार, 13 नवंबर 2023

मेरी दीवाली

मेरी दीवाली :
10 को लखनऊ से चलकर आगरा आ गया था कि बंद घर खोल कर उसको हवा लगा दूं और सफाई करवा दूं क्योंकि जब तीन महीने के लिए अमरीका गया था तो लौटने पर पूरा घर घर नही था कुछ और बन गया था । चारो तरफ गंदगी और धूल । रसोई की सारी लकड़ी दीमक चाट गया था और मिट्टी बना चुका था उसे । मेरे कमरे की अलमारी के नीचे के हिस्से में रखी किताबे भी मिट्टी बन चुकी थी । बाद में पता चला की बड़ी बेटी की आलमारी के निचले हिस्से का भी वही हाल हुआ है । दीमक लग तो काफी जगह गई थी पर खा नही पाई थी और कपड़े इत्यादि धोकर ठीक निकल गए थे । जब बीमारी से जूझ रहा था दिल्ली में लंबे समय तक तब भी लौट कर यही नजारा था । 
इसलिए कोशिश करता हूं की हर 15/20 दिन में आकर घर साफ करवा दूं और सब खिड़की दरवाजे खोल कर हवा दिखा दूं तथा देख लूं की कही दीमक जो ने आगाज तो नही कर दिया है तो इनपर स्प्रे कर अपना बदला ले लूं ।
काफी दिनों घूमता रहता हूं कभी लखनऊ,कभी नोएडा और दिल्ली तो कभी बनारस से लेकर कुशीनगर ,देवरिया या कही भी । बचपन में किसी ने कहा था की मेरे पैर में चक्कर है इसलिए घूमता रहूंगा पर क्या मेरी पत्नी इतना पहले मुझे छोड़कर भगवान के पास नही चली गई होती तब भी मैं ऐसे ही  घूमता रहता ये बड़ा सवाल है । जवाब जो भी भी पर अकेला इंसान जो अकेले रहने के स्वभाव का नही है वो अकेलेपन से लड़ता रहता है और उसको दूर करने को भटकता रहता है कभी बेटा कभी बेटी तो कभी जानने वालो के यहां। हा मैं भटकता रहता हूं । पर कितनी मुश्किल से एक अदद घर यानी छत की व्यवस्था कर पाया था मैं तो वो घर मुझे खीचता रहता है अपनी तरफ है रोज और सच बात ये है की सबसे ज्यादा सुकून भी मुझे इसी घर में मिलता है ,मेहनत और संघर्ष से बने हुए घर में और सबसे अच्छी नीद भी मुझे इसी घर में आती है । इसी घर में मेरे अंदर विचार पैदा होते है अपनी कुर्सी मेज पर बैठ कर और कविता कहानी तथा लेख भी तथा नए नए राजनितिक विचार , भविष्य का आकलन सब । लेकिन ये घर कुछ ही दिन में मुझे बेजान दीवार और छत मात्र लगने लगता है और हाउस अरेस्ट वाली जेल भी ,बस भाग निकलता हूं में इसके बाहर कही भी । आजकल बेटा लखनऊ में रहता है और वहा मेरा राजनीतिक शौक भी पूरा हो रहा है तो वहा ज्यादा रहने लगा हूं । फिर भी 15 दिन होते होते फिर घर पुकारने लगता है । कोशिश किया की इसे बेचकर लखनऊ में ही घर ले लूं जहा व्यस्त रहता हूं ( क्योंकि आगरा में बिलकुल अकेला और खाली रहता है सत्ता और पद नही रहने पर ) या नोएडा में ले लूं जहा बेटियो का घर है और ईशान्वी जी रहती है पर बिक कर भी घर नही बिक पाया क्योंकि खरीदने वाले के व्यापार पर छापा पड़ गया तो एडवांस लौटा दिया मैने बुलाकर । फिर लोगो को लगा की मैरी गरज है बेचना तो लोग औने पौने में खरीदने की फिराक में पड़ गए । मुझे भी घर बेच कर इसी से घर खरीदना है इसलिए मैं जोखिम नहीं उठा सकता की एक छत जो अपनी है उसे भी गंवा दूं और बेघर हो जाऊं ।
इसी सब द्वंद में चल रही है जिंदगी ।
हर बार की तरह इस त्योहार पर भी घर आ गया की एक दिया भी अपने घर में जलाऊंगा । आमतौर पर बेटा त्योहार में घर आ जाता है और हम दोनो मिलकर जैसा भी होता है त्योहार को महसूस कर लेते है । हमारे घर खाना नही बनता तो पूडी वाली थाली के लिए मशहूर दुकान से सब मांगा लेते है और त्योहार वाले खाने का स्वाद ले लेते है । पर बच्चो का इस बार सामूहिक कार्यक्रम बन गया कही और जाने का फिर भी मुझे तो आना ही था तो घर आ गया ।
अकेले बैठा हूं ।आज भी कभी कभी कही से आज भी पटाखे की आवाज सन्नाटे को तोड़ देती है । कल तो कानफोडू शोर था की अकेलापन गुम हो गया था उस शोर में । एक दिन तो घर को घर बनाने और उसकी छुपी हुई गंदगी साफ करने में निकल गया और इतना थका दिया इस कसरत ने की कब नीद आ गई पता ही नही चला । ये अलग बात है की उसके लिए एक अदद कांबीफ्लेम और एक एलप्रेक्स,25 का सहारा लेना पड़ा । मुझे पूजा पाठ नही आता ,बचपन से ही कभी नहीं किया तो पड़ोसी शुक्ला जी से आग्रह कर लिया था की लक्ष्मी गणेश और दिया इत्यादि अपने सामान के साथ लेते आए वो ले आए ।उन्ही से मिठाई के डिब्बे मांगा लिए थे क्योंकि मैं कालोनी के सभी चकीदार ,स्वीपर और अपने यहां काम करने वालो को हर मौके पर देता हूं । शुक्ला जी से ही आग्रह कर लिया की बेटियो के साथ आकर पूजा कर दे और दिए जहा जहा रखे जाते हो रख दे । उन लोगो ने ये सब कर दिया और दीपावली की परंपरा पूरी हो गई । ये सब होते होते पटाखे छूटने लगे चारो तरफ और मैंने ध्यान ही नही दिया की आज टिफिन ही नही आया । रात को 10 बजे के बाद याद आया तब तक देर हो चुकी थी ।  पर मैं घर में भुने चने रखता हूं बस खा लिया वो हो गया दीपावली का खाना । बच्चो को गलती से बता दिया ये बात तो बेचैन हो गए और उस वक्त ऑनलाइन सिर्फ कुल्फी मिल रही थी तो वही भेज दिया तो त्योहार का मीठा भी हो गया । 
तो अकेला बैठा हूं । दिन में एकाध लोग मिलने आ गए थे । फिर तब से सन्नाटा तभी टूटता है जब पटाखे की आवाज आती है या मेरे घर के सामने बैठने वाले कालोनी की चौकीदारों की कोई आवाज आती है । दरअसल जिंदगी ही नही है अकेले व्यक्ति थी क्योंकि व्यक्ति समूह में रहने के लिए बना है और समूह की पहली इकाई परिवार है और त्योहार तो है ही बच्चो की चीज तथा उन्ही से गुलजार होता है घर और वो बांधे रहते है अपने चारो तरफ पूरे परिवार को ।परिवार और बच्चो के बिना बेजान दीवारों और छत के साथ व्यक्ति भी बेजान सा ही होता है निरीह सा बाद टुकुर टुकुर ताकता रहता है दरवाजे की तरफ और खिड़की के पार और सुनता रहता है बाहर का शोर तथा इसी में गुम कर देने की कोशिश करता है अपने अंदर का शोर । 
खैर मेरी दीपावली भी मन गईं । होंगे लाखो लोग और भी ऐसे ही जिनके त्योहार ऐसे ही मनते होंगे बल्कि सारे दिन ही ऐसे ही कटते होंगे । 
मैं तो भाग्यवान हूं की मेरे बच्चे मुझे प्यार करते है और मेरा हर तरह ध्यान रखते है और मेरा अधिकतर समय उन्ही के साथ गुजर जाता है । बेटा चाहता है की में कही नही जाऊं उसी के पास रहूं और बेटियां चाहती है की उनके आसपास रहूं। 
लेकिन कभी कभी का ये अकेलापन बहुत चुभता है और वो भी ऐसे अवसर का । 
में उन लोगो के बारे में सोच सोच कर परेशान हूं जिनकी जिंदगी का अकेलापन कभी खत्म हो नही होता या उनके बारे में जिनके पास कुछ भी नही होता है चना भी नही ।
जिंदगी इसी धूप छांव का नाम है ।

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