रविवार, 21 अप्रैल 2024

ज़िंदगी_के_झरोखे_से

#ज़िंदगी_के_झरोखे_से 

#नेताजी यानी स्व मुलायम सिंह यादव जी ने एक दिन ये किस्सा सुनाया था । सुनाए तो बहुत से इस दिनों पर फिलहाल शुरुवात इस किस्से से ---

एक तथाकथित ईमानदार ,महान बड़े नेता है । उन्होंने प्राइवेट मेडिकल कालेजों द्वारा खूब आरती कबूल किया ।
एक दिन नेता जी ने पूछ लिया कि बहुत बदनामी हो रही है तुम्हारे कारण ।
साहब शाम को नेता जी से मिलने पहुंचे और थोडी देर में बात कर चले गए ।
नेता जी की निगाह उस साहब के सोफे के बगल में पड़ी तो वहा वो एक बैग छोड़ गए थे ।
नेता जी ने अपने पीए से पूछा तो पता लगा कि ईमानदार साहब छोड़ गए है आरती । 
नेता जी ने तुरंत बैग गाड़ी में रखवाया और पहुंच गए ईमानदार जी के घर और खूब लानत मलानत किया कि तुम्हारी इतनी हैसियत की मुझे खरीदोगे इत्यादि इत्यादि ।
और 
उसके बाद ईमानदार साहब ने ईमानदारी के जो जो गुर दिखाये वो तो दुनिया ने देखा ।
( किसी का नाम नही लिखा मैने पर नेता जी की इच्छा पूरी करने का प्रारम्भ भर किया है ) 
नाम लेना तो बिना पढ़े लिखे का काम है ।

बुधवार, 17 अप्रैल 2024

भगवती सिंह जी नही रहे

भगवती सिंह जी नही रहे 
आज मुलायम सिंह यादव जी के यहाँ से फ़ोन से दुखद खबर मिली कि ड़ा लोहिया के साथ काम किए हुए , लोकबंधु राज नारायण के सहयोगी रहे और मुलायम सिंह के साथी रहे मेरे लिए बड़े भाई सामान भगवती सिंह जी का आज निधन हो गया ।
मेरी उनसे पहली मुलाकात राज नारायणजी के साथ हुयी थी और फिर जनेश्वर जी के यहा तो होती ही रही ।90 के दशक मे इनके साथ पार्टी का प्रदेश महामंत्री रहने का सौभाग्य भी मिला जब मुलायम सिंह यादव जी मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष दोनो थे ।
भगवती सिंह जी कई बात मंत्री रहे , सांसद रहे पर उससे भी ज़्यादा उनको उनके संघर्षों के लिए याद किया जाएगा । जेल यात्रायें क्या गिना जाए उनके शरीर के हर हिस्से पर पड़ी पुलिस की लाठियों की चोट भी गिनना मुश्किल है । 
लखनऊ के बहुत ही लोकप्रिय नेता था भगवती सिह जी और पूरा जीवन बिलकुल बेदाग़ रहा ।
लखनऊ की बहुत ही महत्वपूर्ण संस्था चंद्र भान गुप्ता ट्रस्ट के लगातार अध्यक्ष रहे है भगवती सिंह जी जिसके स्कूल कालेज लाइब्रेरी इत्यादि है पर कभी किसी ने उनपर सवाल नही उठाया ।
उन्हें समझने के लिए एक घटना काफ़ी है जब लखनऊ में आयोजित एक प्रदर्शन के लिए मुझे प्रभारी बनाया गया था पर भगवती सिंह जी के होते मैं आगे रहता इसका सवाल ही कहा उठता था । वहाँ आयी मीडिया ने जब भगवती सिह जी से बात करना चाहा तो उन्होंने इनकार कर दिया और पास खड़े लोगों से पूछा सी पी राय कहा है , ये उनका काम है ,और मीडिया के लोगों से बोले की आप लोग सी पी राय से बात करिए । मुझे आवाज लगायी गयी और फिर साथ खड़े होकर बात हुयी । 
उनके संघर्षों को लिखने और उनका वर्णन करने के लिए कई किताबें लिखनी पड़ेगी ।
एक बार वो वन मंत्री थे ।मेरे साथ एक बहुत ही गरीब कार्यकर्ता रहता था जो बाद में तो कंधे पर चढ़ कर बहुत बड़ा आदमी हो गया उसके भाई के लिए मैंने आग्रह किया भगवती सिह जी ने थोड़े ही दिन में उसे गार्ड बना दिया । 
भगवती सिह जी ड़ा लोहिया की शायद आख़िरी कड़ी थे । वो ख़ुद में असली समाजवाद के चलते फिरते विश्व विद्यालय थे और उनके समाजवादी सोच और संघर्ष दिखता था ।वो ड़ा लोहिया के जेल फावड़ा वोट के सच्चे प्रतिनिधि थे ।
उन्होंने अपने आत्मसम्मान से कभी समझौता नही किया । एक बार हम दोनो एक ही समय पर मुलायम सिंह जी के घर पहुँचे । दोनो को ही वहाँ से फ़ोन आया था । पहुँचने पर बताया गया कि अभी मुलाक़ात नही हो पाएगी । भगवती सिंह जी ने जगजीवन से कहा की मुलायम सिंह ने ख़ुद फ़ोन किया था आने को ( मुलायम सिंह जी अक्सर अपने ख़ास लोगों को सीधे ख़ुद फ़ोन मिला लेते थे ) तो ठीक है मैं घर जा रहा हूँ उन्हें बता देना और मुझसे बोले आप चाहो तो इंतज़ार कर लो तब तक जगजीवन चाय पिलाएगा , और तुरंत वापस चले गए । 
पर पिछले सालो में नकली समाजवादियों ने उनकी बहुत उपेक्षा और बेक़दरी किया जो आज शायद नकली हमदर्दी जताने उनके घर अवश्य पहुँचेंगे ।
बड़े भाई भगवती सिंह की कमी पूरी नही की जा सकती है । आज अंतिम (सांकेतिक संस्कार होगा क्योकी उन्होने देह दांन कर दिया है ताकी उनके अंग शायद किसी के काम आये और शरीर चिकत्सा के छात्रो के पढ़ने के काम आये ) समय हाज़िर हो अंतिम दर्शन से तो वंचित रह गया हूँ पर शीघ्र उस घर हाज़िर होऊँगा जहाँ महत्वपूर्ण मंत्री रहने पर भी कभी आने के लिए पूछना नही पड़ा और इंतज़ार नही करना पड़ा । राज नारायण जी जनेश्वर मिश्रा जी ,रमाशंकर कौशिक,मोहन सिह और ब्रजभूषण तिवारी के बाद जहाँ मेरा सचमुच वाला आख़िरी शुभचितंक चला गया वही समाजवादी आंदोलन की सचमुच वाली आख़िरी मशाल भी बुझ गयी ।

                                                 प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति होने का मतलब 

                                                                                                                   डॉ सी पी राय 

                                                                                            स्वतंत्र राजनैतिक चिन्तक एवं  स्तंभकार 

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                             काफी वर्षों के बाद  एक परिपक्व और बहुत ज्यादा अनुभवी ,ज्ञानी और सर्वस्वीकार नेता 
भारत के राष्ट्रपति बने है । पिछले इतने सालों में जब से भी ज्यादातर  लोगो राष्ट्रपति चुनाव याद हो मुझे नहीं लगता की लोगो को इस तरह का दृश्य याद होगा की राष्ट्रपति का चुनाव इतना चर्चित हुआ हो ,इतना विवादित करने की कोशिश की गयी हो और चुनाव के बाद वैसे दृश्य देखने को मिले हो जो देश के आम चुनाव में दिखते है । सडकों पर खुशियाँ मनाते ,नाचते गाते और मिठाइयाँ बाँटते ,पटाखे छोड़ते इतनी बड़ी संख्या में लोग शायद पहले कभी याददाश्त में दिखलाई नहीं पड़े । पर दुसरे प्रत्याशी और कुछ अन्य लोगो ने इतने बड़े पद की गरिमा के साथ जो खिलवाड़ किया वो भी यद् नहीं आता है । पर दलों की सीमायें टूटी ,यहाँ तक की जो लोग राजनीतिक मजबूरी के कारण वोट खिलाफ डाल रहे थे उनमे से भी बड़ी संख्या में लोग प्रणव जी की जीत भी चाहते थे और कई अवसरों पर उनकी प्रशंसा भी कर चुके थे और चुनाव से पहले ही उन्हें बधाई भी दे चुके थे । 

                              पर प्रणव मुखर्जी जी में कुछ तो है जो औरों से अलग है ,उन्हें औरों से अलग करता है । क्या किसी को याद है की पहले किस राष्ट्रपति का चुनाव होते ही बड़े बड़े लोग एक साथ उनके घर पहुंचे हो और बाकायदा मीडिया ने उसे दिखाया हो । याद करना पड़ेगा की इससे पहले किस राष्ट्रपति का शपथ ग्रहण से लेकर उनका हर कार्य पूरे समय देश भर देखा और दिखाया गया हो । ऐसा लग रहा था की  सचमुच कोई रास्त्राध्यक्ष सामने आया हो । सच कहता हूँ मुझ जैसे लोगो को भी आत्मसम्मान की अनुभूति हो रही थी आज और लग रहा था की देश को कोई दिशा देने वाला मिल गया । संवैधानिक मजबूरियां अलग जगह है पर जब किसी जिम्मेदार पद पर कोइ सचमुच  योग्य और असरदार व्यक्ति आ जाता है तो उसकी आभा बहुत सी चीजों को खुद रास्ते पर ले आती है ।शायद इसी की उम्मीद ये महान भारत महामहिम प्रणव मुखर्जी से भी लगा बैठा है ।इसिलए पूरा देश शामिल था इस चुनाव में ,इसके परिणाम में और इसके जश्न में ।

                            सवाल ये है की प्रणव मुखर्जी के कारण क्या बदल सकता है देश में ,व्यवस्था में और उनके अंदर क्या विशेषताएं है जो देश को, देश के लोगो को, समाज को ,सरकार को प्रभावित कर सकती हैं ।

               

 

लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश किधर खड़ा होगा

देश के लोकतंत्र का सबसे बड़ा त्योहार लोकसभा चुनाव होता है और उसका बिगुल बज चुका है । देश में राजनीतिक , लोकतांत्रिक सत्ता का उत्तर प्रदेश सबसे बडा भागीदार प्रदेश है जहा की 80 सीट देश का भाग्य तय करती है इसीलिए कहां जाता है कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश होकर जाता है । आज तक देश के कुल प्रधामंत्रियो आधे केवल उत्तर प्रदेश से हुए है । पिछले दो चुनाव में उत्तर प्रदेश ने भाजपा के लिए संजीवनी और आधार का काम किया और उसकी सरकार बनी तथा उत्तर प्रदेश के बनारस से सांसद लगातार दो बार से प्रधानमंत्री है । इस बार भी सभी दलों तथा राजनीतिक विश्लेषकों की निगाह उत्तर प्रदेश पर ही है । उत्तर प्रदेश इस बार बहुत खामोश है और ये खामोशी ही सभी दलों को बेचैन किए हुए है । राजनीतिक पंडितों का मानना है की अगर मतदाता का रुझान सत्ता की तरफ होता है तो वो चुनाव शुरू होने के साथ ही दिखाई देने लगता है और ज्यों ज्यों चुनाव उठान लेता है सत्ता समर्थक मतदाता ज्यादा मुखर होता जाता है और इस बार वो या तो खामोश है या फिर अलग अलग खांचे में सत्ता से जुड़े प्रत्याशियो के प्रति नाराजगी व्यक्त कर रहा है । 
भाजपा ने अपने काफी सांसदों को फिर से टिकेट दे दिया है जिसमे से अधिकतर सांसद चुनाव जीतने के बाद लौट कर अपने क्षेत्र में गए ही नही या फिर जिस केंद्रीयकृत तरीके से भाजपा की सत्ता चल रही है और उसमे केंद्र तथा प्रदेश के चंद लोगो को छोड़ कर किसी की प्रभावी भूमिका नही है यहां तक की मंत्री सांसद और विधायक का अधिकारी या दरोगा फोन तक उठाने की जहमत नहीं करते तो वो लोग जनता या कार्यकर्ता की किसी भी तरह आवश्यक मदद करने में असफल रहे है और इसलिए भी लोगो से कटे रहे है । इसके परिणाम स्वरूप उन सभी प्रत्याशियों का क्षेत्र में जबरदस्त विरोध है और वो विरोध काफी जगह मुखर होकर प्रकट भी हुआ है । एक दूसरा विरोध जो बड़े पैमाने पर अभी हाल में दिखा की सहारनपुर में क्षत्रीय समाज ने विशाल सम्मेलन किया और उस सम्मेलन में भाजपा का विरोध करने का फैसला किया जबकि क्षेत्रीय समाज के ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी भी है । कुछ राजनीतिक पंडित मानते है की अज्ञात कारणों से एक हवा चल गई है की यदि केंद्र में दुबारा मोदी जी की सरकार आ गई तो उस सरकार में न तो राजनाथ सिंह जी के लिए स्थान होगा और न गडकरी जी के लिए और उससे भी ज्यादा ये चर्चा बड़े पैमाने पर है की उस स्थिति में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को भी मोदी जी और अमित शाह तुरंत हटा देंगे क्योंकि योगी जी इन लोगो के सामने मजबूत विकल्प बन कर उठ खड़े हुए है । इस अफवाह का असर भी मतदाता के एक बड़े वर्ग को प्रभावित करता हुआ दिख रहा है है । 
कोई भी सरकार हो जब वो लगातार दस वर्ष रह लेती है और सत्ता पाने से पहले उसने तमाम वादे किए होते है तो एक बार सत्ता रहने के बाद जनता दुबारा सत्ता इस बात के लिए सौंप देती है की जो कहा था अगर नही कर पाए तो एक बार और मौका देना चाहिए पर दुबारा सत्ता देने का फैसला करते वक्त मतदाता पिछले दस वर्ष को तौलता है , पुराने सभी वादों को याद करता है , ये सारा आने से पहले वाली परिस्थिति को याद करता है और याद करता है की इस पार्टी और नेता को उसने सत्ता किन कारणों और किन आकांक्षाओं के कारण सौंपा था तथा इन दस वर्षो में सचमुच क्या हुआ ,उसकी आकांक्षाओं का कितना हिस्सा पूरा हुआ या नहीं हुआ तथा ये भी याद करता है की पूर्व में जिस सत्ता को उसने बदला था वो क्यों बदला था और वो सत्ता कैसी थी ,क्या क्या किया था उस सत्ता ने और उस सत्ता पर जो आरोप लगे थे उसमे से क्या सही या गलत साबित हवा।।
इस बार के चुनाव को अचानक उठ खड़े हुए इलेक्टोरल बॉन्ड के बवंडर ने भी ग्रहण लगा दिया है और इसके उजागर होने के बाद पी एक केयर फंड को लेकर भी शंका के बदल घुमड़ने लगे है । ऐसे ही जनता जो खुद रोज भोग रही है इसकी तीस भी चीख बन कर सत्ता के कानो में हथौड़े की तरह प्रहार कर रही है । ऐसा देख गया है की जब भी कोई भी सत्ता नौकरशाही और व्यवस्था को सारी ताकत सौप कर खुद को सुरक्षित समझने लगती है दर असल तभी वो ज्यादा असुरक्षित हो जाती है क्योंकि राजनीति नेता या कार्यकर्ता कैसा भी हो उसको जनता का लिहाज करना ही होता है और दरवाजे पर आ गए व्यक्ति के लिए निकलना ही होता है चाहे वो कितनी भी दुरूह परिस्थिति का शिकार हो जबकि नौकरशाही के साथ ऐसी कोई मजबूरी नही है की वो जनता के साथ क्या व्यवहार करे जिसका दुष्परिणाम हर बार हर सरकार को भुगतना पड़ता हैं। वही स्थिति इस बार भाजपा के लिए भी नासूर साबित होती दिख रही हैं।।
उत्तर प्रदेश में कैराना में इकरा हसन , सहारनपर से इमरान मसूद , आजमगढ़ से धर्मेंद्र यादव , बदायू से शिवपाल यादव के पुत्र , मैनपुरी से डिंपल यादव , बांदा से शिवशंकर पटेल , बिजनौर से यशवीर सिंह , ,हाथरस से जसवीर बाल्मिकी,  फतेहपुर सीकरी से भाजपा विधायक चौधरी बाबू लाल के पुत्र रामेश्वर सिंह , अलीगढ़ से बृजेंद्र सिंह, लालगंज से दरोगा सरोज ,मछली शहर से तूफानी सरोज, फर्रुखाबाद से डा नवल शाक्य , फिरोजाबाद से अक्षय यादव , बरेली से प्रवीण सिंह ऐरन, मुजफ्फर नगर में हरेंद्र मलिन ,रामपुर लोकसभा के विपक्षी प्रत्याशी , अमरोहा में दानिश अली ,कानपुर में आलोक मिश्र , उन्नाव में अनु टंडन,जयपुर में अफजाल अंसारी, अंबेडकर नगर में लालजी वर्मा,गोंडा में श्रेय वर्मा , घोसी में राजीव राय , बासगंव में सफल प्रसाद ,बस्ती में राम प्रसाद चौधरी , संभल में जियाउर्रहमान वर्क सहित , मुलायम सिंह यादव के परिवार वाली अन्य सीट तथा अमेठी और रायबरेली सहित करीब 45  सीटे ऐसी है जो भाजपा के लिए कठिन डगर साबित हो रही है और ये विपक्षी उम्मीदवार चुनौती देते दिख रहे है तो भाजपा के नाराज लोग भीतरघर करते हुएं भी दिखलाई पड़ रहे है । यहां ये गौर करने की बात है की जहा 2014 में भाजपा 71 सीट जीती थी वही 2019 में पुलवामा और बालाकोट की लहर के बावजूद उत्तर प्रदेश में भाजपा की सीट घाट कर 62 हो गई थी तो इस बार तो कोई भी लहर नही हैं जिसके कारण लगता है की मतदाता ने खामोशी बरतते हुएं मतदान के दिन ही फैसला सुनाने का निश्चय कर लिया है ।
राजनीतिक पंडितों की भविष्यवाणियां और समीक्षकों की समीक्षा तथा एग्जिट पोल करने वालो को अक्सर मतदाता झुठलाता हुआ भी दिखता रहा है । इस बार खामोश मतदाता अपने लिए ओर भारत देश के लिए क्या भविष्य बुन रहा है जब तक ई वी एम का गिनती वाला आखिरी बटन नही दब जाता तब तक तो भविष्य के गर्भ में है और उसे जानने के लिए हमे भी 4 जून का इंतजार करना होगा और उसका इंतजार भविष्य को भी है और भारत में रुचि रखने वाली दुनिया में भी । 

डा सी पी राय
वरिष्ठ पत्रकार
एवं राजनीतिक विचारक 

बुधवार, 3 अप्रैल 2024

क्या मंहगा चुनाव लोकतंत्र पर बोझ है

2024 के लोकसभा चुनाव की घोषणा भी हो चुकी है और प्रथम चरण के पर्चे भी भरे जा चुके है । सभी प्रत्याशियों का चुनाव प्रचार जोरों पर है और खर्च भी बेतहाशा हो रहा है । इस चुनाव में कुल  करीब एक लाख बीस हजार करोड़ रुपया खर्च होने का अनुमान लगाया जा रहा है जो इससे कही अधिक भी हो सकता है । इसके मुकाबले 2019 के चुनाव में अनुमानतः कुल 60 हजार करोड़ रुपया खर्च हुआ था जो तब तक का सबसे महंगा चुनाव माना गया ।  जबकि 2014 में कुल 9357 करोड़ रुपया खर्च हुआ था और 2009 में केवल भाजपा ने 448 करोड़ रुपया तथा कांग्रेस ने 343 करोड़ रूपया खर्च होना बताया था बाकी सब दलों के तथा अन्य खर्च अतिरिक्त है । 1951/52 के 10 करोड़ खर्च के मुकाबले ये खर्च तेजी से सुरसा की तरह बढ़ता जा रहा है जो देश के हालात , लोकतंत्र और चुनाव की शुचिता तथा चुनाव खर्चों की चिंता करने वालो को उद्वेलित कर रहा है ।
चुनाव इतना महंगा कैसे हो गया ?  कितना महंगा और आम आदमी की पहुंच से दूर ? कब से महंगा हुआ ये  सब सबके सामने है । अब तो चुनाव आयोग ने ही प्रत्याशी का खर्च 70 लाख कर दिया है और पार्टी द्वारा किया जाने वाला खर्च अलग । वर्तमान में कई चुनाव लडे हुए साथियों से जब खर्च पूछा तो चौकाने वाली चीजे सामने आई । समाज में एक बहुत प्रतिष्ठित दंपत्ति ने बड़े शहर से मेयर का चुनाव लडा जब उनसे बात किया तो तो उन्होंने बताया की दोनो की जमा कुल पूजी 35 लाख खर्च हो गए और चुनाव हार गए यदि 1 करोड़ होता तो चुनाव लडा जा सकता था । बाकी साथियों ने बताया की काम से 2 करोड़ रुपया चाहिए लोकसभा में सामान्य चुनाव लड़ाने के लिए और जीत के लिए ये आंकड़ा 5 से 10 करोड़ और उससे अधिक पर पहुंच जाता है । उन लोगो ने ही बताया कि लोकसभा चुनाव में हर ब्लॉक में कम से कम दो गाड़ी चलाना होता है और एक क्षेत्र में 15 से 18 तक ब्लॉक होते है तो कम से कम 30 से 45 तक गाड़ी का खर्च कम से कम 2 लाख रुपया प्रतिदिन होता है । प्रत्याशी , चुनाव एजेंट तथा अन्य सहयोगियों की भी कम से कम 5 से 10 तक गाड़ी चलती है । हर ब्लॉक पर कम से कम एक कार्यालय चलता है जिसका खर्च 5 से 10 हजार प्रतिदिन होता है । केंद्रीय कार्यालय का खर्च भी 10 हजार प्रतिदिन होता है।।लोगो का प्रतिदिन खाना पीना और चाय पानी का खर्च । लोकसभा क्षेत्र में 50/60 छोटी सभाएं 5/10  हजार प्रति के हिसाब से और 15/20 बड़ी सभाएं ब्लॉक मुख्यालय पर 10/20 हजार प्रति कम से कम और किसी बड़े नेता की एक रैली 5 से 10 लाख तक । इसके अलावा हर गांव में चुनाव से एक दिन पहले 5 से 10 हजार खाना पीना का खर्च और वोट के ठेकेदारों को 500 से 1000 तक प्रति वोट दिलवाने का तथा अंत में 2500 के आसपास बूथ के लिए दिए गए बस्ते में 1000 प्रति बस्ता और वोट की गिनती का खर्च । इसके अलावा हैंड बिल ,पोस्टर पर्चा और बहुत कुछ जैसे सोशल मीडिया , स्थानीय अखबार इत्यादि में विज्ञापन । हिसाब लगाया जा सकता है की प्रत्याशी के स्तर पर कितना खर्च होने लगा है और पार्टी के स्तर पर होने वाला खर्च अलग है ।
जरा देख लेते है की एक सांसद को कुल कितना पैसा मिलता है । सांसद को 1 लाख रुपए तनख्वाह मिलती है तो 60 हजार रूपए कार्यालय भत्ता मिलता है और 70 हजार रूपए क्षेत्र का भत्ता मिलता है । दिल्ली में सभी सांसद दो व्यक्ति रख सकते है जिनके लिए 60 हजार रुपया मिलता है । जो संसद संसद की गतिविधियों में ज्यादा सक्रिय रहना चाहते है वो दोनो व्यक्ति संसद से ही मांग लेते है और संसद से अवकाश प्राप्त लोग उन्हें मिल जाते है जो वहा के कार्यों में मदद करते है तथा वो 60 हजार उन्हें मिल जाता है ।कुछ सांसद अपने किसी व्यक्ति को भी उसमे से एक पद पर नियुक्त कर लेते है । इसी तरह सांसद का क्षेत्र बहुत बड़ा होता है और वहा भी उसे कम से कम एक बहुत जिम्मेदार व्यक्ति जो उसकी अनुपस्थिति में भी उसका काम सम्हाल सके चाहिए होता है । दिल्ली हो तो भी क्षेत्र के लोगो के आने पर उनका खाना चाय ही नही बल्कि कई बार इलाज का खर्च और वापसी का किराया भी देना होता है और क्षेत्र में लोगो को चाय पिलाने ,रात को रूक गया कोई तो उसका खाना , इलाज , सबके शादी ब्याह और गमी में अवश्य जाना तथा हर शादी में कुछ न कुछ लिफाफे में देना ये सब खर्चे होते है सांसद के । बाकी उसको दिल्ली में पानी बिजली और रहने को वरिष्ठ के आधार पर दो कमरे के फ्लैट से लेकर 4 कमरे तक का घर मिलता है फर्नीचर सहित जो दिल्ली में मिलना ही चाहिए । रेलवे पास मिलता है और फोन मिलता है । इसको भी लोग आय में जोड़ लेते है ।
पर असल आय 1 लाख रुपया और जब संसद चलती है तो उतने दिन तथा अन्य बैठकों के दिन भत्ता मिलता है । किसी भी तरह से सांसद की हाथ में आने वाले आय 15 से 18 लाख रुपया साल ही होती है । अधिक से अधिक 1 करोड़ रुपया उसे 5 साल में मिलता है तो वो 5 से 10 करोड़ रुपया खर्च कहा से करता है । अगर ये पैसा पार्टी देती है तो वो इतना पैसा चुनाव में क्यों खर्च करती है ? अगर प्रत्याशी खर्च करता है तो वो क्यों करता है ? यही से शुरू होती है भ्रष्टाचार की कहानी और इसकी शुरुवात हुई जब सांसदों और विधायकों को विकास के लिए फंड मिलने लगा जो 2 करोड़ से शुरू होकर 5 करोड़ पहुंच गया । प्रारंभ में आरोप लगाता था की इस फंड से 5 प्रतिशत सांसद जी को स्वतः मिल जाता है यानी 25 लाख रुपया साल । फिर ये आरोप कुछ मामलों में 50 प्रतिशत तक लगाने लगा खासकर स्कूल या अन्य संस्थाओं की मदद के मामले में । इसमें सच क्या है ये तो या सांसद बता सकते है या उन्हें देने वाले । एक पूर्व जन प्रतिनिधि ने बताया की क्षेत्र के लिए आप जितना पैसा सरकार या किसी संस्था से पास करवा लाते है उसमे भी मिलता है तथा बहुत से नेता ठेका भी अपने किसी के नाम से चलाते है ।
चाहे जैसे भी पैसा आता है और चाहे जैसे भी जाता है पर सवाल ये है की जिस देश में गरीबी के रेखा के नीचे का आलम ये है की 80 करोड़ लोगो को मुफ्त में अनाज देना पड़ रहा है और बेरोजगारी के अभी आए आंकड़े डराने वाले है उस देश में जनता की सेवा की जिम्मेदारी लेने वाले पद का चुनाव इतना महंगा क्यों ? तय तो ये था की गरीब भी चुनाव लड़ेगा तो वो अब इस दृश्य में तो पूरी तरह ओझल हो चुका है तो लोकतंत्र में बराबरी कहा बची ? पूजीवाद का ये नंगा नाच क्यों और महंगे चुनाव के लिए तरह तरह की धन की लूट क्यों ?ये सवाल लोकतंत्र ले माथे पर और भारत के संविधान के माथे पर चिपक गए गए है और मुंह चिढ़ा रहे है । 
अब सवाल ये है की यही चलता रहेगा या इसका कुछ निदान भी खोजा जाएगा ? निदान खोजेगा कौन ? उससे बड़ा सवाल है की जो जनता भ्रष्टाचार से आजिज आ चुकी है और उससे पिंड छुड़ाना चाहती है तथा अपने नेताओ को साफ पाक देखना चाहती है वो खुद इस महंगे चुनाव का हिस्सा क्यों बन जाती है ? क्यों शराब हो या साड़ी , पूरी हो या मुर्गा स्वीकार ही क्यों करती है ? क्यों एक दिन 500 रुपया ले लेती है और 5 साल निराश होकर गाली देती रहती है ? क्यों अपनी सड़क पुलिया , नहर और बिजली के न होने या खराब होने की शिकायत करती है ? 
क्या जनता को और प्रशिक्षित करने की जरूरत है ? तो करेगा कौन ? क्योंकि राजनीतिक दलों को तो ये सूट कर रहा है और उनका काम चल रहा है । साथ ही सवाल है की राजनीतिक दल भी इस महंगे चुनाव के चक्कर में कही पूजीपटियो की कठपुतली तो नही बनते जा रहे है और कही अपने सिद्धांतों तथा विश्वसनीयता से समझौता तो नही कर रहे है ? चुनाव आयोग भी 70 लाख रुपया खर्च करने की छूट ही क्यों दे रहा है ? क्यों नही वो 5 साल में सांसद को होने वाली कुल आमदनी का केवल 5 या 10 प्रतिशत ही खर्च करने की अनुमति देता है ।
क्या एक लोकसभा क्षेत्र में छात्र संघ चुनाव की तरह एक ही मंच पर हर प्रत्याशी को लॉटरी से निकाल कर टाइम नही दिया।जा सकता और सभी प्रत्याशी 10 / 10 मिनट में अपना भाषण दे । ये आयोजन ब्लॉक स्तर पर भी हो सकता है जिसका खर्च सरकार या चुनाव आयोग वहन करे । इसी तरह राजनीतिक दलों के वादे और घोषणाएं बराबर बराबर अखबार और टीवी की आयोग की तरफ से ही जारी की जाए । दल और प्रत्याशी द्वारा किसी भी खर्च पर रोज लगा दी जाए । क्या किसी भी विधायक, सांसद और अन्य पदों पर भी अधिकतम दो बार ही रहने का नियम नही बनाया जाना चाहिए ताकि नए लोगो को मौका मिले और ये नियम पार्टी के अध्यक्ष पद पर भी लागू हो और हारने वाला भी दो बार के बाद चुनाव नही लड़।सके ।
अमरीका में राष्ट्रपति प्रणाली है पर चुनाव में 19 वोट डाले जाते है जिसमे उप राष्ट्रपति , प्रतिनिधि सभा,सीनेट,  राज्यपाल ,प्रदेश के दोनों हाउस के सदस्य , काउंटी के चेयरमैन, सिटी कौंसिल के सदस्य , स्कूल कालेज प्रबंधन के सदस्य से लेकर हाई कोर्ट के जज तक । अमेरिका का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होता है जिसमे पहले तो चुनाव में प्रत्याशी होने के लिए वोट पड़ता है और फिर जनता इलेक्टोरल कालेज के लिए मतदान करती है जो राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति का चुनाव करते है । वहा कि चुनाव प्रणाली में कई बार जनता का पापुलर वोट किसी को मिलता है पर इलेकोटोरल वोट से वो जीत जाता है जिसका राजा उदाहरण हिलेरी क्लिंटन का था जिसे 65 लाख से ज्यादा पॉपुलर वोट यानी जनता का वोट पड़ा था पर वो इलेक्टोरल वोट में हार गई । वहा अलग अलग राज्य की अलग अलग इलेक्टोरल वोट की वैल्यू है और मान लिया की किसी राज्य में 40 वोट है तो जिस किसी को 21 वोट मिल जाता है वो 40 वोट उसका हो जाता है । ऐसे भी कई छोटे राज्यों में जीतने के बावजूद बड़े राज्य हार तय कर देते है । वहा बहुत छोटे छोटे पॉकेट में चुनाव कार्यालय होते है जिसे सिटी कार्यालय भी कह सकते है और उसके ऊपर काउंटी फिर स्टेट कार्यालय होते है और सबकी अलग भूमिका होती है । निचला कार्यालय दो तरह के लोग चलाते है एक जो पेड होते है और दूसरे जी रिटायर लोग या पार्टी समर्थक जो अपनी सहूलियत के हिसाब से समय देते है । इस स्तर पर फोन बैंकिंग का काम और नए वोटर बनाने का काम होता है जो बहुत महत्त्वपूर्ण होता है । वह मौजूद हर व्यक्ति को वोटर लिस्ट के पन्ने दिए जाते है तथा एक पेज भी जिसपर लिखा होता है की क्या बात करनी है ।इसके अलावा सड़क तथा मुहल्ले में संपर्क कर अपने प्रत्याशी के पक्ष में नए वोटर बनाना भी होता है । समय समय पर हर स्तर पर मीटिंग होती है और समीक्षा के साथ रणनीति पर चर्चा होती है । इलेक्शन फंडिंग के लिए भी दावत के साथ छोटी छोटी मीटिंग हर क्षेत्र में होती है और जज लोगो के चुनाव के लिए उनकी अलग मीटिंग होती है । 
अमरीका में मुख्य भूमिका राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों की तीन डिबेट की होती है जिसे पूरा देश टीवी के माध्यम से सुनता है और वहा भी नारे तथा आरोप काम करते है । ट्रम्फ ने : अमेरिका इस ओनली फॉर अमेरिकन:  का नारा दिया और हिलेरी पर ईमेल लीक होने और राष्ट्र की सुरक्षा से खिलवाड़ का माला उठाया तो हिलेरी ने ट्रमफ द्वारा कभी देश को कोई टैक्स नही देने और गैर जिम्मेदार होने का आरोप लगाया । अमरीका का चुनाव बहुत महंगा चुनाव होता है जिसमे सबसे महंगा मीडिया और सोशल मीडिया से प्रचार होता है ।
इसलिए अमरीका से हम उसकी महगाई तो नही ले सकते है पर चुनाव में प्रत्याशी होने के लिए हर स्तर पर दल के अंदर चुनाव उनकी एक अच्छी चीज है तो राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के बीच डिबेट दूसरी अच्छी चीज है जिसमे एक डिबेट में संपादक लोग सवाल करते है और सभी मुद्दों पर प्रत्याशी का विचार और ज्ञान सामने आ जाता है । ये दोनो चीजे भारत में लोकतंत्र को और प्रभावी बना सकती है । 
ऐसा कर के तो देखे हो सकता है चुनाव के माथे पर चिपका सवाल मुंह चिढ़ाना बंद कर।दे और भारत का लोकतंत्र और स्वस्थ तथा शक्तिशाली लोकतंत्र बन जाए ।

डा सी पी राय
वरिष्ठ पत्रकार