मेरे कृष्ण पर लिखे लेख पर किसी ने लिखा कि:इसके लिए तो अयोध्या की तरह मथुरा भी आज़ाद करवाना होगा :
कितना अज्ञानी हो गया है समाज का एक वर्ग ? वो ईंट गारे में ईश्वर ढूँढ रहा है ,जो कण कण में है उसे कुछ फुट ज़मीन के दायरे में कैद कर देना चाहता है ।
ख़ैर मैंने ये जवाब दिया -
“अपने मन में धारण करिए ।जैसे ईंट गारे की इमारत घर नही होती बल्कि उसमें रहने वालो और उनके आचरण तथा प्रेम से घर बनता है
वैसे ही मन के विचार ,इंसान से प्रेम और सदकर्म ही ईश्वर है
और वो ईंट गारे में नही बल्कि हर इंसान के हृदय और कर्म में होना चाहिए
वरना तो आशाराम और राम रहीम कि बाढ़ है
ईश्वर तब गढ़े गए जब क़ानून और संविधान नही था , अब है ।
राजनीति तो कभी जाती को इस्तेमाल करती है और कभी धर्म को
और मंथराए तथा कैकेयी कर्म और गुण से नही बल्कि छल से सत्ताये हासिल करने को हर युग में तत्पर है
चाहे राम और सीता की कितना भी कष्ट देनापड़े और उनका मार्ग कितना भी कठिन हो , उनके पाँवों में कितना भी छाले पड़े
पर
सत्ता चाहिए कैसे भी ।
अज्ञानी अयोग्य और असफल सत्ता । समाज तथा देश को बर्बाद करती हुयी सत्ता । “
अब याद आ रहा है -
कांकर पाथर ज़ोर के मस्जिद लई बनाया
ता चढ़ी मुल्ला बाँग दे बहरा हुआ खुदाय ?
माला फेरत जाग मुआ गया न मन का फ़ी
कर का मनका डारि दे मन का मनका फेर ।
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिहा कोय
जो दिल देखा आपना मुझ से बुरा न कोय ।
पाहन पूजे हरी मिले , तो मैं पूजूँ पहार
या तो ये चाकी भली पीस खाय संसार ।
बाक़ी मानने वाले तो पहाड़ की बर्फ़ गलने से बह रहे पानी (#नदी ) को एक नाम देकर माँ मानते है , एक #जानवर को माँ कहते है , मिट्ठी पत्थर से बनी #ज़मीन को माँ कहते है
पर असल माँ को ?
और ऐसा मानने बाले देश में २ करोड़ से ज़्यादा माताएँ बहने बेटियाँ वेश्यवृत्ति करती है
काश उनको माँ मान कर ऐसे ही लड़ते !
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