बुधवार, 8 नवंबर 2023

राजनीति में फंसा एक सच्चा कवि

राजनीति में फंसा एक सच्चा कवि 

राजनीति और कविता दोनों का साथ चलना मुश्किल है। राजनीति बहुत झूठी होती है, वहां छल-प्रपंच, षड्यंत्र का कारोबार चलता रहता है लेकिन कविता तो सच की पक्षकार होती है, वहां स्वप्न होते हैं, वहां उड़ानें होती हैं, वहां भविष्य के अनखोजे रास्ते होते हैं। इसके बावजूद हमने कई राजनेताओं को कविता लिखते देखा है। कुछ ने तो बहुत अच्छी कविताएँ लिखीं हैं। डा. सी पी राय भी उन्हीं में से एक हैं।  मैं कह सकता हूँ कि वे राजनीति में न होते तो बेहतरीन कवि होते। उन्होंने लम्बा समय राजनीति में दिया है। छात्र जीवन से ही उन्हें राजनीति लुभाती रही लेकिन कविता का दामन भी उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। कविताएं भी लिखते रहे। लिखना, भाषण करना उनका शगल रहा है। आज भी वे इससे मुक्त नहीं हैं। उनके लेखन पर भी उनके इस व्यक्तित्व का असर दिखता है। चीजों को विस्तार से कहने की आदत।  गद्य में तो यह मदद करती है लेकिन कविता का यह स्वभाव नहीं होता। वह बहुत विस्तार में नहीं जाती, बहुत ब्योरे में दाखिल नहीं होती, वह कम से कम शब्दों में कहना चाहती है। डा. राय की कविताएँ बहुत विस्तार में चली जाती हैं। ऐसे में खतरा यह रहता है कि जिसके कहे बगैर काम चल जाता हो, वह भी वे कहते चले जाते हैं। फिर भी उनकी कविताओं में बार-बार ऐसी पंक्तियाँ आतीं हैं, जो उनके कवि व्यक्तित्व के प्रति विशवास जगती हैं। 
एक अच्छे वक्ता के लिए कल्पनाशीलता की बहुत जरूरत होती है। ठोस आंकड़ों और अख़बार की कतरनों से काम नहीं चलता। भाषा के साथ कल्पना भी चाहिए।  यह कल्पना ही किसी राजनेता को बड़ा वक्ता बनाती है। यही उन आंकड़ों में प्राण भारती है, उनकी नयी व्याख्याओं का मार्ग प्रशस्त करती है। और सच कहूँ तो कविता भी बिना कल्पनाशीलता के संभव नहीं होती। वह गद्यात्मक विवरण नहीं होती। उसे कुछ ऐसा कहना होता है, जो सुनते ही किसी के भी दिमाग में उतर जाय, भीतर गूंजने लगे। कहन को यह सजीवता, यह जीवंतता और यह नयापन देने का काम कल्पनाशीलता ही करती है।  डा. सी पी राय में अव्वल दर्जे की कल्पनाशीलता है। इसी के सहारे वे अच्छा बोल पाते हैं और इसी के सहारे वे कविताएँ भी लिख पाते हैं। उनकी एक कविता 'रोटियां' में इस कल्पनाशीलता और भाषा का सहमेल देखते ही बनता है। वे कहते हैं, 'पेट में जब आग हो तो काम आये रोटियां / रोटियां जब मिल न पाएं, जल उठेगीं कोठियां।'
     राजनीति झूठ के बिना चल नहीं पाती। हालाँकि डा. राय इससे बचने की पूरी कोशिश करते हैं लेकिन  आज के समय में जब राजनीति पेशा बन गयी है, इससे बच पाना पूरी तरह संभव नहीं है। मुझे मालूम है कि उन्होंने समाजवादी पार्टी के शासन काल में उसी पार्टी में रहते हुए मीडिया पर उनके हल्लाबोल को अनुचित ठहराया था और इसका खामियाजा उन्हें लम्बे समय तक भुगतना पड़ा था। अगर आप को पार्टी राजनीति में रहना हो और पार्टी ही कोई झूठ खड़ा करना चाहे तो आप के सामने चुप रहकर झूठ का साथ देने अथवा उसके खिलाफ बोलकर सड़क पर आ जाने के अलावा क्या विकल्प बचता है। डा. राय ने ऐसा किया है लेकिन ऐसा हमेशा कर पाना संभव नहीं होता। और कई बार अनजाने ही झूठ का हिस्सा बनना पड़ता है। यह कठिनाई डा. राय के साथ भी आती होगी। ऐसी परिस्थितियां ही भीतर के कवि को मारती हैं। मैं कह सकता हूँ कि उनकी कविताएँ जहाँ कमजोर लगतीं हैं, भाषण में बदल जातीं हैं, वह इसी राजनीति के कारण। शायद वे राजनीति में न होते तो और अच्छे कवि होते। 
बेशक उनके पास जीवन के विविधरंगी विशाल अनुभव हैं। वे अपने अनुभवों को जनपक्षधरता के साथ देखने की भी ताकत रखते हैं, कविता में भी उसका निर्वाह करते हैं। वे गरीबों की, किसानों की, मजदूरों की बात करते हैं, उनके हक़ की बात करते हैं, बदलाव की बात करते हैं। वे समाज के हर तबके को बहुत करीब से देखते हैं, समाज के छल, भेदभाव को भी देखते हैं, 'काटकर औरों की टाँगें खुद लगा लेते हैं लोग /शहर में इस तरह अपना कद बढ़ा लेते हैं लोग।' वे गांव और शहर के फर्क को शिद्दत से महसूस करते हैं, देश के स्पंदन को समझते हैं, जानते हैं कि देश कोई भूगोल भर नहीं है, देश जिन्दा नागरिकों से बना है, वे सभी मनुष्य हैं। इसी आधार पर वे किसी भी तरह की साम्प्रदायिकता के विरुद्ध हैं। उनके लिए सभी रंग एक जैसे हैं, कोई अछूत नहीं, कोई त्याज्य नहीं। चाहे भगवा हो या हरा। न भगवा हिन्दुओं का रंग है न हरा मुसलमानों का। आकाश सबका है, फूल भी सबके हैं।  वे जीवन में आधी आबादी के महत्व को, उनके सम्मान को सम्यक दृष्टि से देखते हैं। स्त्रियों के बिना सामाजिक जीवन अधूरा है, वे किसी भी तरह कमतर नहीं हैं। उनकी कविताओं में बेटियां, मांएं, स्त्रियों के अनेक रूप सम्मानपूर्वक आते हैं। प्रकृति के लिए भी उनके मन में खासी जगह है। वे चाँद से  बात करते हैं, फूलों को, पेड़ों को उनकी अपनी अर्थवत्ता में महसूस करते हैं, 'शाम ढली थी और थोड़ी सी रात हुई / बहुत दिनों के बाद चाँद से बात हुई।' राजनीति और जीवन को कविता के रंग में देखने की उनकी कोशिश रंग लाये, मेरी यही शुभकामनाएं हैं उन्हें। 
सुभाष राय 
प्रधान संपादक, जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ

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