बुधवार, 2 मार्च 2016

देश के लुटेरे




देश के लुटेरों से वसूली पर --- खामोश क्यों हैं केन्द्रीय सरकार ... ?
क्या- यह 'लूट' भी 'राष्ट्रवादी कार्य-सूची' में शामिल है ... ?

निम्न समाचार के अनुसार - " सरकारी बैंकों के क़र्ज़ों का महाघोटाला कोई एक-दो लाख करोड़ का मामला नहीं है. क़रीब साढ़े आठ लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़े ऐसे हैं, जिनकी वसूली की सम्भावना अब न के बराबर समझी जा रही है! यानी भारत की कुल जीडीपी का क़रीब 6.7 प्रतिशत हिस्सा चट किया जा चुका है या जिसके वापस मिलने की अब लगभग उम्मीद नहीं है! और इनमें से 87 फ़ीसदी हिस्सा अमीर कॉरपोरेट समूहों को दिये क़र्ज़ों का है ---"

आखिर, क्यों - इस लूट पर ख़ामोश है वे 'राष्ट्रवादी' --- जो JNU के बेगुनाह वामपंथी छात्रों को जबरन 'राजद्रोही' कराने में चीखते-चिल्लाते दिखाई दे रहे हैं ... ?

" ... कौन हैं ये बक़ायेदार? कोई इनका नाम बताने को तैयार नहीं है. तर्क दिया जा रहा है कि ऐसा करना बैंक और ग्राहक की गोपनीयता को भंग करना होगा, जो क़ानूनी तौर पर जायज़ नहीं है. वाह जनाब वाह! मान गये हुज़ूर! लेकिन एक सवाल पूछने की ग़ुस्ताख़ी कर रहा हूँ. यह तर्क 2011 में कहाँ था, जब कुछ बैंक ‘शर्म करो’ अभियान के तहत अपने उन बक़ायेदारों के नाम और फ़ोटो अख़बारों में विज्ञापन देकर और सड़कों पर होर्डिंग लगा कर छाप रहे थे, जो महज़ कुछ हज़ार या कुछ लाख का क़र्ज़ नहीं चुका पाये थे! यही नहीं, उन्हें धमकी यह भी दी गयी कि अगर अब भी उन्होंने क़र्ज़ नहीं चुकाया तो उनकी गारंटी लेनेवाले लोगों के नाम और फ़ोटो छाप कर उन्हें भी ‘लज्जित’ किया जायेगा!तो चार साल पहले ग़रीब और आम आदमी की इज़्ज़त से खुलेआम और मनमाना खिलवाड़ करनेवाले बैंक और सरकार आज ‘ग्राहक की गोपनीयता’ की दुहाई क्यों दे रहे हैं? इसीलिए न कि मामला बड़े-बड़े अमीरों की इज़्ज़त का है!

अगर अमीर क़र्ज़दारों के नाम बताने में इतना संकोच है, तो उनसे क़र्ज़ वसूलने के लिए बैंक क्या करते होंगे, यह आसानी से समझा जा सकता है. वैसे ग़रीबों से बैंक कैसे क़र्ज़ वसूलते हैं, यह आसपास कुछ लोगों से पूछ कर देखिए. किसानों की दयनीय हालत और उनकी लगातार बढ़ती आत्महत्याओं के बावजूद दस-दस हज़ार रुपये के बक़ाये वसूलने के लिए बैंक कैसे अमानवीय तरीक़े अपनाते हैं, यह किसे पता नहीं? लेकिन अब न बैंक बोल रहे हैं, न सरकार बोल रही है कि इन अमीर क़र्ज़दारों से बक़ाया वसूलने के लिए कुछ किया भी जायेगा या नहीं. सरकार एक ‘बैड बैंक’ बनाने की सोच रही है, जिसके ज़िम्मे सारा डूबा हुआ क़र्ज़ दे दिया जाये और जो उसे वसूलने की कोशिश करता रहे. वसूल पाये या न वसूल पाये, यह अलग बात है. बहरहाल, अब सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद स्थिति शायद कुछ बदले ... "

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